मध्य प्रदेश के पांढुर्णा जिले के टेमनी साहनी ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाला वड्डा माल नाम का गांव। फरवरी की एक दोपहर जब हम इस गांव में दाखिल होते हैं तो हमारी मुलाक़ात यहां छाया में बैठे कुछ लोगों से होती है। इन सभी की उम्र 60 साल से ज़्यादा ही होगी। महाराष्ट्र के विदर्भ से लगे मध्य प्रदेश के इस हिस्से में फरवरी के शुरूआती दिनों में भी वैसी ही गर्मी का अहसास हो रहा है जैसे भोपाल में अमूमन अप्रैल के आखिरी दिनों में होता है।
इसका एक कारण तो यहां का बढ़ा हुआ तापमान है मगर दूसरा कारण पानी की किल्लत है। जिस वक्त प्रदेश के अखबार देश के बजट से जुड़ी हुई सुर्ख़ियों से सजे हुए थे, यह गांव अपनी पानी की किल्लत के लिए चर्चा का विषय बन हुआ था।
यहां अपने पक्के मकान के बरामदे में बैठीं पिकोला पंद्रे हमें सरकारी सर्वेकर्ता समझ रही हैं। पंद्रे गोंड आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। वह हिंदी नहीं समझ सकतीं इसलिए जैसे ही हमसे बात करना शुरू करती हैं वह मराठी में कहती हैं,
“आम्हाले पाणी आणुन द्या, पाण्याची लय दिक्कत आहे, मग काही नाही पाहिजे”
यानि “हमें पानी ला दो, पानी की बहुत दिक्कत है, फिर हमें कुछ नहीं चाहिए।”
पंद्रे की उम्र का सही-सही पता उन्हें नहीं है। वह अंदाज़ लगाते हुए बताती हैं कि उनकी उम्र 65 साल के आस-पास होगी। उनके चेहरे और शरीर में उभर आयी झुर्रियां इस बात की पुष्टि भी कर देती हैं। पंद्रे हमें अपने गांव के बारे में बताते हुए कहती हैं,
“वड्डा माल में सबसे ज्यादा पानी की दिक्कत है, यही बात सबसे गंभीर है। इसके अलावा कोई भी दिक्कत नहीं है।”
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जनवरी में ही पानी हुआ कम
दरअसल मध्य प्रदेश के इस गांव में जनवरी के माह में ही पानी का संकट पैदा हो गया है। यहां हाल यह है कि 8 दिनों में एक बार ही टेंकर द्वारा पानी की सप्लाई की जा रही है। इस समस्या से परेशान होकर सरपंच सहित ग्रामीणों ने बीते दिनों स्थानीय नायब तहसीलदार को कलेक्टर के नाम का ज्ञापन भी सौंपा था।
पंद्रे ने अपनी उम्र का ज़्यादातर हिस्सा इस गांव में ही व्यतीत किया है। वह बताती हैं कि बेहद कम उम्र में उनकी शादी इस गांव में कर दी गई थी। अपनी तत्कालीन उम्र के बारे में समझाते हुए वह कहती हैं,
“उस वक्त तो मुझे किसी भी बात की समझ नही थी। इतनी भी नहीं थी कि मैं साड़ी या लुगड़ा भी बांध सकूं।”
वो हमें हाथ से इशारा करते हुए बताती हैं कि तब उनके माहवारी के दिन भी शुरू नहीं हुए थे। उन्हें तब भी पानी लेने के लिए रात के 2 बजे घर से 2 किमी दूर जाना पड़ता था। हालांकि इतने सालों में उनके जीवन में काफी बदलाव आया है। पहले वह कच्चे मकान में रहती थीं मगर अब अपने छोटे बेटे के साथ उसके पक्के मकान में रहती हैं।
छोटे बेटे, बहु और उनके दो बच्चों के इस मकान के सामने एक हैण्डपंप तो लगा है मगर यह भी खराब है। अब पंद्रे की उम्र ज़्यादा हो जाने की वजह से उनकी जगह उनकी बहु पानी लाने का काम करती हैं। यानि इतने सालों में बहुत कुछ बदला तो है मगर पानी कि समस्या जस की तस है।
