मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के साथ न्यायमूर्ति पी वी संजय कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ को शुक्रिया अदा करना हमारा फर्ज है। इस पीठ ने 1991 के धार्मिक स्थलों संबंधी क़ानून की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई शुरू की है।लेकिन उसके सामने इस क़ानून को कारगर तरीक़े से लागू करने की माँग करनेवाली अर्ज़ियाँ भी हैं। पीठ ने संघीय सरकार को इसके बारे में अपना पक्ष स्पष्ट करने की नोटिस दी है।लेकिन उसने इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण काम किया है। जब तक इन याचिकाओं की सुनवाई नहीं होती, पूरे देश की कोई अदालत किसी भी धार्मिक स्थल की मिल्कियत या उसके चरित्र के बारे में कोई फ़ैसला नहीं ले सकती। यह तय करने के लिए किसी तरह का कोई सर्वेक्षण भी नहीं किया जा सकता।
ये याचिकाएँ पिछले 2 साल से भी अधिक वक्त से पड़ी हुई हैं। इस बीच एक के बाद एक मस्जिदों और मुसलमानों के दूसरे धार्मिक स्थलों को विवादित बनानेवाली अर्ज़ियाँ विभिन्न अदालतों में लगाई जा रही हैं और अदालतें उनके सर्वेक्षण के आदेश भी पारित कर रही हैं। इस अराजकता को देखते हुए इस पीठ ने यह भी कहा कि जब यह मामला अपने पूरेपन में सर्वोच्च न्यायालय के सामने है तो फिर दूसरी अदालतें उससे दौड़ लगाते हुए इस संबंध में फ़ैसले नहीं ले सकतीं।
अदालत ने यह भी कहा कि 1991 के क़ानून की व्यवस्था न भी होती तो भी संविधान ही इसकी ताकीद करता है कि किसी धार्मिक स्थल के साथ छेड़छाड़ न की जाए। धर्मनिरपेक्षता भारत की नींव है। उसे हिलाया नहीं जा सकता।
अदालत ने यह आदेश देकर भारत को बहुत बड़ी राहत दी है। इसलिए इस पीठ से तीनों न्यायाधीशों का नाम लिया जाना ज़रूरी है क्योंकि इन्होंने इस देश को और विशेषकर मुसलमानों को उस यंत्रणा से मुक्त किया है जिससे वे पिछले कुछ वक्त से गुजर रहे हैं। उनके ही सहकर्मी और पिछले मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की नैतिक बेपरवाही के कारण इस यातना का सिलसिला शुरू हुआ था।
डॉ चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण को जारी रखने का आदेश देकर जिस हिंदुत्ववादी कौतूहल के न्याय सिद्धान्त का आविष्कार किया था उसे मान्यता देने से आज की अदालत ने इनकार कर दिया है। जिस हिंदुत्ववादी कौतूहल को डॉक्टर चंद्रचूड़ ने संवैधानिक ठहराकर 1991 के धार्मिक स्थलों संबंधी क़ानून को तक़रीबन निष्प्रभावी कर दिया था,वह कितना ख़तरनाक था यह संभल की हिंसा से मालूम हुआ। डॉक्टर चंद्रचूड़ ने कहा कि 1991 का क़ानून कहता है कि किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप बदला नहीं जा सकता लेकिन वह इस पर पाबंदी नहीं लगाता कि मैं यह पता करूँ कि उस स्थल का आरंभिक या वास्तविक धार्मिक स्वरूप क्या है। वह तो सर्वेक्षण से ही मालूम किया जा सकता है। यह क्या भोलापन था या चतुराई क्या चंद्रचूड़ नहीं जानते थे कि इस सर्वेक्षण की प्रक्रिया से क्या कुछ हो सकता है
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डॉक्टर चंद्रचूड़ ने आपराधिक भोलेपन के साथ धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण का दरवाज़ा खोला। यह वास्तव में 1991 के धार्मिक स्थल संबंधी क़ानून को बिना निरस्त किए अप्रासंगिक बना देने की चतुराई थी।
