यह उद्योग न केवल युद्धों से मुनाफा कमाता है, बल्कि वैश्विक तनाव को बनाए रखने में भी भूमिका निभाता है।सीधा आरोप है कि हथियार लॉबी जानबूझकर दुनिया को अशांति की आग में झोंक रही है? यही नहीं, आज का आतंकवाद भी इस लॉबी की लालच की देन है। दुनिया के करोड़ों बच्चों को भूख और बीमारी से बचाया जा सकता है अगर हथियारों पर होने वाले वैश्विक खर्च का दस फ़ीसदी भी इस तरफ़ ख़र्च किया जाए। लेकिन हथियार निर्माण भारी मुनाफ़े का कारोबार भी है जिसमें इस तरह की सरोकारी भूमिका की गुंजाइश न के बराबर है।
हिरोशिमा-नागासाकी
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में, जब मित्र राष्ट्रों की जीत तय थी, अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर 6 और 9 अगस्त को परमाणु बम गिराए। इन हमलों ने लाखों लोगों की जान ली और अनगिनत को हमेशा के लिए विकलांग कर दिया। आलोचनाओं के बावजूद, इन हमलों ने अमेरिका को दुनिया की महाशक्ति के रूप में स्थापित किया। ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज डूब गया, और अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ वैश्विक नेतृत्व की होड़ शुरू की। इस होड़ ने दुनिया को दो खेमों में बांट दिया और हथियारों की दौड़ को जन्म दिया। यह शीतयुद्ध था।
आतंकवाद की जड़ें
शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ ने एक-दूसरे के खिलाफ प्रॉक्सी युद्ध लड़े। इसका सबसे खतरनाक उदाहरण अफगानिस्तान में देखने को मिला। 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। अमेरिका ने इसे साम्यवाद के प्रसार के रूप में देखा और ऑपरेशन साइक्लोन शुरू किया। 1979 से 1989 तक, CIA ने मुजाहिदीन लड़ाकों को स्टिंगर मिसाइलें, AK-47, मोर्टार, रॉकेट लांचर, और 3 बिलियन डॉलर से अधिक की आर्थिक मदद दी। सऊदी अरब ने भी बराबर राशि दी।
इस मदद ने सोवियत हेलिकॉप्टरों को निशाना बनाया और 1989 में सोवियत सेना को वापसी के लिए मजबूर किया। लेकिन इस नीति का एक भयानक परिणाम हुआ। मुजाहिदीन को दी गई अत्याधुनिक हथियार और प्रशिक्षण ने अफगानिस्तान को अस्थिर कर दिया। यही मुजाहिदीन बाद में तालिबान और अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों की रीढ़ बने। ओसामा बिन लादेन, जो अफगान जिहाद में अरब स्वयंसेवकों को लाया था, ने 1988 में अल-कायदा की स्थापना की। हालांकि CIA ने उसे प्रत्यक्ष रूप से हथियार नहीं दिए, लेकिन पाकिस्तान की ISI के जरिए दी गई मदद कुछ हद तक उसके समूह तक पहुंची। साम्यवाद के खिलाफ धार्मिक उग्रवाद को बढ़ावा देकर अमेरिका ने अनजाने में वैश्विक आतंकवाद को हवा दी, जिसका खमियाज़ा आज पूरी दुनिया भुगत रही है।
पाकिस्तान: अमेरिका का पूर्व सहयोगी
अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना सैन्य अड्डा बनाया। पाकिस्तान उसका स्वाभाविक सहयोगी बना। F-16 जेट, कोबरा हेलिकॉप्टर, और 2001-2018 के बीच 33 बिलियन डॉलर की सहायता ने पाकिस्तान को सैन्य ताकत दी। पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ चार युद्ध लड़े। इनमें अमेरिकी हथियारों की बड़ी भूमिका थी। हालांकि अब पाकिस्तान चीन की ओर झुक रहा है, लेकिन अमेरिकी हथियारों ने उसे लंबे समय तक भारत के लिए चुनौती बनाए रखा। यह अमेरिकी हथियार कारोबार की चमक का एक उदाहरण है, जो तनाव को बनाए रखकर मुनाफा कमाता है।
