“फरवरी 1948 में, कम्युनिस्ट नेता क्लेमेंट गोटवाल्ड प्राग के एक बारोक महल की बालकनी से ओल्ड टाउन स्क्वायर में जमा हुए लाखों नागरिकों को संबोधित करने के लिए बाहर निकले। यह बोहेमिया के इतिहास में एक बड़ा मोड़ था।…
गोटवाल्ड अपने साथियों से घिरे हुए थे। क्लेमेंटिस उनके करीब खड़े थे। बर्फबारी और ठंड थी और गोटवाल्ड नंगे सिर थे। उनके प्रति उमड़ती चिंता के कारण क्लेमेंटिस ने अपनी फर वाली टोपी उतारी और गोटवाल्ड के सिर पर रख दी।
प्रचार विभाग ने बालकनी पर ली गई तस्वीर की सैकड़ों हज़ारों प्रतियाँ बनाईं, जहाँ गोटवाल्ड एक फरवाली टोपी में और अपने साथियों से घिरे हुए लोगों से बात कर रहे थे। उस बालकनी पर कम्युनिस्ट बोहेमिया का इतिहास शुरू हुआ। हर बच्चा उस तस्वीर को पोस्टरों और स्कूली किताबों और संग्रहालयों में, हर जगह देखते रहने की वजह से हर बच्चा उस तस्वीर से परिचित था।
चार साल बाद क्लेमेंटिस पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया और उसे फाँसी पर लटका दिया गया। प्रचार विभाग ने तुरंत ही उसे वह इतिहास से गायब कर दिया और बेशक सभी तस्वीरों से भी। तब से गोटवाल्ड बालकनी पर अकेला रहता है। जहां क्लेमेंटिस खड़ा था वहां केवल नंगी महल की दीवार है।अब क्लेमेंटिस का कुछ नहीं बचा, सिवा गोटवाल्ड के सिर पर फर वाली टोपी के।” ( हँसी और विस्मृति की एक किताब, मिलान कुंदेरा)
कुंदेरा का मशहूर उपन्यास इस दृश्य से शुरू होता है। तब के चेकोस्लावाकिया में कम्युनिस्ट तानाशाही के दौरान असुविधाजनक तथ्यों से साथ क्या सलूक किया जाता था, यह दृश्य उसी की तरफ़ इशारा करता है। क्लेमेंटिस असुविधाजनक था, उसे तस्वीरों से ग़ायब कर दिया गया लेकिन वह बचा रह गया अपनी उस फ़र की टोपी में जो उसने गोटवाल्ड के सर को ठंड से बचाने को उसे ओढ़ा दी थी।
यह प्रसंग पिछले 11 सालों में बार-बार याद आता रहा है। असुविधानजक तथ्यों, पात्रों को इतिहास से ग़ायब कर देने का जो अभियान हर स्तर पर चलाया जा रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि हिंदुत्ववादियों ने कहीं यूरोप की कम्युनिस्ट तानाशाहियों से ही तो यह नहीं सीखा।
इधर यह फिर याद आया जब अख़बार में पढ़ा, किसी भी पाठ्यकर्म में किसी भी सूरत में, ‘मनुस्मृति’ का ज़िक्र तक नहीं आना चाहिए। यह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति का आदेश है। उन्हें यह आदेश दुबारा जारी करना पड़ा है। कुछ महीने पहले उन्होंने निर्देश दिया था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में किसी भी स्तर पर ‘मनुस्मृति’ नहीं पढ़ाई जाएगी। लेकिन उसके बाद भी अभी पाया गया कि संस्कृत विभाग ने धर्मशास्त्र वाले अपने पाठ्यक्रम में मनुस्मृति के कुछ हिस्सों को पाठ्य सामग्री के तौर पर प्रस्तावित किया है।इसलिए उन्हें ज़ोरदार तरीक़े से यह आदेश देना पड़ा।
‘मनुस्मृति’ क्यों नहीं पढ़ना चाहिए, यह कुलपति ने नहीं बतलाया। कारण बताना इसलिए ज़रूरी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम या पाठ्यसामग्री के बारे में निर्णय करने का अधिकार कुलपति के पास नहीं हुआ करता। संबंधित विभाग, संकाय और विद्वत् परिषद् में इसके लिए निर्धारित प्रक्रियाओं के ज़रिए यह फ़ैसला किया जाता है। अगर संस्कृत विभाग में और आगे के निकायों में ‘मनुस्मृति’ पढ़ना आवश्यक माना गया तो उन सबके निर्णय को निरस्त करने का कोई ऐसा कारण होगा जिसके कारण कुलपति को ऐसा असाधारण कदम उठाना पड़ा। न्यायसंगत यह होता कि कुलपति कार्यालय अपने निर्णय का तर्क प्रस्तुत करते। वह न करके उन्होंने इसके बारे सिर्फ़ एक सार्वजनिक घोषणा की।
संस्कृत विभाग के एक सहकर्मी से बात हो रही थी। उन्होंने कहा, इसके पीछे और और कुछ नहीं, बस, प्रशासन कोई विवाद नहीं चाहता। यानी इस निर्णय का कोई अकादमिक कारण नहीं है।इसके अलावा ’मनुस्मृति’ का विरोध करनेवाले यह भी न मान लें कि विश्वविद्यालय प्रशासन इतना प्रगतिशील हो उठा है कि ‘मनुस्मृति’ जैसे प्रतिगामी ग्रंथ को देखना भी नहीं चाहता। असल बात है झंझट से बचना ।
लेकिन क्या फिर हम डॉक्टर आंबेडकर को भी नहीं पढ़ाएँगे? उन्हें पढ़ाते वक्त क्या ‘मनुस्मृति दहन’ का ज़िक्र नहीं आएगा? क्या विद्यार्थी यह न पूछेंगे कि आख़िर ‘मनुस्मृति’ को क्यों जलाया गया? किसी एक किताब को जलाने का उदाहरण भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में नहीं मिलता। आख़िर इस किताब में ऐसा क्या है कि पुस्तक प्रेमी और बौद्धिक आंबेडकर साहब ने इसे जलाने का फ़ैसला किया? यह प्रश्न जब उठेगा तो अध्यापक क्या करेंगे? क्या ‘मनुस्मृति दहन’ के ज़िक्र को ही हटा दिया जाएगा? फिर आंबेडकर साहब की विचार यात्रा को कैसे समझेंगे?
