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    Home » ‘सावरकरी ग़ुब्बारे’ को फ़ुस्स करते अरुण शौरी!
    भारत

    ‘सावरकरी ग़ुब्बारे’ को फ़ुस्स करते अरुण शौरी!

    By February 23, 2025No Comments8 Mins Read
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    विनायक दामोदर सावरकर की ‘वीरता’ पर सवाल उठाने वाले राहुल गाँधी न सिर्फ़ बीजेपी के निशाने पर हैं, बल्कि इस मसले पर उन्हें तमाम क़ानूनी दिक़्क़तों का सामना भी करना पड़ रहा है। लेकिन आरएसएस ख़ेमे के पत्रकार कहे जाने वाले और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने अपनी एक नयी किताब के ज़रिए सावरकर समर्थकों को आईना दिखाया है। अरुण शौरी की इस किताब का नाम है ‘द न्यू आयकन सावरकर एंड द फैक्ट्स।’ इस किताब में उन्होंने सावरकर के ‘देशप्रेम और साहस’ को लेकर प्रचारित तमाम क़िस्सों की पड़ताल करते हुए उन्हें ‘झूठा और मनगढंत’ पाया है। किताब के सामने आने के बाद सावरकर को ‘भारत रत्न’ दिलाने का अभियान चला रहे आरएसएस और बीजेपी के सिद्धांतकार सन्नाटे में है। राहुल की तरह शौरी को ‘विदेशी एजेंट’ बताने के ख़तरे से वे वाक़िफ़ हैं।

    दिलचस्प बात ये है कि अरुण शौरी ने एक तीक्ष्णबुद्धि पत्रकार की तरह अपनी हर बात का प्रमाण सावरकर की लेखनी और उस दौर के तमाम दस्तावेज़ों के ज़रिए दिया है जो अकाट्य हैं। अंडमान की जेल जाने से पहले सावरकर निश्चित ही एक क्रांतिकारी भूमिका में थे। हालाँकि यह भूमिका ‘एक्शन’ में सीधे शामिल न होकर किसी को मोहरा बनाने की थी। लेकिन एक बार जेल जाने के बाद सावरकर ने जिस तरह से गिड़गिड़ाते हुए अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगी और छूटकर राष्ट्रीय आंदोलन के ख़िलाफ़ काम करने, ख़ासतौर पर हिंदू-मुस्लिम विभाजन के लिए काम करने का वादा किया, यह उनके पूर्व के तमाम कामों पर पानी फेरने वाला था।

    इस किताब में शौरी ने सावरकर के जाति प्रथा, अस्पृश्यता या गाय पूजने जैसी मान्यताओं के तर्कसंगत विरोध को रेखांकित किया है (गाय पूजने को लेकर सावरकर के विचार संघ की शाखा से प्रशिक्षित किसी व्यक्ति के लिए बर्दाश्त से बाहर हो सकते हैं!)  लेकिन असल मसला तो उनके राजनीतिक सिद्धांत हैं जिनकी स्वीकार्यता के लिए सावरकर को वीर साबित करना ज़रूरी था। शौरी की किताब ‘सावरकरी वीरता’ के तमाम क़िस्सों की पड़ताल करते हुए उन्हें फ़र्ज़ी साबित करती है।

    सावरकर ने ‘चित्रगुप्त’ के छद्मनाम से ख़ुद एक किताब लिखकर सावरकर को ‘वीर’ की उपाधि दी थी। आत्मप्रचार का ऐसा प्रयास शायद ही किसी ने किया हो। इस किताब के आने के बाद उनके समर्थकों ने उन्हें ‘वीर सावरकर’ बताने का सार्वजनिक अभियान चलाया। इसके लिए तमाम कहानियाँ गढ़ी गयीं। भाषण देने में माहिर तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी समुद्र के बीच जहाज़ से कूद कर ‘वीर’ सावरकर के भागने की कहानी कहानी विस्तार से सार्वजनिक सभाओं में सुनाते थे।  लेकिन शौरी ने साबित किया है कि भूमध्य-सागर के बीच जहाज़ से कूद कर भागने का क़िस्सा भी मनगढ़ंत है। शौरी ने साबित किया है कि जहाज़ उस समय बीच समुद्र में नहीं, फ़्रांस के मार्सिले बंदरगाह पर ईंधन के लिए खड़ा था और वे खिड़की से निकलकर भागे थे। सावरकर ने बमुश्किल दस-पंद्रह फ़ीट का उथला पानी पार किया था न कि कई किलोमीटर तैरकर तट तक पहुँचे थे। हक़ीक़त ये है कि उन्हें तुरंत पकड़ लिया गया था।

    1952 में सावरकर ने पुणे में एक व्याख्यान देकर दावा किया था कि सुभाषचंद्र बोस का 1941 में कलकत्ता के घर से भागना और आज़ाद हिंद फ़ौज की तमाम गतिविधियाँ उनके साथ बोस की हुई बातचीत का नतीजा थीं। लेकिन अरुण शौरी ने इस दावे को प्रामाणिक ढंग से ध्वस्त किया है। बोस ने ख़ुद इस संबंध में लिखा है। उनके मुताबिक़ तब सावरकर और जिन्ना में फ़र्क़ नहीं था। सावरकर ने 1911 से 1920 के बीच अंडमान की सेलुलर जेल से ब्रिटिश सरकार को लिखे पत्रों की शृंखला भी पेश की है जिन्हें पढ़ना किसी भी देशभक्त को शर्मिंदा कर सकता है। वे बार-बार ‘साम्राज्य के लिए ख़ुद को उपयोगी’ सिद्ध करने का वादा करते हैं।