हथियार कारोबार: अमेरिका की ताकत
अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है, जिसकी वैश्विक हथियार बिक्री में 40% हिस्सेदारी है। 2018-2022 में, अमेरिका ने 104 देशों को हथियार बेचे। लॉकहीड मार्टिन, बोइंग, और रेथियॉन जैसी निजी कंपनियां इस उद्योग की रीढ़ हैं, जिनके पास सैकड़ों उत्पादन इकाइयां हैं। कुछ सरकारी शस्त्रागार, जैसे रॉक आइलैंड आर्सेनल, भी हैं, लेकिन अधिकांश उत्पादन निजी क्षेत्र में होता है। ये कंपनियां पेंटागन से अरबों डॉलर के ठेके हासिल करती हैं। हथियार कारोबार की चमक बरकरार रखने के लिए युद्ध या युद्ध जैसा माहौल जरूरी है। जब तक मांग रहेगी, हथियार कारखानों के चक्के चलते रहेंगे।
हथियार लॉबी: राजनीति पर कब्जा
अमेरिका में हथियार लॉबी बेहद ताकतवर है। 2022 में, लॉकहीड मार्टिन ने 14 मिलियन और बोइंग ने 13 मिलियन डॉलर लॉबिंग पर खर्च किए। ये कंपनियां सांसदों को प्रभावित करती हैं ताकि रक्षा ठेके उनके पक्ष में हों। पूर्व उपराष्ट्रपति डिक चेनी, जो 1995-2000 तक हॉलिबर्टन (रक्षा ठेकेदार) के सीईओ थे, इस लॉबी के प्रभाव का एक उदाहरण हैं। रक्षा सचिव जैसे पदों पर अक्सर उद्योग से जुड़े लोग नियुक्त होते हैं। 2020 के चुनाव में रक्षा उद्योग ने 50 मिलियन डॉलर दान दिए, जिसका सीधा असर नीतियों पर पड़ता है। ये नीतियां हथियार लॉबी के हितों को बढ़ावा देती हैं, जिससे दुनिया में युद्धों का सिलसिला चलता रहता है। कई बार युद्धरत दोनों पक्षों के पास अमेरिकी हथियार ही होते हैं।
अमेरिकी हथियारों से लड़े गए युद्ध
अमेरिकी हथियारों ने कई युद्धों को आकार दिया है:
- अफगानिस्तान (2001-2021): F-16, ड्रोन, और M16 राइफल्स का इस्तेमाल हुआ। अफगान सेना को दिए 85 बिलियन डॉलर के हथियार तालिबान के हाथ लगे।
- इराक (2003-2011): अब्राम्स टैंक, अपाचे हेलिकॉप्टर, और टॉमहॉक मिसाइलें।
- सीरिया और यमन: ड्रोन और प्रेसिजन मिसाइलें ISIS और हूती विद्रोहियों के खिलाफ।
- इज़रायल: 3.8 बिलियन डॉलर की वार्षिक सहायता, F-35, और JDAM बम गाजा और लेबनान में इस्तेमाल।
- पाकिस्तान: F-16 जेट और कोबरा हेलिकॉप्टर।
- यूक्रेन: 2022 से 75 बिलियन डॉलर की सहायता, जेवलिन, HIMARS, और पैट्रियट मिसाइलें।
ये युद्ध न केवल विनाश लाते हैं, बल्कि हथियार उद्योग के लिए मुनाफे का स्रोत भी हैं।
शांति की राह में बाधा
2024 में वैश्विक सैन्य खर्च 2.72 ट्रिलियन डॉलर था। इस बीच, दुनिया में 828 मिलियन लोग भुखमरी का शिकार हैं, 181 मिलियन बच्चे कुपोषित हैं, 250 मिलियन बच्चे स्कूल से बाहर हैं, और 4.8 मिलियन बच्चे हर साल बिना इलाज के मरते हैं। सैन्य खर्च का सिर्फ 10% (272 बिलियन डॉलर) भुखमरी और गरीबी उन्मूलन के लिए पर्याप्त है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि चरम गरीबी को 2030 तक खत्म करने के लिए 265 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष चाहिए। यूनिसेफ को 2 मिलियन कुपोषित बच्चों के लिए केवल 165 मिलियन डॉलर चाहिए थे, जो सैन्य खर्च का 0.006% है। सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए 340 बिलियन डॉलर (सैन्य खर्च का 12.5%) की जरूरत है।
लेकिन सैन्य खर्च कम करना आसान नहीं। देशों के बीच तनाव हथियार खरीद को मजबूरी बनाता है, और यह तनाव हथियार लॉबी के लिए मुनाफे का स्रोत है। युद्ध और मुनाफा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।