उसी प्रकार गाँधी को पढ़ाते समय धर्म के ज़िक्र से कैसे बचा जाएगा? बाइबिल या क़ुरआन के साथ उनके रिश्ते की बात होगी लेकिन उनके हिंदूपन को ‘मनुस्मृति’ के प्रति उनके रवैये पर बात किए बिना कैसे समझा जाएगा?
ये सिर्फ़ दो उदाहरण हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद भारत किस विधान से चलेगा, इसकी चर्चा में उस बहस से कैसे बचा जाएगा जो संविधान बनाम ‘मनुस्मृति’ की थी। आज के सबसे बड़े हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास पढ़ाते असमय भी ‘मनुस्मृति’ के बारे में उसके बदलते रुख़ से कैसे बचा जा सकेगा? या क़ानून पढ़ते वक्त स्वतंत्र भारत के विभिन्न न्यायालयों के उन निर्णयों को पाठ्यक्रम और कक्षा की चर्चा से कैसे बाहर रखा जा सकेगा जिनका औचित्य सिद्ध करने के लिए न्यायाधीशों ने ‘मनुस्मृति’ का सहारा लिया है? स्त्री अध्ययन विभागों में या जेंडर अध्ययन करते वक्त भारत में पितृसत्ता के वैचारिक स्रोतों का ज़िक्र करते वक्त ‘मनुस्मृति’ के उल्लेख से कैसे बचेंगे?
आजकल भारतीय चिंतन परंपरा पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है। भारत में विधान की विधिवत व्यवस्था करनेवाले मनु की उपेक्षा कैसे की जा सकेगी? क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू अध्ययन केंद्र’ में भी ‘मनुस्मृति’ का ज़िक्र मना होगा?
आप ‘मनुस्मृति’ को ग़ायब कर दें लेकिन उसकी टोपी, जूता, नाखून, हर जगह मिलेंगे। प्रश्न यह भी नहीं।’मनुस्मृति’ को न पढ़ाने का कोई अकादमिक तर्क नहीं है।जब आप ‘मनुस्मृति’ पढ़ाते है तो आपका काम उसका गुणगान करना नहीं है। उसे समझना आपका उद्देश्य है। क्यों कोई उससे सहमत है और कोई असहमत?
परेशानी लेकिन ‘मनुस्मृति’ मात्र से नहीं। कहा गया है कि ‘बाबरनामा’ भी न पढ़ाया जाए। ‘बाबरनामा’ को न पढ़ाने का तर्क यह है कि किसी आक्रांता के बारे में बात नहीं की जाएगी।उसी तर्क से अंग्रेजों के बारे में भी बात नहीं की जानी चाहिए। अगर आक्रांता की खोज करने लगें तो ‘भारत’ के भीतर ही क्या अशोक आक्रांता नहीं ठहरता या चंद्रगुप्त मौर्य? अगर बाबर को आक्रांता ही मान लें तो भी उसके उल्लेख के बिना भारत का इतिहास कैसे लिखा जाएगा?
इसकी भी सख़्त हिदायत है कि कहीं भी पाकिस्तान का ज़िक्र न हो, न इक़बाल का। फिर उर्दू और फ़ारसी शायरी के इतिहास का क्या करें? ख़ुद उपनिवेशकालीन भारत में राष्ट्र के स्वरूप पर होनेवाली बहस का क्या करें जिसमें इक़बाल महत्त्वपूर्ण भागीदार हैं? इस प्रसंग में जैसे हमें सावरकर को पढ़ना ही पड़ेगा या बिना इक़बाल के ज़िक्र के आधुनिक भारतीय दर्शन कैसे पढ़ें ?
पाकिस्तान के बिना बँटवारे को कैसे समझा जाए? पाकिस्तानी लेखकों को हटाकर उर्दू साहित्य कैसे पढ़ाया जाए? कार्ल मार्क्स के बिना अर्थशास्त्र या दर्शन या इतिहास या साहित्य ही कैसे कैसे पढ़ाया जा सकता है?
जैसा हमने पहले लिखा और यह बात बार बार कही जा चुकी है, किसी लेखक, रचना को पढ़ने का मतलब उसका प्रचार करना नहीं है। अगर आप मार्क्स, गाँधी, फ़्रायड को पढ़ाते हैं तो विद्यार्थियों को मार्क्सवादी, गाँधीवादी या फ़्रायडवादी बनाना नहीं है। या और संक्षेप में कहें तो अध्ययन-अध्यापन का उद्देश्य प्रचार नहीं, विचार है।