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    Home » जाल में उलझा जीवन: बदहाली, बेरोज़गारी और पहचान के संकट से जूझता फाका
    ग्राउंड रिपोर्ट

    जाल में उलझा जीवन: बदहाली, बेरोज़गारी और पहचान के संकट से जूझता फाका

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 2, 2025No Comments9 Mins Read
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    अलीराजपुर की सोंडवा तहसील मेंं नर्मदा नदी के किनारे बसा ककराना गांव। यह नदी इस गांव के लोगों की दैनिक और आर्थिक जरूरतों को पूरा करती है। एक ओर जंगल और दूसरी ओर नर्मदा नदी से घिरे इस गांव में मुख्य रूप से भील आदिवासी समुदाय निवास करता है। यहां के रहवासी मछली पकड़कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। इनका पूरा जीवन नर्मदा नदी और उसकी मछलियों पर आश्रित है।

    फाका का परिवार भी आजीविका के लिए मत्स्याखेट पर ही निर्भर है। मिट्टी की फ़र्श वाला एक मकान है जिसमें छत के नाम पर टिन की चद्दर लगी हुई है। कमरे के कोने में मिट्टी के चूल्हे पर फाका की पत्नी खाना बना रही हैं। किसी शहरी रसोई के विपरीत फाका भी उसी कमरे में किनारे बैठकर सब्जियां काट रहे हैं। कमरे के थोड़े से हिस्से में हम, फाका, उनकी पत्नी और कुछ कपड़े हैं और बाकी हिस्से में मछलियों की गंध भरी हुई है। फाका कहते हैं कि ये मछलियां ही उनकी रोजी-रोटी हैं। मछली की गंध से हमें असहज होता देख फाका कहते हैं,

    “हमें बदबू नहीं आती, हमें अब आदत हो गई है इसी तरह रहने की।”

    फाका का दिन सुबह 4 बजे से शुरू होता है। अंधेरे में ही वह नर्मदा में जाल बिछाते हैं और मछलियां पकड़ कर घर लाते हैं। फाका अपनी मछलियां गांव में ही बेच देते हैं। इससे उन्हें पूरे दिन में बमुश्किल 150 से 200 रु की आय होती है। मछलियों का कुछ हिस्सा वह अपने परिवार के भोजन के लिए भी बचा लेते हैं। 

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    पहले फाका अपने परिवार के साथ एक अपेक्षाकृत बड़े घर में रहते थे जिसे सरदार सरोवर बांध ने डुबा दिया। Photograph: (Sayali Parate/Ground Report)

    बदहाली और पहचान के संकट से जूझता समाज

    फाका के परिवार में उनकी पत्नि और 5 बच्चे हैं। उनकी यह दुनिया एक कमरे के इस मकान में सिमट कर रह जाती है। हालांकि फाका की स्थिती हमेशा से ऐसी नही थी। पहले उनका एक बड़ा मकान था, जिसमें वह अपने माता-पिता और भाई-बहन के साथ रहते थे। लेकिन सरदार सरोवर बांध बनने की वजह से उनका घर बांध के डूब क्षेत्र में आ गया। उनके परिवार को विस्थापित होना पड़ा। उनके भाईयो को तो सरकार से घर मिल गया। लेकिन फाका अलीराजपुर में अकेले रह गए। 

    फाका नायक समुदाय से आते हैं, जो मध्य प्रदेश  में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में आता है। हालांकि गुजरात और राजस्थान में यह समुदाय अनुसूचित जनजाति यानि एसटी वर्ग में आता है। मगर फाका इन कागज़ी गणित को नहीं जानते वह कहते हैं,

    “हम छोटा आदमी है, लेकिन सरकार ने हमें बड़ा बना दियो। अब हमें सरकार की कोई योजनाओं का लाभ नहीं मिलता।”

    दरअसल मध्य प्रदेश में कई ऐसी योजनाएं हैं जिनका लाभ सिर्फ आदिवासियों को मिलता है। मगर फाका और उसके जैसे अन्य नायक समुदाय के लोगों को ओबीसी वर्ग में होने के चलते यह लाभ नहीं मिल पाते। मगर इसका फाका के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस सवाल का जवाब जानने से पहले हमें फाका के जीवन में आ रही मुश्किलात को और अच्छे से जान लेना ज़रूरी है।

