हम अपने उन दोस्तों का क्या करें जो मुसलमानों से नफ़रत करते हैं? यह सवाल सिर्फ़ दोस्तों के बारे में नहीं, अपने रिश्तेदारों के संदर्भ में भी किया जा सकता है।यहाँ दो पक्ष स्पष्ट हैं: एक जिन्हें मैं ‘हम’ कह रहा हूँ और दूसरा अपने मित्रों, परिजनों का जिनके मन में मुसलमानों के प्रति घृणा है। ज़ाहिर यह यह हम हिंदुओं का है या ईसाइयों का भी हो सकता है।दूसरा पक्ष भी उन्हीं का है, यानी ईसाइयों और हिंदुओं का। यानी चलताऊ ज़ुबान में अपने लोगों का।
जिन्हें मैं हम कह रहा हूँ, उन्हें यह दूसरा पक्ष ‘मुसलमान परस्त’ कहता है। यानी ‘हमारे लोग’ हमें मुसलमान समर्थक कहते हैं।मानो यह इल्ज़ाम हो। यह विभाजन अब पूरे भारत में हर सामाजिक, आर्थिक समूह में हो गया है। सार्वजनिक स्थान में तो है ही। यह अब इतना प्रकट है कि इसे नज़रअंदाज़ करना मुमकिन नहीं रह गया है। कुछ रोज़ पहले एक मित्र से बात हो रही थी जो भारतीय प्रशासनिक सेवा में उच्च पदों पर काम कर चुके हैं। वे हिंदू हैं। धार्मिक भी। यह कहना अब बहुत ज़रूरी हो गया है क्योंकि मात्र हिंदू परिवार में पैदा होने से आपको हिंदू माना जाए, ज़रूरी नहीं।
उन्होंने कहा कि वे अधिकारियों के अलग-अलग व्हाट्सएप समूहों में हैं और उनमें मुसलमानों के बारे जिस तरह की बातें लिखी जाती हैं, उन्हें बर्दाश्त करना असंभव हो जाता है। यही बात कुछ दिन पहले प्रशासक रह चुके नजीब जंग ने लिखी। उन्होंने लिखा कि वे अब कई ऐसे समूहों से अलग होने को मजबूर हुए हैं जिनमें वे लोग हैं जिनके साथ उन्होंने दशकों तक काम किया है।उनके पुराने सहकर्मी और मित्र अब इस तरह की मुसलमान विरोधी बातें लिख रहे हैं कि उसे झेलना मुश्किल है। नौसेना में कम कर चुके एक मुसलमान अधिकारी ने मुझसे कहा कि मुसलमानों पर अपने सहकर्मियों की टिप्पणियों से उन्हें बहुत निराशा होती है। लेकिन घृणात्मक टिप्पणियाँ करने वाले हिंदू ज़रा भी संकुचित नहीं होते। वे इसे असभ्यता नहीं मानते कि ऐसी जगह, जहाँ मुसलमान मौजूद हैं, इस क़िस्म की टिप्पणी न करें। वे इसे अपना अधिकार मानते हैं।अब घृणा प्रचार को साफ़गोई कहा जाने लगा है।
ऐसे समूहों से मुसलमान अलग हो जा सकते हैं। लेकिन हिंदुओं का रवैया क्या होना चाहिए? कुछ साल पहले एक सभा के बाद एक बुजुर्ग दंपति से बात हो रही थी।वृद्ध महिला ने पूछा कि मैं अपनी बेटियों के साथ क्या सलूक करूँ जो जब भी घर आती हैं, मुसलमान विरोधी बातें करती हैं। मैंने कहा कि आप उन्हें कहिए कि आप उनका स्वागत नहीं कर सकतीं अगर उनका यही रुख़ रहता है।लेकिन मैं जानता था कि यह शायद ही हो पाए। माता -पिता अपने बच्चों से रिश्ता तोड़ पाएँ, यह मुश्किल है।
क्या ऐसे लोगों से राह-रस्म बंद कर दी जाए? इसका अर्थ होगा अपने परिवारों में अकेले रह जाना। बहुत सारी दोस्तियों से भी हाथ धो बैठना। लेकिन उनकी मुसलमान विरोधी घृणा के साथ उनकी मित्रता आख़िर हमें क्या शुभ भाव देती है?
