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    Home » वे औरंगजेब नहीं लोकतंत्र की कब्र खोद रहे
    भारत

    वे औरंगजेब नहीं लोकतंत्र की कब्र खोद रहे

    By March 22, 2025No Comments7 Mins Read
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    वास्तव में वे औरंगजेब की नहीं लोकतंत्र की कब्र खोद रहे हैं। कब्र दो प्रकार से खोदी जाती है। एक तो गड़े मुर्दे उखाड़ने के लिए तो दूसरी तरह की खुदाई किसी को दफनाने या सुपुर्देखाक करने के लिए होती है। यहां इरादा लोकतंत्र को सुपुर्देखाक करने के लिए है। उन्हें इस बात का अहसास हो चुका है कि आजकल लोकतंत्र पूरी दुनिया में संकट में है। इसलिए इसे अगर भारत जैसे विशाल देश में, जहां पर कम से कम दुनिया की आबादी का पांचवां हिस्सा रहता है, वहां दफना दिया गया तो यह उनकी बहुत बड़ी जीत होगी। 

    वे जानते हैं कि लोकतंत्र सहिष्णुता, भाईचारा और सद्भाव के आधार पर चलता है। उसमें एक किस्म का सहमनापन होता है और एक दूसरे के दुखदर्द को साझा करने और दूर करने की प्रवृत्ति होती है। यानी वह लोकतंत्र का आधार है। इसलिए अगर भाईचारे को नष्ट कर दिया गया तो लोकतंत्र जमीन पर बैठ जाएगा। उसके लिए चलना मुश्किल हो जाएगा। लोकतंत्र में भावनाएं होती हैं लेकिन वह विवेक की कसौटी पर कसी जाती हैं। 

    भाईचारे के रिश्ते स्वार्थ के आधार पर नहीं बनते बल्कि निःस्वार्थ के आधार पर बनते हैं और उनमें समता और स्वतंत्रता निहित होती है। उसमें प्रेम निहित होता है। इसलिए वे लोकतंत्र के उच्चतर मूल्यों पर बहस नहीं करते। वे बहस करते हैं मध्ययुगीन इतिहास पर। लेकिन वे इतिहास को फिल्मों और उपन्यासों में ढूंढते हैं और विज्ञान को धर्मग्रंथों में। इसीलिए वे कभी संविधान की प्रस्तावना का उल्लेख नहीं करते जहां समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारा, न्याय, मानवीय गरिमा और उसी से निर्मित लोकतंत्र जैसे सिद्धांतों का उल्लेख है। वे सनातन धर्म का उल्लेख करते हैं जहां पर एक धर्मभीरु, आज्ञापालक और देवी देवताओं सहित धर्मगुरुओं को बिना कोई सवाल किए पूजने वाला समाज है।

    सवाल औरंगजेब के महिमामंडन का नहीं है। क्योंकि औरंगजेब एक बुरा शासक था। उसने अपने भाइयों का कत्ल किया और पिता को जेल में डाल दिया। उसके साम्राज्य में निरंतर असंतोष था और उस असंतोष को शांत करने के लिए उसे लगातार युद्ध करना पड़ा। लेकिन मध्ययुगीन शासक या प्राचीन युग के शासक ऐसे ही होते थे।

    उनके दंड महज कारागार तक सीमित नहीं रहते थे। वे किसी का सिर कलम करते थे तो किसी को दीवार में चुनवाते थे। उस समय आज की तरह मानवाधिकार की धारणा नहीं थी। लेकिन जिस तरह अच्छे से अच्छा शासक कहीं न कहीं अत्याचार करता है और किसी न किसी का दमन करता है वैसे ही बुरे से बुरा शासक कहीं न कहीं अच्छा काम भी करता है। औरंगजेब ने ऐसे कई काम किए जिनसे यह धारणा खंडित होती है कि वह हिंदू धर्मस्थलों और संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा था। उसने मंदिर तोड़े तो कई हिंदू मंदिरों को चंदा भी दिया। अगर जयसिंह प्रथम और जयसिंह द्वितीय औरंगजेब के सेनापति थे तो इससे यह बात खंडित होती है कि वह शिवाजी से धर्म के आधार पर युद्ध लड़ रहा था। 

    वास्तव में औरंगजेब और शिवाजी की आमने सामने की लड़ाई कभी हुई ही नहीं और जो परोक्ष लड़ाई हुई वह मुगल साम्राज्य से स्वाधीनता चाहने वाले एक मराठा राज्य निर्माता शिवाजी की लड़ाई थी। शिवाजी की सेना के कमांडर भी मुसलमान थे। और उनकी नीति काफी हद तक सांप्रदायिक सद्भाव वाली कृषक संस्कृति पर आधारित थी। यह बात गोविंद पंसारे की पुस्तक ‘शिवाजी कौन थे’ काफी कुछ स्पष्ट करती है।

    वास्तव में औरंगजेब बनाम शिवाजी के इस विमर्श के भीतर  हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व से अधिक मराठा अस्मिता और साम्राज्यवादी भारत के बीच चलने वाला द्वंद्व है। मराठी अस्मिता अपनी ताकतवर सैन्य संगठन परंपरा और बौद्धिक परंपरा के चलते आर्थिक शक्तियों से भी संपन्न हो गई तो उसके भीतर पूरे भारत पर शासन करने की एक इच्छा जोर मारती रहती है। उसका उत्तर प्रदेश और दूसरे हिंदी भाषी राज्यों की सांप्रदायिक महत्त्वाकांक्षा से महज ऊपरी नाता है। इस आख्यान के भीतर एक किस्म की मराठी श्रेष्ठता की भावना है। 