    फाका बताते हैं कि अप्रैल और मई में जब जब गर्मी अपने चरम पर होती हैं तब उन्हे मछलियां नहीं मिलतीं। Photograph: (Sayali Parate/Ground Report)

    बढ़ती गर्मी और घटती मछलियां

    फाका से हमारी पहली मुलाक़ात के 4 महीने बाद हम फिर ककराना पहुंचे। कैलेण्डर में साल और महीना बदल चुके हैं। फरवरी 2025 के पहले हफ्ते में ही गर्मी महसूस हो रही है। इस बीच फाका के घर का माहौल भी बदल गया है। हमारे आवाज़ देने पर फाका घर से निकल कर आते हैं। पहले जहां कमरे के एक ओर मछलियां और शेष भाग में उनकी गंध भरी हुई थी, अब वह नदारद है।  

    फाका पहले से कहीं ज़्यादा निराश नज़र आते हैं। अब उनके जाल में गनीमत से ही कुछ मछलियां फसती हैं। यह उनके परिवार के भोजन में ही खप जाती है। वह कहते हैं कि ये फरवरी का ही महीना है और मछलियां खत्म होने की कगार पर हैं। फाका बताते हैं कि जब गर्मी अप्रैल और मई में अपने चरम पर होंगी तब उन्हे मछलियां नहीं मिलेंगी।

    मछलियां नहीं मिलने के कारण फाका के पास मजदूरी करना ही आय का साधन बचा हुआ है। फाका अब अपने गांव सहित आस-पास के गांव में मजदूरी करते हैं। हालांकि उन्हें यहां नियमित काम नहीं मिलता। जिस दिन काम मिल जाता है उस दिन शाम तक 150 से 200 रूपए हाथ आ जाते हैं, वर्ना उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ता है। मछलियों के कम होने के साथ ही फाका की दैनिक आय भी अनिश्चितता में पड़ जाएगी।

    दरअसल जैसे-जैसे तापमान बढ़ने लगता है नदियों का पानी गर्म होने लगता है। पानी के गर्म होने की वजह से ऑक्सीजन की घुलनशीलता भी कम होती जाती है। इससे जलीय जीवों पर बुरा असर पड़ता है। जून 2022 में नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, गंगा, नर्मदा, कावेरी, साबरमती, तुंगभद्रा, मूसी और गोदावरी का पानी लगातार गर्म हो रहा है।

    रिपोर्ट के मुताबिक अगर यही स्थिति बनी रही तो वर्ष 2070-2100 तक इन नदियों के पानी का तापमान 35 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इससे पानी में घुली हुई ऑक्सिजन की मात्रा 7.9 मिलीग्राम प्रति लीटर से घटकर 7.3 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पहुंच सकती है। जबकि ज़्यादातर नदीय प्रजातियां (riverine species) घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा 5 मिलीग्राम/लीटर से कम होने पर जिंदा नहीं रह सकतीं।

    इसके अलावा नर्मदा पर बन रहे बांध, लगातार हो रहा रेत खनन और भूजल निष्कर्षण भी नर्मदा की जलीय आबादियों को प्रभावित कर रहा है। 2023 में आए एक शोध के अनुसार पिछले 50 सालो में नर्मदा की 56 से अधिक मछलियों की प्रजातियां कम हुई हैं। इन प्रजातियों में महाशीर और हिलसा जैसी महंगी बिकने वाली मछलियां भी हैं।

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    फाका और उनका समुदाय जलवायु और प्रशासनिक लापरवाही दोनों की मार झेल रहा है। Photograph: (Sayali Parate/Ground Report)

    पहचान के संकट से गहराती बेरोजगारी

    मगर फाका इतना शिक्षित नहीं हैं कि वह इस विज्ञान को समझ सके। वह इतना जानते हैं कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी उनके लिए जीवन बसर करना मुश्किल होता जाएगा। ऐसे में सवाल यही है कि जीवन का बसर हो कैसे? राज्य सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्र में जनजातीय समुदाय के विकास के लिए कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं। मगर उनका लाभ फाका को इसलिए नहीं मिलता क्योंकि सरकारी दस्तावेजों के अनुसार वह ओबीसी वर्ग से आता है।

