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    Home » दुर्लभ देसी पौधों की प्रजातियों को बचा रहे पुणे के यह युवा
    ग्राउंड रिपोर्ट

    दुर्लभ देसी पौधों की प्रजातियों को बचा रहे पुणे के यह युवा

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 6, 2024Updated:August 11, 2024No Comments5 Mins Read
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    महाराष्ट्र (Maharashtra) देश का तीसरा बड़ा राज्य है, लेकिन यहां का फॉरेस्ट कवर मात्र 20 प्रतिशत ही है। इसमें से 8 फीसदी हिस्सा अवर्गीकृत वनों का है। हम अक्सर महाराष्ट्र से सूखे, बाढ़, और पानी की कटौती की खबरें सुनते रहते हैं। ये महाराष्ट्र के सामने बड़ी पर्यावरणीय और जलवायवीय चुनौतियां हैं। लेकिन पुणे (Pune) के दो साथी, भोलेश्वर पलांगे, और सुहास कड़ू लंबे समय से इन चुनौतियों का डट कर सामना कर रहे हैं, अधिक से अधिक पेड़ लगाकर। ग्राउंड रिपोर्ट ने उनसे बात की और जाना उनके सफर और काम करने के तरीके के बारे में। 

    भोलेश्वर और सुहास दोनों प्राइवेट संस्थाओं में काम करते हैं। भोलेश्वर ने बताया कि वो मल्टीपल शिफ्ट्स करने के बाद भी अपने दिन का एक हिस्सा निकाल कर पौधे लगाते हैं। भोलेश्वर कई रेयर विलुप्त हो रही स्थानीय पौधों की नर्सरी तैयार करते हैं और उसे महाराष्ट्र और देश के अलग-अलग कोनों तक पहुंचा कर उनका वृक्षारोपण करते हैं। भोलेश्वर ने बताया कि उनका पूरा फोकस गायब हो रहे स्थानीय प्रजातियों बचा कर रखने का है। 

    भोलेश्वर ने बताया वो साल भर में 100 से अधिक प्रजातियों के दुर्लभ देसी पौधों के लगभग 5 से 10 हजार पौधे तैयार करते हैं। इसके लिए भोलेश्वर और सुहास बीज इकट्ठा करने से लेकर पौधे तैयार करके बांटने के साथ पौधों की निगरानी का काम करते हैं। भोलेश्वर ने बताया कि वो इन पौधों के लिए कोई पैसा चार्ज नहीं करते हैं, बस ये अपेक्षा करते हैं की वृक्षारोपण के बाद पौधों का लगातार ख्याल भी रखा जाए।   

    वृक्षारोपण सही दिशा में जाए इसके लिए भोलेश्वर कई चीजें सुनिश्चित करते हैं। भोलेश्वर ने बताया, उनकी प्राथमिकता रहती है कि वृक्ष स्थानीय प्रजाति का होना चाहिए और वह क्षेत्र की जलवायु और वातावरण के अनुकूल होना चाहिए। सुहास इन बीजों को इकट्ठा करते हैं, इसे लेकर रिसर्च करते हैं। सुहास ने बीजों की जानकारी, उन्हें उगाने की प्रक्रिया, और क्षेत्र की प्रजातियों को लेकर एक 125 जीबी का डेटाबेस भी तैयार किया है। 

    इसके अलावा इन्होने पौधों के डिस्ट्रीब्यूशन को लेकर भी प्राथमिकता तय की है, कि ये आमतौर पर पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को ही पौधे देंगे, क्योंकि वे अधिक ज़िम्मेदारी से पौधों का ख्याल रखतीं हैं। अगर कोई व्यक्तिगत तौर पर भोलेश्वर के पास से पौधे ले जाता है, तो वे लगातार उस पर अपडेट लेते रहते हैं और अगली बार पौधे देने से पहले पिछले लगे पौधों का हाल पूछते हैं। 

    सुहास बीज इकट्ठे कर के लाते हैं, और भोलेश्वर अपने सोसायटी के एमिनिटी स्पेस में इन पौधों को तैयार करते हैं। भोलेश्वर ने बताया की वो आम दिन 1 घंटे और छुट्टी के दिन 2 घंटे का समय निकाल कर पौधे तैयार करते हैं। इसके अलावा सुहास अपने आस-पास के लोगों को नर्सरी तैयार करने की ट्रेनिंग भी देते हैं। सुहास अब तक ऐसी 4-5 नर्सरी तैयार कर बाँट चुके हैं। 

    भोलेश्वर बताते हैं कि उन्होंने क्षेत्र के बड़े स्कॉलर, विशेषज्ञ, आदि के साथ एक सह्याद्रि सीड ग्रुप नामक एक नेटवर्क भी तैयार किया है। इसके माध्यम से यदि किसी को कहीं कोई खास किस्म का बीज या पौधा मिलता है, तो बाकी के सदस्यों को इस पर अपडेट करता है और सारे सदस्य मिल कर इस पर काम करते हैं।      

    भोलेश्वर बताते हैं कि उनका काम इतना आसान भी नहीं है। मिसाल के तौर एक स्थानीय वृक्ष है सोनचंपा जो कि अब दुर्लभ है। भोलेश्वर को इसे उगाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। भोलेश्वर बताते हैं की 100 बीज  रोपने पर इसके 10 से 20 प्रतिशत ही उगने का चांस होता है। भोलेश्वर क्षेत्र के उन चुनिंदा लोगों में से हैं जो है सोनचंपा का पौधा तैयार करते हैं। 

    भोलेश्वर ने बताया की उनके गुरु रघुनाथ ढोले उनके प्रेरणा स्त्रोत हैं जो देवराई फउंडेशन नाम से एक संस्था चलाते है, जो पूरे महाराष्ट्र में साल में 2 लाख से अधिक वृक्षों का वृक्षारोपण करती है। इसके अलावा भोलेश्वर ने पुणे के हड़पसर मार्ग पर एक हजार वृक्षों का वृक्षारोपण, और आलंदी जैसे कई क्षेत्रों में वृक्षारोपण कर चुके हैं। सुहास ने कई संस्थाओं को 4-5 नर्सरी भी तैयार कर के दी है, इसके अलावा किसी को वृक्षारोपण के लिए सहयोग की आवश्यकता होती है तो भी ये उनकी मदद करते हैं। 

    अंत में भोलेश्वर ने बताया कि उनके काम के प्रति उनके परिवार, सोसायटी के लोग उन्हें काफी प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने अपने ऑफिस, टाटा मोटर्स में 20 साल पहले जो 50-60 पेड़ लगाए थे वो अब 4 मंजिला इमारतों जितने बड़े हो गए हैं, भोलेश्वर इन सब को अपनी उपलब्धि के तौर पर देखते हैं। भोलेश्वर का मानना है कि अपने इस काम के जरिये वो धरती का कर्ज चुका रहे हैं।

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