कुछ लोग ऐसे लोगों से मिलने जुलने, उनके साथ मंच साझा करने को सहिष्णुता कहते हैं। क्या घृणा के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार होना चाहिए?
यह समझना आवश्यक है कि इस वक्त, अभी जब मुसलमान विरोधी हिंसा और घृणा सर्वव्यापी है, हरेक मुसलमान का जीवन अनिश्चित है। वह आवश्यक नहीं कि किसी संगठन के निर्देश पर संगठित हिंसा में मारा जाए। उसे ट्रेन में उसकी बग़ल में बैठा हिंदू मार डाल सकता है, कोई पुलिसवाला उसकी हत्या कर सकता है। किसी मुसलमान की गाड़ी रोकी जा सकती है और उसपर हमला किया जा सकता है। इनमें से सभी किसी हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े हों, ज़रूरी नहीं।वे हम आप जैसे सामान्य लोग हो सकते हैं।
इस शारीरिक और भाषाई हिंसा का शिकार न्यायाधीश, अध्यापक ठेलेवाला हो, या स्कूल की बच्ची, हर कोई हो सकता है। जैसे इस देश में लड़कियाँ या औरतें कहीं भी, किसी भी वक्त निश्चिंत नहीं रह सकतीं, वैसे ही मुसलमानों को हमेशा अतिरिक्त रूप से सावधान रहना पड़ता है।
यह इसीलिए हुआ कि इस देश में मुसलमान विरोधी घृणा को लाइसेंस दिया गया है। एक राजनीतिक दल ही है और आज वह सबसे ताकतवर है जिसकी विचारधारा का आधार ही मुसलमान विरोध है। हर घर, स्कूल, कॉलेज और दफ़्तर में उसकी छूट है।हम खाने की मेज़ पर , बैठकखाने में अपने मेहमान को नहीं कह पाते कि हमारे घर में इसकी इजाज़त नहीं। दफ़्तरों में इसकी मुमानियत नहीं। यह कहा जा सकता है कि यह घृणा वास्तव में हमारे घरों में पलती बढ़ती है। हम उसकी तरफ़ से निगाह फेर लेते हैं।
अगर कोई इस क़िस्म की कुत्सा शुरू करता है तो हम झेंपकर प्रायः बातचीत को दूसरा मोड़ देना चाहते हैं। हम शायद ही उसका सामना करते हैं और उसका प्रतिकार कर पाते हैं।रोटी के लुकमे की तरह हम उस नफ़रत को भी निगल जाते हैं। उस पर सवाल नहीं करते। नहीं कहते कि आपके यहाँ इसकी इजाज़त नहीं।
इन सबके साथ कैसे पेश आएँ? एक तरह एक लोग वे हैं जो लंबे वक्त से चल रहे मुसलमान विरोधी दुष्प्रचार के शिकार हैं।उनके दिमाग़ में कई तरह के पूर्वग्रह हैं। वे मुसलमानों के प्रति शक से भरे हैं। लेकिन इनसे बात की जा सकती है।वे आपको सुनने को तैयार हैं।और अपनी राय बदलने को भी। इन्हें इस दुष्प्रचार से मुक्त करना हमारा फ़र्ज़ है। यह कुछ कठिन है लेकिन किया जाना चाहिए।
एक बड़ी आबादी उनकी है जो किसी भी तरह का तर्क नहीं सुनना चाहते।जनसंख्या का मामला हो या तलाक़ का, या यह कि मुसलमान स्वभावतः हिंसक होते हैं, आप कितने ही आँकड़े या तर्क पेश कर दें, वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगे।ये दूसरे क़िस्म के लोग अपने भीतर के पूर्वग्रह और घृणा को किसी भी तरह टूटने नहीं देना चाहते। इनसे बात नहीं की जा सकती।