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वड्डा माल के ही तेजराव भलावी पेशे से काश्तकार (किसान) हैं। वह लगभग 3 एकड़ में खेती करते हैं। बीते खरीफ़ के सीजन में उन्होंने सोयाबीन की फसल बोई हुई थी मगर पानी की सुविधा नहीं होने के चलते इसका उत्पादन न के बराबर रहा। भलावी के परिवार में 4 सदस्य हैं, बेटा, बहु और उनका एक बच्चा। मगर खेती से गुज़ारा न होने के चलते उनकी बहु और बेटा आस-पास के गावों में कपास चुनने के लिए जाते हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार वड्डा माल 65 परिवारों का गांव है जिसमें 293 लोग रहते हैं। इनमें 274 लोग आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। भलावी कहते हैं कि गांव के ज़्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए मज़दूरी पर ही निर्भर हैं।
“सुबह 2 गाड़ी आई थी वो लेकर गई मज़दूरी के लिए इसलिए गांव खाली है।”
पानी के लिए पहले आओ पहले पाओ की स्थिति
ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए भलावी ने बताया कि गांव में पंचायत के 2 कुएं हैं। इससे ही सभी घरों में पानी की आपूर्ति होती है। यहां मध्यम और बड़ी जोत के किसानों ने अपने खेत में पानी देने के लिए ट्यूबवेल खुदवा रखे हैं। मगर भलावी जैसे किसान अपने खेत की सिंचाई के लिए गांव के कुएं पर ही निर्भर हैं। इसके चलते यह कुएं रबी की सिंचाई के दौरान ही सूख जाते हैं और गांव में पानी का संकट गहरा जाता है।
ऐसे में भलावी के परिवार को भी पानी के लिए पंद्रे जैसा ही संघर्ष करना पड़ता है। वह बताते हैं कि सुबह 4 बजे उठकर गांव के सभी लोग पास के गांव में पानी भरने जाते हैं। इतनी सुबह उठने का कारण पूछने पर वो बताते हैं,
“जो देर से जाएगा उसको पानी नहीं मिलेगा।”
गांव के उपसरपंच श्रीदास पंद्रे हमें सरकारी कुआं दिखाने ले जा रहे हैं। पिकोला के घर से लगभग 40 फीट गहरे इस कुएं की दूरी बमुश्किल 1 किलोमीटर होगी। इस रास्ते में एक टूटा हुआ हैण्डपंप, गेहूं का खेत और पानी का मौसमी नाला पड़ता है। स्थानीय उपसरपंच बताते हैं कि यह नाला मानसून के दौरान तो बहता है मगर उसके तुरंत बाद यह सूख जाता है। हालांकि इससे भूजल स्तर में सुधार हो जाता है जिससे दिसंबर के मध्य तक ट्यूबवेल से सिंचाई की जाती है।
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पंचायत के कुएं के पास खड़े एक बुजुर्ग किसान बताते हैं कि उनकी गेहूं की फसल की सिंचाई भी इसी दौरान हो पाती है। वह लगभग 3 एकड़ में खेती करते हैं. हालांकि फसल उत्पादन के बारे में पूछने पर वो कहते हैं,
“कभी-कभी 1-2 कट्टे (बोरी) मिल पाते हैं कभी-कभी आती भी नहीं फसल।”
गौरतलब है कि 2023 में पांढुर्णा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले से अलग होकर नया ज़िला बना है। छिंदवाड़ा की कृषि योजना (Agriculture Contingency Plan) के अनुसार गेहूं इस क्षेत्र की प्रमुख रबी की फसल है। छिंदवाड़ा ज़िला (2013) के 60.4 हज़ार हेक्टेयर में गेहूं का उत्पादन होता है।
वड्डामाल के ज़्यादातर खेतों में हमें गेहूं की फसल ही दिखाई देती है। जबकि एक टन गेहूं उगाने के लिए 871 क्यूबिक मीटर पानी की ज़रूरत होती है। यानि इस फसल का उत्पादन इस गांव के जल संकट को और बढ़ा देता है। हमने श्रीदास से यह पूछा कि स्थानीय किसान कम पानी वाली फसलें क्यों नहीं उगाते? इसके जवाब में वह कहते हैं,