    उदाहरण के लिए मान लीजिए कि फाका की पत्नी आय सृजन के लिए कोई छोटा-मोटा व्यापार करना चाहती है। उसे इसके लिए 2 लाख तक का लोन बेहद कम दर पर चाहिए। अपनी इस इक्षा की पूर्ति वो आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना के ज़रिए कर सकती थी। मगर चूंकि वह आदिवासी महिला नहीं है इसलिए वह यह नहीं कर सकती।

    इसी तरह उनके बच्चों को आदिवासी शिखा ऋण योजना का लाभ नहीं मिलेगा। इस योजना के तहत फाका के बच्चें अगर भविष्य में चाहें तो तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के लिए 10 लाख रूपए तक का ऋण ले सकते हैं। इसी तरह कई अन्य योजनाएं हैं जिनका लाभ फाका, उनके परिवार और समुदाय को पहचान के इस संकट के कारण नहीं मिल सकता। 

    यानि फाका और उनका समुदाय जलवायु और प्रशासनिक लापरवाही दोनों की मार झेल रहा है।

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 41 काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी, और निःशक्ततता की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को संरक्षित करने के लिए राज्य को नीति बनाने का निर्देश देता है। इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुये वर्ष 2005 में महात्मा गांधी नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) लाया गया था।

    इस योजना का मकसद देशभर में लोगो को उनके घर के पास रोजगार उपलब्ध कराना और भारतीय अर्थव्यवस्था से सीधे जोड़ना था। लेकिन हाल फिलहाल में कई रिपोर्ट्स है जो मनरेगा के संस्थागत ढांचे में आयी खामियों का उल्लेख करती है। 

    बीते वर्ष संसद की एक स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट पेश की है। यह रिपोर्ट उल्लेख करती है कि जिस दर से महंगाई बढ़ी है, मनरेगा के तहत मजदूरी उस स्तर से नहीं बढ़ाई जा रही है।

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    मनरेगा के संस्थागत ढांचे का लगातार कमजोर होना, फाका जैसे कई अशिक्षित ग्रामीणों को उनके संवैधानिक अधिकार से दूर कर रहा हैं। Photograph: (Sayali Parate/Ground Report)

    अगर मनरेगा के अधिकारिक आंकड़ो को देखा जाये तो पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश में भागीदारी, प्रदर्शन और बजट आवंटन में बड़ी गिरावट देखी गई है। उदाहरण के लिए, वित्तीय वर्ष 2021-22 और 2022-23 के मनरेगा के तहत काम करने वाले परिवारों की संख्या 6.18 करोड़ से घटकर 5.38 करोड़ हो गई हैं। हालांकि, 2023-24 में भुगतान की गई कुल मजदूरी पिछले वर्ष की तुलना में 40% कम थी। ये सभी आंकड़े मनरेगा के संस्थागत ढांचे मे कमजोरी दर्शाते है।

    मनरेगा भारत के दूरदराज के तबके में वहां रहने वाले लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने का एक साधन था। मनरेगा ये सुनिश्चित करता था कि लोगों को उनके श्रम के बराबर मजदूरी मिलेगी। लेकिन मनरेगा के संस्थागत ढांचे का लगातार कमजोर होना, फाका जैसे कई अशिक्षित ग्रामीणों को उनके संवैधानिक अधिकार से दूर कर रहा हैं।

    फाका और उनका समुदाय आज जलवायु परिवर्तन और प्रशासनिक लापरवाही दोनों की मार झेल रहा है। एक तरफ बढ़ते तापमान से घटती मछलियां उनकी पारंपरिक आजीविका छीन रही हैं, दूसरी तरफ पहचान के संकट के कारण वे सरकारी योजनाओं से वंचित हैं।

    आज फाका अपने परिवार का भरण-पोषण के लिए दूसरों की कृपा पर निर्भर हैं। उन्हें यकीन नहीं कि कल उन्हें काम मिलेगा या नहीं। यह स्थिति न केवल फाका की व्यक्तिगत समस्या है, बल्कि उन तमाम समुदायों की कहानी है जो आधुनिकता की दौड़ में पीछे छूट गए हैं और अब जलवायु परिवर्तन के कारण और भी कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।

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