    यह भावना बीसवीं सदी की शुरुआत में भी थी जब रवींद्रनाथ टैगोर ने सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक `देसेर कथा’ की समीक्षा करते हुए कहा था कि अब मराठी राष्ट्रवाद और बांग्ला राष्ट्रवाद को आपस में मिल जाना चाहिए और इस बात को भूल जाना चाहिए कि कभी मराठी लोग हमला करके बंगालियों को परेशान किए हुए थे। उन्होंने देउस्कर को मराठी और बांग्ला एकता की मिशाल के तौर पर पेश करते हुए कहा था कि देखो बंगालियों ने एक मराठी भाषी ने बांग्ला में ऐसी किताब लिखी है जिससे तुम्हारा बंग-भंग आदोलन प्रेरणा ले रहा है।

    मराठी राष्ट्रीयता और मराठी श्रेष्ठता का वही भाव आज शिवसेना के अखबार ‘सामना’ के उस संपादकीय में दिखाई दे रहा है जिसमें ‘हिंदू तालिबान’ शब्द का प्रयोग करने पर विवाद खड़ा हुआ। अगर इस शब्द को छोड़ भी दिया जाए तो मराठी राष्ट्रीयता की उस भावना पर गौर करने लायक है जो एक ओर भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के आख्यान को खारिज करने के लिए और दूसरी ओर मराठी अस्मिता को जगाने के लिए व्यक्त की जा रही है। इसकी स्थानीयता से अखिल भारतीय सांप्रदायिकता कमजोर भी होती है। 

    सामना कहता है, “औरंगजेब की कब्र महाराष्ट्र की अस्मिता और जुझारू पराक्रम का स्मारक है। औरंगजेब की कब्र महाराष्ट्र के शौर्य का प्रतीक है। इस कब्र को हटाओ नहीं तो हम तो हम इसे नष्ट कर देंगे, ऐसा रुख भाजपा और संघ के जुड़े कुछ उन्मादी धर्मांधों ने लिया है। उन्हें इतिहास को समझना चाहिए। ….यह लोग इतिहास और महाराष्ट्र की शौर्य परंपरा के दुश्मन हैं। वे महाराष्ट्र के वातावरण में जहर घोलना चाहते हैं।’’

    सामना के संपादकीय में मराठी और गुजराती अस्मिता का टकराव भी दिखता है और इसी के साथ वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिवाजी घोषित करने को भी आड़े हाथों लेता है। वह लिखता है, “भाजपा की राजनीति का मकसद छत्रपति शिवाजी और संभाजी महराज के महत्त्व को कम करना है। भाजपा ने अब नरेंद्र मोदी को शिवाजी घोषित कर दिया है। इसलिए असली शिवाजी की विरासत को खत्म करने की साजिश हो रही है। कुरान की आयतें जलाना और मस्जिद में होली की लकड़ियां फेंकने जैसी घटनाएं शिवाजी के सिद्धांतों के खिलाफ हैं।’’

    भारत की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीति की यह बड़ी विडंबना है कि उसका बौद्धिक शस्त्रागार इतना रिक्त है कि वे सांप्रदायिक आख्यान के विकल्प के तौर पर समसामयिक मुद्दों का कोई आख्यान खड़ा ही नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से जो हासिल किया था उसे आगे बढ़ाने के लिए सांगठनिक तैयारी नहीं कर पाए। न ही समाज को उस आख्यान से स्थायी तौर पर संबद्ध कर पाए।

    वे कभी ‘जय बापू, जय भीम’ की तैयारी करते हैं तो कभी ठिठक जाते हैं। वे जाति जनगणना के माध्यम से जाति तोड़ने की योजना बनाते हैं फिर उनका जातिवाद जग जाता है। वे कभी किसानों की जीत के बाद उनकी उपलब्धियों के माध्यम से पूरे देश के किसानों को जोड़ने की सोचते हैं और फिर ठहर जाते हैं। दरअसल हमारे विपक्षी दलों की राजनीति की विडंबना यही है कि उनके अपने संगठन में भी सांप्रदायिक लोग घुसे हैं। तभी राहुल गांधी को गुजरात जाकर कहना पड़ता है कि कांग्रेस पार्टी में आधे भाजपा की स्लीपर सेल के लोग हैं।

    उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों की सारी उम्मीद अब संघ परिवार के अंतर्विरोध पर टिकी हुई है। वे संघ के इस बयान से बहुत उम्मीद लगा लेते हैं कि औरंगजेब की कब्र अब प्रासंगिक नहीं है।

    वे इस बात से भी बहुत आशान्वित हैं कि संघ भाजपा की कमान अपने किसी भरोसे के व्यक्ति को देना चाहते हैं जो सत्ता में बैठे लोगों के हाथ की कठपुतली न हो। उनकी बहुत सारी उम्मीदें एलन मस्क के एआई ग्रॉक पर टिक जाती हैं कि जब भारत का मीडिया सच नहीं बोल पा रहा है तो वही सच बोलेगा। यह बीमार लोकतंत्र और पराजित लोकतांत्रिक राजनीति के लक्षण हैं और यही वजह है कि वे लोकतंत्र की कब्र खोदने का साहस कर पा रहे हैं। 

    लोकतंत्र अगर बचेगा तो नए किस्म के सोच से बचेगा। बुनियादी मूल्य वही रहेंगे लेकिन उसकी नई व्याख्या करनी होगी। संबंधों का मूल तत्त्व तो प्रेम और विश्वास ही रहेगा लेकिन उसके लिए नई संरचना तैयार करनी होगी। तभी हम श्मशान और कब्रिस्तान की राजनीति से बाहर आ कर सांस्कृतिक विविधता के वसंत से महकते लोकतंत्र की नई राजनीति शुरू कर सकेंगे। 

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