“मैं साफ़ करना चाहती हूँ कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहाँ की सेना भारत के संवैधानिक मूल्यों की सुंदर झलक है।” भारतीय सेना की प्रवक्ता सोफ़िया क़ुरैशी का यह वाक्य भारत-पाकिस्तान के बीच इस बार के टकराव के दौरान बोले गए अनगिनत वाक्यों में सबसे अलग और देर तक गूँजनेवाला वाक्य बना रहेगा। जल्दी ही भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने आक्रामक, हिंसक और सांप्रदायिक प्रचार में इसे गुम कर देने की कोशिश करेंगे। लेकिन हम इसे याद रखें। यह वाक्य इस बात का सबूत है कि भारत अपने प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के ऊपर अपनी श्रेष्ठता सिर्फ़ एक दावे से ही कर सकता है। वह दावा है सोफ़िया क़ुरैशी का कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
भारत और पाकिस्तान के सबसे ताज़ा टकराव में यह तय करना तो मुश्किल रहेगा कि दोनों में कौन जीता और कौन हारा। दोनों के नेता अपनी जनता को बतलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वही विजयी रहे। चूँकि उनकी जनता ने उन्हें बिना शर्त अपना समर्थन दे दिया था, वह भी उनकी बात मानने को मजबूर है। इस टकराव में दोनों मुल्कों में भले कोई जीत-हार न हुई हो, एक दूसरी बात ज़रूर हुई। वह है निर्णायक रूप से भारतीय जनता पार्टी और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक पराजय।
हरेक देश यह दावा करता है कि वह दूसरे से बेहतर विचार का प्रतिनिधित्व कर रहा है। वह उन देशों से, जो युद्ध में शामिल नहीं, इसके आधार पर समर्थन माँगता है कि उसके विचार का विजयी होना पूरे विश्व के हित में होगा। रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो उसे यह कहना ज़रूरी लगा कि यूक्रेन नाज़ी विचार का पोषक है। विचार की श्रेष्ठता के आधार पर अपने पक्ष की श्रेष्ठता का दावा किया जाता है। उसी के आधार पर अपनी हिंसा को जायज़ ठहराया जाता है।
6 मई से भारत और पाकिस्तान के बीच हिंसक टकराव के साथ भाषा और विचार का युद्ध भी चल रहा था। भारत की तरफ से इन 3 दिनों में उसकी फ़ौज बोल रही थी।उसकी राजनीतिक सत्ता चुप थी।उस सत्ता के प्रमुख ख़ामोश थे। लेकिन जो भाषा विदेश सचिव विक्रम मिसरी और फ़ौज की प्रवक्ता सोफ़िया क़ुरैशी और व्योमिका सिंह बोल रही थीं, वह उससे क़तई अलग और विपरीत थी जो 22 अप्रैल के पहले और बाद में भारत की राजनीतिक सत्ता के मुखिया बोलते रहे थे।
टकराव के तीसरे दिन प्रेस से बात करते हुए और इस बात का उत्तर देते हुए कि भारतीय सेना ने मस्जिदों को निशाना बनाया था सोफ़िया क़ुरैशी ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यानी वह मस्जिदों को निशाना नहीं बना सकता। वह किसी भी धर्म का अपमान नहीं कर सकता। यह एक वाक्य मात्र पाकिस्तान को मुख़ातिब नहीं था। वह भारत के प्रधानमंत्री और उनके दल के बाक़ी नेताओं को भी सुनना चाहिए। सिर्फ़ उन्हें क्यों, उनके उन सारे समर्थकों को भी सुनना चाहिए जिन्होंने उन्हें इसलिए चुना है कि वे भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को समाप्त करके उसे एक हिंदू राष्ट्र में तब्दील कर देंगे।
2019 के चुनाव में विजय के बाद भाजपा के लोगों को संबोधित करते हुए (chucked secularism) नरेंद्र मोदी ने कहा कि 2014 के बाद से जिस एक शब्द को बाहर कर दिया गया है,वह है सेक्यूलरिज़्म। उन्होंने इसके लिए अपनी पीठ थपथपाई कि 2019 के चुनाव में कोई राजनीतिक दल ‘सेक्यूलरिज़्म की नक़ाब पहन कर लोगों को गुमराह नहीं कर पाया।’ मोदी के बाद भाजपा के दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता योगी आदित्यनाथ ने 2017 में कहा कि सेक्युलर शब्द सबसे बड़ा झूठ है।
बार बार अदालतों में अर्ज़ी लगाकर इसकी कोशिश की गई कि इस शब्द को संविधान से बाहर कर दिया जाए। उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने एकाधिक बार कहा है कि संविधान के बुनियादी ढाँचे का सिद्धांत पवित्र नहीं है और उसे बदला जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थिर किया था कि संसद जो भी क़ानून बनाए वह इस बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं कर सकता। इस बुनियादी ढाँचे या संरचना का एक अनिवार्य तत्व है धर्मनिरपेक्षता। धनखड़ इसे हटा देना चाहते हैं।
