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    Home » माओवादियों के ख़ात्मे से नहीं ख़त्म होगा आदिवासियों का संघर्ष!
    भारत

    माओवादियों के ख़ात्मे से नहीं ख़त्म होगा आदिवासियों का संघर्ष!

    Janta YojanaBy Janta YojanaMay 27, 2025No Comments7 Mins Read
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    छत्तीसगढ़ में अबूझमाड़ के जंगलों में 21 मई को प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नामबाला केशव राव उर्फ़ बसवराजु का मारा जाना सुरक्षाबलों की अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है। केंद्र सरकार ने 2026 तक वामपंथी उग्रवाद को समाप्त करने की जो टाइमलाइन घोषित की है, उसे देखते हुए यह वाक़ई एक उपलब्धि है।

    अरसे से सरदर्द बने माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व के ख़त्म होने के साथ ही सरकार आदिवासी इलाक़े में शांति और विकास का नया दौर शुरू होने का दावा करने लगी है, लेकिन इतिहास को देखते हुए यह आसान नहीं लगता। माओवादी पार्टी को आदिवासियों के बीच ‘आधार-क्षेत्र’ बना लेने के संदर्भ में जिन कारकों ने मदद की थी, वे लगातार मौजूद हैं। माओत्से तुंग की लाल किताब पढ़कर आदिवासी नौजवान माओवादियों का साथ नहीं देते, बल्कि जल-जंगल-ज़मीन की लूट से उपजे शोक की वजह से उनकी शक्ति बनते हैं।

    अफ़सोस की बात है कि सरकार की ओर से इस लूट का अहिंसक विरोध करने वालों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। ऐसा प्रयास करने वालों को सीधे माओवादी बताकर उन्हें चुप रहने या इलाक़ा छोड़ने को मजबूर कर दिया जाता है। ऐसे में यह आरोप बल पाता है कि सरकार की असल रुचि आदिवासियों को जंगल से बाहर करना है या फिर उनके संवैधानिक अधिकारों की उपेक्षा करना है ताकि कॉरपोरेट कंपनियाँ इन इलाक़ों में मनमर्ज़ी कर सकें। यह संयोग नहीं कि माओवादियों का प्रभाव उन्हीं इलाक़ों में रहा है जो आदिवासियों के गढ़ थे।

    13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में भाषण देते हुए आदिवासी नेता जयपाल सिंह ने गंभीर आशंका जाहिर की थी। ये वही जयपाल सिंह थे जिनकी कप्तानी में 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार गोल्ड मेडल जीता था। कैप्टन जसपाल सिंह ने संविधान सभा में मौजूद तमाम दिग्गज स्वतंत्रता सेनानियों की मौजूदगी में कहा था-

     “अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हज़ार साल में उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूँ, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगल में रहने को मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और क़ब्ज़े से भरा है जिसके ख़िलाफ़ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सबके इस वादे पर भरोसा करता हूँ कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा आज़ाद भारत बनाने जा रहे हैं जहाँ सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की उपेक्षा नहीं की जाएगी।”

    कैप्टन जयपाल सिंह की ज़ुबान इतिहास बोल रही थी।

    आदिवासियों ने 1857 के ‘पहले’ स्वतंत्रता संग्राम से अस्सी साल पहले ही क्रांति की ज्योति जला दी थी। 1784 में तिलका माँझी ने फाँसी के पहले जो कहा था, उससे आदिवासी चेतना को समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था-

    “हमारे लोग सृष्टि के आरंभ से ही यहाँ रहते आए हैं। हम कभी भी धरती के स्वामी नहीं रहे। धरती हमारी माँ है। हम सभी उसके बच्चे हैं। हम इस भूमि के संरक्षक हैं। यह देखना हमारी ज़िम्मेदारी है कि यह भूमि भविष्य की पीढ़ियों को सहारा देती रहे, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की है। यह हमारी विरासत है। फिर आप, अंग्रेज़, एक विदेशी जाति, खुद को उन जंगलों का स्वामी कैसे घोषित कर सकते हैं जो हमें पोषण देते हैं और हमें जीवन देते हैं? आप हमें उस एकमात्र घर में प्रवेश से कैसे वंचित कर सकते हैं जिसे हमने कभी जाना है? हम इस नियम को स्वीकार करने से पहले ही मर जाएँगे।”

    लेकिन कैप्टन जयपाल सिंह के भरोसे का सरेआम खून हुआ। संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत आदिवासियों को प्रशासनिक सुरक्षा दे सकती थी लेकिन जंगल पर उसके अधिकारों को सुरक्षित नहीं कर पायी। जो बाँध, बिजलीघर, खनिज आधारित कारख़ाने बाक़ी देश के लिए विकास के प्रतीक थे, वे आदिवासियों के विस्थापन के प्रतीक बन गये। ‘जंगल के क़ानून’ ने जंगलों की सदियों से हिफ़ाज़त करने वाले आदिवासियों को ही ‘ख़तरनाक मान लिया। जिस फल, शहद, लकड़ी जैसी वनोपज पर उनका हमेशा अधिकार रहा, उससे उन्हें वंचित कर दिया गया। लेकिन कई राज्यों में इस केंद्रीय कानून के प्रावधानों को लागू करने के क़ानून नहीं बनाए। वन विभाग और अन्य सरकारी संस्थाओं ने ग्राम सभाओं के अधिकारों को मानने में हमेशा आनाकानी की। इसके पीछे कॉरपोरेट कंपनियों और सरकार का गठजोड़ ज़िम्मेदार था।