    सावरकर ‘अखंड हिदुस्थान’ का नारा लगाते थे लेकिन आज़ादी के बाद वे लगभग 19 साल ज़िंदा रहे पर इस दिशा में कोई पहल नहीं की। उनका पूरा जीवन हिंदू और मुसलमानों को दो अलग और शत्रुतापूर्ण राष्ट्रों के रूप में सिद्ध करने में बीता।

    इस सिद्धांत का प्रतिपादन वे पाकिस्तान का सिद्धांत पेश किये जाने से पहले कर चुके थे। जिन्ना ने इसके लिए उनका आभार भी जताया था। अंग्रेज़ तो हमेशा आभारी थे।

    अरुण शौरी ने इस संबंध में सावरकर के कुछ महत्वपूर्ण लेखों और उद्धरणों को सामने रखा है जिन पर अक्सर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है। उन्होंने याद दिलाया है कि ‘सिक्स ग्लोरियस अप्रोच्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ में सावरकर ने हिटलर और जापानी जनरल तोजो की प्रशंसा की है क्योंकि वे एकमात्र बाहरी लोग थे जिन्होंने भारत की मदद की। 1963 में प्रकाशित इस किताब में सावरकर ने ‘विकलांग बच्चों को ख़त्म करने की परियोजना के लिए सावरकर की प्रशंसा’ को भी उद्धृत कियाा है। सावरकर भारत के लिए लोकतांत्रिक पद्धति को भी अनुपयुक्त बताते हैं जहाँ के लोग ‘अज्ञानी’ हैं। वे ‘एक-व्यक्ति के शासन’ को प्राथमिकता देते हैं।

    यह किताब ऐसे समय आयी है जब राहुल गाँधी तमाम जोख़िम उठाते हुए भी सावरकर के इर्द-गिर्द तैयार किये गये आभामंडल को ध्वस्त करने में जुटे हैं। उन्हें पता है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से अलग रहने वाला आरएसएस सावरकर को अपने ख़ेमे का ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बताने का उद्योग कर रहा है। नाथूराम गोडसे के गुरु रहे सावरकर की तस्वीर को संसद के केंद्रीय कक्ष में स्थापित करने की हिमाक़त तो अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में ही की जा चुकी है। राहुल गाँधी ने हाल में पुणे की विशेष अदालत में सावरकर पर टिप्पणी को लेकर अपने ख़िलाफ़ चल रहे मुक़दमे की प्रकृति बदलने की माँग की है। उन्होंने ‘समरी ट्रायल’ को ‘समन ट्रायल’ में बदलने की माँग करने के लिए दायर याचिका में ज़ोर दिया है कि “यह मामला तथ्य और क़ानून दोनों के जटिल प्रश्न उठाता है जिसके लिए विस्तृत ज़िरह की आवश्यकता है… इसलिए साक्ष्य का बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक प्रकृति की सामग्री होगी, जिसके लिए अकादमिक जाँच की आवश्यकता होगी।”

    2023 में सावरकर के एक रिश्तेदार सात्यकि ए सावरकर ने राहुल गाँधी की एक टिप्पणी को लेकर मानहानि का दावा दायर किया था। उन्होंने राहुल गाँधी को अधिकतम दंड और मुआवज़े की माँग की है। बीजेपी का ख़ेमा इसे लेकर काफ़ी ख़ुश था। लेकिन राहुल गाँधी जिस तरह मामले को अकादमिक जाँच की ओर ले जा रहे हैं, वह उसके लिए मुसीबत पैदा करेगा। ख़ासतौर पर जब उसके ‘अपने’ अरुण शौरी ने सावरकर के नाम पर चल रहे फर्ज़ीवाड़े को उजागर करने के लिए किताब ही लिख दी है।

    वैसे, सावरकर के माफ़ी माँगने की बात किसी वामपंथी ने नहीं, दक्षिणपंथी इतिहासकार कहलाने वाले आर.सी.मजूमदार ने ही उजागर की थी।

    1975 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित उनकी किताब ’पीनल सेटेलमेंट्स इन द अंडमान्स’ में सावरकर के शर्मनाक माफ़ीनामे दर्ज हैं। 1913 में भेजे गये एक माफ़ी याचिका का अंत करते हुए सावरकर ने जो लिखा है वह किसी भी देशभक्त को शर्मिंदा करेगा। सावरकर लिखते हैं-

    “अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूँ कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें।

    भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है। अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।

    इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूँगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूँगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।

    जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगायेंगे।

    इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।

    जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहाँ लौट सकता है। आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।”

    जिन कारणों से आरएसएस ख़ेमा सावरकर को ‘वीर’ बताता है, इस याचिका में सावरकर उनसे ही तौबा करते नज़र आते हैं। ख़ुद को सुधारने का वचन देते हैं। इतिहास गवाह है कि अंग्रेज़ों ने उन्हें रिहा करके हिंदू-मुसलमानों के बीच ज़हर बोने के लिए उनका इस्तेमाल किया। आज़ादी के बाद आरएसएस भी इसी राह पर चलते हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुँचा। देश लगातार इस अपराध की सज़ा भुगत रहा है।

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