हमने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण के दौरान ही ‘हिंदू’ पक्ष का दावा सुना कि मस्जिद के भीतर ‘शिवलिंग’ पाया गया है। अगर इसे सिर्फ़ सर्वेक्षण होना था तो इस दावे के शोर का क्या मतलब और इसकी अनुमति क्यों दी गई मस्जिद कमिटी ने कहा कि वह वुजूखाने का फ़व्वारा है लेकिन डॉक्टर चंद्रचूड़ ने कथित शिवलिंग के दावे को अस्थायी मान्यता देते हुए वुजूखाना सील करवा दिया। इस तरह ज्ञानवापी मस्जिद का स्वरूप बिना बदले बदल गया क्योंकि उसके एक हिस्से को न्यायमूर्ति ने विवादास्पद मान लिया। फिर हमने ज्ञानवापी मस्जिद के तहख़ाने में पूजा शुरू होते भी देखी। इसी प्रकार बाबरी मस्जिद को धीरे धीरे विवादास्पद बनाया गया था। फिर क्या हुआ, हम सब जानते हैं।
ज्ञानवापी के बाद हम रोज़ाना ही खबर पढ़ते हैं कि देश के किसी न किसी हिस्से में किसी भी मस्जिद या दरगाह या मुसलमानों के पवित्र स्थल को लेकर अदालत में दावा किया जा रहा है कि वह हिंदू धर्म स्थल था इसलिए उसे हिंदुओं के हवाले किया जाना चाहिए।और हम अदालतों को उत्साहपूर्वक बिना पलक झपकाए इस प्रकार आदेश देते भी देख रहे हैं कि इन धार्मिक स्थलों का सर्वेक्षण करके इनका ‘वास्तविक’ चरित्र पता किया जाए।
ये अदालतें ऐसी याचिकाओं को न सिर्फ़ असाधारण तेज़ी से सुनती हैं बल्कि उस पर तुरत कार्रवाई की आदेश भी दे डालती हैं। आम तौर पर भारतीय न्याय प्रणाली की शिकायत उसकी सुस्ती के लिए की जाती है लेकिन ऐसे मामलों में उसकी चुस्ती देखते बनती है। प्रशासन और पुलिस भी जैसे अदालत के बाहर इन फ़ैसलों के इंतज़ार में बैठी रहती है। आनन फ़ानन में सर्वेक्षण का काम किया जाता है। अदालत न्याय के इस मामूली क़ायदे का पालन नहीं करती कि उसके फ़ैसले की अपील का वक्त मस्जिद या दरगाह की इंतज़ामिया कमिटी को दिया जाए। जाहिरा तौर पर मुसलमान हक्का बक्का रह जाते हैं। इन सारी कार्रवाइयों से उनमें बेचैनी पैदा होना स्वाभाविक है।फिर जब वे प्रशासन की तत्परता देखते हैं तो वह भी उन्हें हैरान करता है क्योंकि पुलिस और प्रशासन अमूमन किसी और मामले में इतनी फुर्ती नहीं दिखलाता।इसलिए अदालत के साथ उनकी कार्रवाई एकतरफ़ा मालूम पड़ती हैं।
यही संभल की शाही मस्जिद के साथ किया गया।अदालत ने मस्जिद के सर्वेक्षण की हिंदू पक्ष की माँग बिना मुसलमान पक्ष को सुने मान ली। इस आदेश के 2 घंटे के भीतर सर्वेक्षण शुरू हो गया।फिर बिना किसी खबर के एक सुबह सर्वेक्षण की टीम मस्जिद पहुँची। साथ में जय श्रीराम का नारा लगाते भीड़ भी थी। इस उग्र भीड़ को पुलिस की हिफ़ाज़त मिली हुई थी। अगर यह सर्वेक्षण मात्र था, तो यह भीड़ क्यों आप उसका वीडियो देखें तो मालूम होता है मस्जिद पर चढ़ाई की जा रही है। मुसलमानों का बेचैन होना स्वाभाविक था।