    देश में आदिवासियो की अनुमानित आबादी क़रीब 12.5 करोड़ है यानी कुल आबादी का 8.6% जिसके लिए विकास का मौजूदा मॉडल हमेशा दुश्चिंताओं का कारण बना रहा। इस असंतोष का फ़ायदा माओवादियों को मिला। 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) बना जिसने इस बात की गारंटी दी कि आदिवासी क्षेत्र में विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की सहमति ज़रूरी होगी। ग्राम सभाओं को प्राकृतिक संसाधन (वन उपज, पानी, खनिज) के प्रबंधन का भी अधिकार दिया गया। 2006 का वन अधिकार अधिनियम (FRA) भी ज़मीन पर ख़ास असर नहीं डाल सका।

    2006 में योजना आयोग ने सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी डी. बंधोपाध्याय की अध्यक्षता में इस समस्या की पड़ताल के लिए एक समिति बनायी थी। इस समिति में यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह, इंटेलीजेंट ब्यूरो के पूर्व निदेशक अजीत डोभाल (वर्तमान एनएसए), सामाजिक कार्यकर्ता बतौर चर्चित सेनानिवृत आईएएस बी.डी.शर्मा, यूजीसी के अध्यक्ष सुखदेव थोराट और मानवाधिकार वकील के.बालगोपाल शामिल थे। इस समति ने 2008 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि नक्सलवाद के प्रसार के लिए सत्ता प्रतिष्ठान ही ज़िम्मेदार है। व्यवस्था के प्रति घोर असंतोष और उसके प्रति विश्वास के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के कारण इसका प्रसार हुआ है। यह एक राजनीतिक आंदोलन है जिसकी जड़ें ग़रीब किसान और आदिवासियों के बीच हैं। इससे राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। समिति ने तत्कालीन मनमोहन सरकार की इस नीति की भी आलोचना की थी कि ‘बिना हथियार डाले नक्सलियों से बातचीत नहीं होगी।’

    यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि 1967 के मार्च में पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में नक्सलबाड़ी गाँव में ज़मींदारों के ख़िलाफ़ हुए किसानों के सशस्त्र संघर्ष से प्रेरणा लेने वाले वामपंथी ही आगे चलकर नक्सलवादी कहलाए। इन्होंने सीपीएम से अलग होकर सीपीआई (एम.एल) बनायी लेकिन तमाम धड़ों में बँट गये। बाद में ज़्यादातर धड़ों ने संसदीय व्यवस्था को स्वीकार कर लिया पर सीपीआई (माओवादी) अब भी सशस्त्र क्रांति के ज़रिए राजसत्ता को उखाड़ फेंकने के विचार पर क़ायम है। आंध्र प्रदेश में असर रखने वाले पीपुल्स वार ग्रुप और बिहार में सक्रिय माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के 2004 में विलय से इस पार्टी का गठन हुआ था। सरकार ने 2009 में सीपीआई (माओवादी) पर प्रतिबंध लगा दिया था।

    6 अप्रैल 2010 में माओवादियों ने दंतेवाड़ा में एक पुलिस हेड कान्स्टेबल समेत 75 सीआरपीएफ़ जवानों को विस्फोट में उड़ा दिया था। इस हत्याकांड की जाँच बीएसएफ़ के पूर्व महानिदेशक ई.एन.राममोहन को सौंपी गयी थी। उन्होंने गृहमंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जो सार्वजनिक नहीं की गयी। लेकिन लेख और सेमिनारों के माध्यम से उन्होंने इस समस्या को लेकर कई बार अपना रुख़ स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि इस समस्या का सैन्य समाधान नहीं हो सकता। उन्होंने संविधान की पाँचवीं अनुसूची के पक्ष में ज़ोरदार दलीलें दीं और कहा कि आदिवासियों का शोषण और वन तथा भूमि अधिकारों से उन्हें वंचित करना उग्रवाद का प्रमुख कारण है।

    बहरहाल, मौजूदा सरकार समस्या के सैन्य समाधान के लिए उत्सुक है। उसकी शक्ति और संसाधन को देखते हुए यह बात निश्चित है कि जंगलों में छिपकर बंदूक़ के दम पर दिल्ली की सत्ता को बेदखल करने का सपना देखने वाले कभी कामयाब नहीं होंगे, लेकिन दिल्ली को भी यह सोचना होगा कि जंगलों में बंदूक उठाने वालों को सम्मान क्यों मिलता है? कुछ माओवादी नेताओं के मारे जाने भर से आदिवासी क्षेत्रों में आह और आग का सिलसिला ख़त्म नहीं हो पाएगा। आदिवासी सदियों से अपनी आज़ादी और अधिकार के लिए संघर्ष करते रहे हैं, माओवादियों का आगमन उनके संघर्ष की महागाथा का एक फ़ुटनोट भर है।

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