भाजपा के पितृ संगठन के सारे गुरु जिस एक अवधारणा से सबसे अधिक बिदकते रहे हैं वह है सेक्यूलरिज़्म। नेहरू से भाजपा और आर एस एस इसीलिए सबसे अधिक घृणा करते हैं कि उन्हें भारत को सेक्युलर गणराज्य बनाने के लिए ज़िम्मेवार माना जाता है।
आपको शायद याद हो कि जब उद्धव ठाकरे ने भाजपा से नाता तोड़कर कॉंग्रेस पार्टी के साथ जाने का निर्णय किया तो भाजपा के नेताओं ने उनपर फब्ती कसी कि लगता है वे सेक्युलर हो गए हैं। महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल ने भी एक बार व्यंग्य किया था कि क्या ठाकरे सेक्युलर हो गए हैं।भाजपा के लोग सेक्युलर शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं।
जब सेक्युलर शब्द बदनाम नहीं हुआ था उस समय भाजपा के लोग यह कहना चाहते थे कि वे असली सेक्युलर हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने उन पर हमला करने के लिए ‘ स्यूडो सेक्युलर ’ शब्द ईजाद किया जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिफ़ाज़त की बात करते रहे हैं।
बार-बार या तो सेक्युलर शब्द और अवधारणा पर हमला किया गया है या इसे विकृत करने का प्रयास किया गया है। मोदी ने कहा कि चूँकि उनकी राजकीय योजनाओं का लाभ सबको मिलता है इसलिए वे सेक्युलर हैं। यह इस शब्द और इसकी अवधारणा की आत्मा की हत्या है। सेक्युलरिज़्म का रिश्ता वास्तव में राजनीतिक अधिकारों से है। संख्या से निरपेक्ष प्रत्येक धर्म और संप्रदाय के लोग बराबरी से राजनीतिक भागीदारी कर सकें, सेक्युलरिज़्म का एक अर्थ यह है।
गुजरात में चुनाव प्रचार करते हुए नरेंद्र मोदी ने हिंदुओं को यह कहकर डराया कि अगर कॉंग्रेस सत्ता में आ गई तो अहमद पटेल मुख्यमंत्री हो जाएँगे।यह किसी ने नहीं पूछा, कॉंग्रेस ने भी नहीं, कि क्या अहमद पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री होने का अधिकार नहीं। उसी तरह असम में यह कहकर हिंदुओं को भयभीत करने की कोशिश की गई कि अगर भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो बदरूद्दीन अजमल मुख्यमंत्री हो जाएँगे।
नरेंद्र मोदी बार बार राहुल गाँधी को शहज़ादा कहकर उनका मखौल उड़ाते हैं जैसे मुलायम सिंह को मौलाना मुलायम कहकर उन पर हमला किया जाता था। 2002 में मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने जब गुजरात में चुनाव की तारीख़ें बदलने का निर्णय किया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका पूरा नाम जेम्स माइकल लिंग्दोह लेकर उनकी ईसाइयत को उजागर करने की कोशिश की, मानो ईसाई होने के कारण उन्होंने यह किया है। सोनिया गाँधी पर भी उनकी ईसाइयत के कारण हमला किया जाता रहा है।
राजनीति के साथ राष्ट्र को सांस्कृतिक रूप से परिभाषित करने में भी सबकी भागीदारी के अधिकार के बिना सेक्युलरिज़्म शब्द का कोई अर्थ नहीं। इस मामले में आर एस एस और भाजपा ने कभी कोई अनुमान की जगह नहीं छोड़ी है। पिछले 11 वर्ष से स्कूली किताबों और पाठ्यक्रमों से मुसलमानी छाप की हर चीज़ को हटाने का अभियान सा चल रहा है। देश भर में शहरों, क़स्बों, सड़कों के नाम बदलकर उनका हिंदूकरण किया जा रहा है।
धर्मनिरपेक्षता को एक विदेशी अवधारणा ठहराकर उसे त्याग देने का वैचारिक अभियान दशकों से चलाया जा रहा है। लेकिन आज वही धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए वैचारिक ढाल बन गई है। नरेंद्र मोदी की ज़ुबान को आदर्श मानने वाले यह पूछ सकते हैं कि क्या आज के भारतीय राज्य ने अपना विकृत, घृणित बहुसंख्यकवादी चेहरा छिपाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की नक़ाब पहन ली है?
जो भी हो, साबित यही हुआ कि आप कभी भी ख़ुद को हिंदू राष्ट्र कहकर वैचारिक रूप से श्रेष्ठ नहीं ठहरा पाएँगे। हमेशा ख़ुद को स्वीकार्य बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की ही पनाह लेनी होगी। वैसे ही जैसे दुनिया के सामने आप ख़ुद को कभी सावरकर या गोलवलकर के अनुयायी नहीं कहते, उसी गाँधी की मूर्ति के आगे सर झुकाते हैं जिन्हें आपके ही एक व्यक्ति ने गोली मार दी थी। तो इस ‘युद्ध’ में जो एक चीज़ निर्णायक रूप से पराजित हुई है, वह है भाजपा और आर एस एस का राष्ट्र और सामूहिक जीवन का विचार।