“ज़्यादातर किसान अपने खाने के लिए फसल उगाते हैं जो बचता है वो बेच देते हैं। गेहूं जल्दी बिक जाता है इसलिए कोई और फसल नहीं उगाते।”
जल जीवन लेकिन मिशन अधूरा
गांव के जल संकट पर बात करते हुए श्रीदास बताते हैं कि उन्होंने जिले के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी (Public Health Engineering Department) विभाग में अपने गांव में पानी की व्यवस्था करने के लिए कई बार आग्रह किया है। ग्रामीणों का मानना है कि पीएचई विभाग को गांव से लगभग 2 किमी दूर स्थित टेमनी बांध से पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। पंचायत के एक व्यक्ति नाम न छापने कि शर्त पर बताते हैं कि पीएचई विभाग ने पास के गांव रैयतवाड़ी तक पाइपलाइन देने के लिए कहा है मगर वहां से वड्डा माल तक पंचायत को अपने खर्च से ही पाइपलाइन बिछानी होगी।
जबकि पंचायत का कहना है कि उनके पास फंड की कमी है जिसके चलते वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। वहीं जल जीवन मिशन के आंकड़ों के अनुसार टेमनी साहनी ग्राम पंचायत के सभी 116 गांवों में नल कनेक्शन उपलब्ध है। जबकि भलावी का कहना है कि घर में नल तो है मगर उसमें पानी नहीं आता।
ग्राम पंचायत के कुएं से गांव के 5 मोहल्लों को पीने का पानी सप्लाई किया जाता है। इसकी ज़िम्मेदारी उपसरपंच श्रीदास पंद्रे के पास ही है। वह बताते हैं कि गांव में सुबह 10 बजे से लेकर दोपहर के 4 बजे तक बिजली आती है। इसी दौरान वह कुएं में लगी मोटर चलाकर पानी सप्लाई करते हैं।
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यूनिसेफ (UNICEF) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक साझा रिपोर्ट के अनुसार लगभग 18 लाख (1.8 मिलियन) लोग ऐसे घरों में रहते हैं जहां पानी की सप्लाई नहीं है। ऐसे 10 में से 7 घरों में पानी लाने का काम महिलाओं के जिम्मे आता है। एक अनुमान के अनुसार भारतीय महिलाओं द्वारा हर साल पानी लाने के लिए जितना समय लगाया जाता है वह लगभग 15 करोड़ दिनों के बराबर है। मगर श्रीधर पंद्रे कहते हैं कि अब समय बदल गया है,
“अब पुरुष भी बैलगाड़ी और मोटर साईकिल से पानी लाते हैं।”
मगर पिकोला पंद्रे के 65 साल के अनुभवों के एक बड़े हिस्से में सर पर पानी की गुंडी (बर्तन) रखकर पैदल लंबी दूरी तय करने की यादें शामिल हैं। अब पानी लाने का काम उनकी बहु के जिम्मे है। पंद्रे और उनकी बहु दोनों ही आदिवासी महिलाएं हैं। इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है क्योंकि भारत में पिछड़ी जाति की महिलाओं को एक लंबी दूरी तय करके पानी लाने की ज़िम्मेदारी निभानी पड़ती है। इसके लिए वह कभी-कभी दुर्गम जलस्त्रोतों तक भी जाती हैं।
पिकोला का जीवन पानी की राह ताकते हुए गुज़रा है। यह संघर्ष अब भी जारी है। मगर वह चाहती हैं कि भविष्य की पीढ़ियां इस संघर्ष का शिकार न हो जाएं। सरकार ने जल जीवन मिशन के तहत हर घर में नल से जल पहुंचाने का निश्चय किया है। देशभर में इसके लक्ष्य को पूरा करने की मियाद 2028 तक बढ़ाते हुए सरकार ने हालिया बजट में 67 हज़ार करोड़ रूपए भी आवंटित किए हैं। मगर सरकारी फाइलों में पिकोला के घर में नल तो पहुंच गया है मगर जल अभी भी हॉल्ट पर है।
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