दोनों देशों के बीच मिसाइल और ड्रोन अटैक और इसके साथ हीं दोनों तरफ से “उत्साही”, “देश-भक्त” और “गोदी” मीडिया के “डिसइनफार्मेशन कैंपेन” के बीच कम हीं लोगों ने ध्यान दिया कि विदेश और रक्षा मंत्रालयों की संयुक्त प्रेस ब्रीफिंग में विदेश सचिव ने भारत के पाकिस्तान में आत्तंकी ठिकानों पर लक्षित और “नॉन-एस्केलेटरी” (गैर-भड़काऊ) हमले के बावजूद सीमा पर सैन्य इकाइयों के अलावा नागरिकों पर बमबारी की बात के अंत एक और बात कही.
उनकी सायास कोशिश थी यह समझना कि इंडस वाटर ट्रीटी (आईडब्ल्यूटी). 1960 –सिन्धु जल संधि—भारत ने क्यों मुल्तवी की. उनका कहना था “संधि की प्रस्तावना में हीं “मैत्री और सद्भावना” के साथ संधि के प्रावधानों पर अमल की बात है लेकिन पाकिस्तान ने उस मूल शर्त को हीं 65 वर्षों में लगातार तोड़ा है.
भारत सरकार का यह तर्क बेहद शक्तिशाली है और पूरी दुनिया को आसानी से समझ में आने वाला है. इसके अनुसार प्रस्तावना (जो इसके अनुच्छेद 12 (अ) के अनुसार संधि का अभिन्न अंग है) में लिखा है “ .. एक-दूसरे के अधिकारों और दायित्वों को ध्यान में रखते हुए …सद्भावना और दोस्ती के भाव के साथ ….. ताकि सहकारी उत्साह निष्ठ ..”. अब भारत का इसे मुल्तवी करने के पीछे तर्क है कि 65 साल पहले का यह भाव दोनों देशों में कई युद्ध और एक देश द्वारा दूसरे के खिलाफ आतंक को राज्य की नीति बनाने के कारण बहुत पहले से ख़त्म हो चुका है.
फिर उस समय ग्लेशियर के बारे में जानकारी बेहद कम थी और पर्यावरण प्रदूषण-जनित तापमान बढ़ने से दुनिया पर आये खतरे की जानकारी नहीं थी. ग्लेशियर विज्ञान आज की तरह विकसित नहीं था. आज दुनिया के देशों पर ग्लेशियर से पानी का प्रवाह, पर्यावरण असंतुलन के कारण स्वच्छ पनबिजली ऊर्जा की जरूरत और हर देश के लिए ऐसी ऊर्जा के स्रोत विकसित करने का वैश्विक दबाव नहीं था. तीसरा, सिन्धु सिस्टम में पाकिस्तान की तरफ का ग्लेशियर उतनी तेजी से नहीं पिघल रहा है जितनी तेजी भारत की ओर का. याने भारत के ग्लेशियर जिनसे– सतलज, ब्यास और रावी -का उद्गम है ,का जल तेजी से ख़त्म होगा जो भारत के लिए जीने-मरने का सवाल बन जाएगा.
जब संधि पर दिनांक 19 सितंबर, 1960 को कराची में नेहरु और अयूब के हस्ताक्षर हुए तब ग्लेशियर के पिघलने से आसन्न संकट की या पर्यावरण प्रदूषण से बढ़ने वाले तापमान की जानकारी नहीं थी जबकि आज यह एक बड़ा साइंस बन चुका है. कुल 12 अनुच्छेद वाले इस संधि के अंतिम अनुच्छेद 12 (3) में बदली परिस्थितियों में दोनों देश सहमति के साथ प्रावधान बदल सकते हैं लेकिन भारत के लगातार इसके प्रावधानों को नयी परिस्थितियों के मद्देनज़र बदलने का इसरार करता रहा.
सन् 2023 और 2024 में इस आशय की बैठक करने पत्र को पाकिस्तान ख़ारिज करता रहा जबकि पर्यावरण की अपरिहार्यता को लेकर भारत के लिए पन-बिजली जनरेशन (जल-प्रवाह की गतिज उर्जा को टर्बाइन नचा कर बिजली में बदलना) एक बड़ी जरूरत बनती गयी. इसके लिए इस समझौते में बदलाव भारत की बड़ी जरूरत है. उधर विएना कन्वेंशन ऑन लॉज़ ऑफ़ ट्रीटीज, 1969 का पैरा ६० (३) (ब) कहता है कि अगर किसी ऐसे प्रावधान का उल्लंघन हुआ है जो संधि के उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपरिहार्य शर्त है तो संधि रद या निलंबित की जा सकती है. आतंकवाद, युद्ध, क्षद्म युद्ध और मैत्री का भाव साथ-साथ नहीं चल सकते.