हम यह न सोचें कि घर में होने वाली बात का असर घर तक ही रहता है। यह ग़लत है कि स्कूल में बच्चों के बीच जो कुछ होता है, उसका असर क्षणिक होता है। मुसलमान बच्चे पर ज़िंदगी भर का असर रहता है। मुसलमान विरोधी घृणा की हिंदू बच्चे की शिक्षा यहाँ शुरू होती है।वह हत्यारा न हो, हत्या का समर्थक बन जाता है। इसे यहीं रोका जाना ज़रूरी है।अगर वह घर से यह घृणा लेकर आया है तो घरवालों को बुलाकर यह बतलाना ज़रूरी है कि यह उनके अपने बच्चे के लिए कितनी ख़तरनाक और नुक़सानदेह है।उन्हें यह समझाना ज़रूरी है कि सिर्फ़ स्कूल में नहीं, घर में भी उसे रोका जाना चाहिए।
मुझे बचपन में बिहार के सीवान में महेंद्र चाचा और फ़ैज़ चाचा की टहलती जोड़ी याद आती है। इस जोड़ी के बिना सीवान की सड़क की कल्पना मैं नहीं कर पाता। महेंद्र चाचा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारी थे। वे और फ़ैज़ साहब अध्यापक थे। गहरे दोस्त। लेकिन क्या महेंद्र चाचा ने कभी सोचा होगा कि उनके आर एस एस का कोई व्यक्ति या आर एस एस के मुसलमान विरोधी विचार से ग्रस्त कोई कहीं उनके मित्र फ़ैज़ साहब की हत्या कर सकता है या उन्हें नुक़सान पहुँचा सकता है ? या जिन्हें वे बेटी मानते थे, उन किश्वर बाजी की भी ? उनकी मित्रता उनके संगठन आर एस एस की मुसलमान विरोधी घृणा से फ़ैज़ साहब की हिफ़ाज़त नहीं कर पाती। मान लीजिए सीधे फ़ैज़ साहब या किश्वर बाजी को कुछ न होता, लेकिन उन पर आर एस एस की मुसलमान विरोधी घृणा का क्या मनोवैज्ञानिक असर हो रहा है, इसे महेंद्र चाचा ने कभी महसूस किया होगा?
तो आप जिस मुसलमान का इलाज कर रहे हैं, जिसे छात्रवृत्ति दे रहे हैं, जिसके घर जाकर गोश्त या सेवइयाँ खा रहे हैं, वह उस घृणा के कारण मारा जा सकता है जो आपके भीतर है। यह कहना भी काफी नहीं है कि मैं व्यक्तिगत रूप से सांप्रदायिक नहीं हूँ। आपकी राजनीति अगर सांप्रदायिक है तो वही आपके मुसलमान मित्र या परिचित के लिए घातक हो सकती है। फिर क्या आप लंबी साँस लेकर चुप रह जाएँगे?
इस मुसलमान विरोधी घृणा की अभिव्यक्ति को क्या हम वैसे ही अस्वीकार्य मानते हैं जैसे दलित विरोधी घृणा की अभिव्यक्ति को अस्वीकार्य माना जाता है? उसके लिए हमारे पास क़ानून भी हैं। लेकिन मुसलमान विरोधी घृणा को सह्य मन लिया गया है। यह बतलाने के लिए कि यह नाक़ाबिले बर्दाश्त है, हमें अपने सार्वजनिक और निजी जीवन में कुछ कठोर फ़ैसले करने पड़ सकते हैं।
स्कूल, कॉलेज, दफ़्तरों में यह घोषित नियम हो सकता है कि यहाँ मुसलमान विरोधी बातें बर्दाश्त नहीं की जाएँगी। कोई अध्यापक कक्षा में मुसलमानों पर टिप्पणी करने को आज़ाद नहीं। यही बात छात्रों पर भी लागू होती है। हम अपने लोगों को बतला सकते हैं कि मुसलमान विरोधी आपका मित्र नहीं हो सकता, उसका आपके घर स्वागत नहीं, भले ही वह आपका रिश्तेदार हो। यह अतिवादी लग सकता है लेकिन मुसलमान विरोधी द्वेष या घृणा अपने आप में अतिवादी है।