दरअसल भारत के विदेश सचिव आने वाले दिनों में इन्हीं तर्कों के आधार पाकिस्तान का पानी रोकने और भारत में नए और विस्तृत पन-बिजली इकाइयों का निर्माण करने की कोशिश करेगा. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी समझना होगा कि यह करना भारत की मजबूरी है.
हालांकि कि 12 आर्टिकल्स की इस संधि में एकतरफा बहिर्गमन का प्रावधान नहीं है लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानून में “परिस्थियों में मौलिक बदलाव” और “विश्वास का अभाव” के आधार पर किसी भी करार को एकतरफा रद किया जा सकता है. पाकिस्तान का अधिकांश कृषि –सिंध और पंजाब सूबे— और मानव उपभोग इसी सिस्टम से होता है. लिहाज़ा पहलगांव के बाद सबक सिखाने के लिए भी भारत तीन चरणों में अपनी वाटर अटैक स्ट्रेटेजी बना रहा है –पहला सिस्टम की नदियों से जल प्रवाह के आंकड़े पहले से उपलब्ध करना बंद करना.
पर्यावरण परिवर्तनजनित ताप वृद्धि से ग्लेशियर पिघाल रहे हैं. कभी भी प्रवाह प्रलयंकारी रूप से ले सकता है जिससे पाकिस्तान के कई सूबे तबाह हो सकते हैं. दूसरा, कुछ क्षेत्रों में भण्डारण की क्षमता कुछ महीनों में विकसित की जा सकती है. और तीसरा, और अंतिम कदम प्रवाह को बिजली, डैम, सिंचाई और मानव उपभोग के लिए पूरी तरह भारत की ओर मोड़ना.
सच है कि यह संधि एक कमजोर, सामर्थ्यहीन और अनाज संकट से असहाय भारत का अमेरिकी दवाब में की गयी थी. फिर सिन्धु सिस्टम की सभी छः नदियों का औसत सालाना फ्लो –135 मिलियन एकड़ फीट (एमएऍफ़) तीन पश्चिमी नदियों और 33 एमएऍफ़ तीन पूर्वी नदियों से—के पानी की खपत नहीं कर सकते थे. सतलज पर एक भाखड़ा नांगल बाँध जिसे 15 साल में बनाने के बाद 1963 में राष्ट्र को समर्पित करते हुए नेहरु ने कहा था “यह आधुनिक राष्ट्र का मंदिर है”. बहरहाल भारत का नया कदम पाकिस्तान की रीढ़ तोड़ सकता है.
चीन किस मुंह से विरोध करेगा
याद करें, चीन ने डोकलाम झड़प के तत्काल बाद ऊपरी ब्रह्मपुत्र जल प्रवाह का ब्यौरा देना बंद किया जिससे असम में तबाही आयी. भूगर्भशास्त्री मानते हैं कि हिमालय में किसी भी निर्माण कार्य से भारत में भूकंप, बाढ़ और जमीन धसकने जैसे आपदा आ सकती है. लेकिन भारत के तमाम विरोधों के बावजूद “स्वच्छ उर्जा” के नाम पर ब्रह्मपुत्र (चीनी/तिब्बती नाम यारलुंग जांग्बो) पर चीन दुनिया का सबसे बड़ा और भारत के कुल पन-बिजली उत्पादन से सवा गुना बढ़ा हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लांट (60 हज़ार मेगावाट) बना रहा है.
अमेरिका, राष्ट्रीय हित-रक्षा के नाम पर सन 2002 में एबीएम संधि से और सन 2019 में आईएनऍफ़ संधि से एकतरफा बाहर हो गया. क्या किसने विरोध किया? वियना कन्वेंशन के अनुच्छेद 60 में ऐसी संधियों से राष्ट्रहित में बाहर होने का प्रावधान हैं. लिहाज़ा अगर भारत पाक साजिशों से लगातार लहूलुहान होने पर यह कदम लेता है तो क्या गलत है? बटवारे में अंग्रेजों ने पाकिस्तान को पंजाब और सिंध के शादाब (हरेभरे) और उपजाऊ भूभाग दिए जिससे भारत में अनाज की अचानक कमी हुई और तीन दशक उससे उबरने में लग गए.
अगर चीन जल-प्रवाह में नीचे स्थित देशों से पानी साझा करने के समझौते से इनकार कर सकता है तो भारत क्यों नहीं?