उग्र हिंदू भीड़, भारी पुलिस बंदोबस्त के कारण आस पास के मुसलमानों में किसी अनहोनी का आशंका पैदा हुई।फिर मस्जिद में खुदाई की अफ़वाह फैली। मुसलमानों ने पत्थर चलाए। फिर जो हुआ उसे हम सबने देखा। प्रशासन और पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण 5 मुसलमानों की जान चली गई। कुछ लोगों की समझ है कि अगर अदालत ने सर्वेक्षण का आदेश दिया है तो मुसलमानों को उसका विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है। वे कहते हैं कि यह तो मात्र सर्वेक्षण है। अगर मुसलमान कुछ छिपाना नहीं चाहते तो सर्वेक्षण से उन्हें क्यों भागना चाहिए लेकिन मुसलमानों के सामने बाबरी मस्जिद का उदाहरण है। किस प्रकार उसे धीरे धीरे विवादास्पद बना दिया गया । एक बार जब वह हिंदू जनता की निगाह में विवादास्पद बन गई तो उसे ध्वस्त करना भी आसान हो गया। जो विवादास्पद है उसे अवैध भी मान लिया जाता है। फिर वह रहे न रहे, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। जो अवैध है उसे नष्ट ही हो जाना चाहिए।
आज की सर्वोच्च अदालत ने इस सामान्य से तर्क को समझा। इसे चंद्रचूड़ न समझते हों ऐसा नहीं। लेकिन उन्होंने चतुराई दिखलाई। आज की अदालत के सामने 1991 के धार्मिक स्थलों संबंधी क़ानून को चुनौती देनेवाली याचिकाएँ आईं तो उन्होंने संवैधानिक नैतिकता के मामले में असाधारण स्पष्टता का परिचय दिया। 1991 का क़ानून सारे धार्मिक स्थलों की स्थिति को वैसे ही बनाए रखने का आदेश देता है जो 15 अगस्त, 1947 को थी। यह क़ानून भारत में अराजकता को रोकने का एक तरीक़ा था। बौद्ध स्थलों को हिंदू स्थल में बदलने, जैन पवित्र स्थलों को तोड़कर हिंदू बनाने या हिंदू मंदिरों की जगह मस्जिद बनाने के उदाहरण इतिहास में हैं। 15 अगस्त, 1947 को हमने मात्र अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी नहीं पाई बल्कि हमने एक नए प्रकार की सामाजिक सभ्यता का ऐलान भी किया। हमने इतिहास को पीछे भी छोड़ा। सामाजिक दृष्टि पीछे देखने और इतिहास का हिसाब किताब चुकता करनेवाली नहीं बल्कि आगे देखनेवाली होगी। 15 अगस्त से हम एक नई शुरुआत कर रहे थे। इतिहास को स्वीकार करते हुए वर्तमान और भविष्य के निर्माण की चुनौती थी।
1991 के इस क़ानून का महत्त्व क्या है, यह बाबरी मस्जिद के ध्वंस के प्रकरण से समझा जा सकता है। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके जुड़े संगठन हैं जिनके लोग पूरे भारत में मुसलमानों से जुड़े किसी भी स्मारक या धार्मिक स्थल पर अपना दावा पेश करते रहते हैं। उनके कारण अब ऐसे लोग भी पैदा हो गए हैं जो आर एस एस से जुड़े नहीं हैं लेकिन अब वे ख़ुद ऐसे दावे पेश कर रहे हैं। ऐसे लोग अब प्राथमिक स्तर की अदालतों में और ऊपर भी आ गए हैं जो भारत में हर चीज़ को मूलतः हिंदू मानते हैं इसलिए किसी भी महत्त्वपूर्ण स्मारक या धार्मिक स्थल को लेकर ‘हिंदू दावेदारी’ पेश करते रहते हैं। संघीय सरकार में और देश के कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के होने के कारण ऐसे मामलों में तेजी आ गई है।अभी कोई 10 ऐसे स्मारकों को लेकर 18 दावे अलग अलग अदालतों में पेश किए गए हैं। इनका मक़सद क्या है यह हम सबको पता है।
इस स्थिति में सिर्फ़ सर्वोच्च न्यायालय ही देश को इस हिंदुत्ववादी अराजकता से बचा सकता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने उस अराजकता को शह दी थी। उनसे उलट उनके उत्तराधिकारी मुख्य न्यायाधीश और उनके साथी न्यायमूर्तियों ने अपने न्यायिक दायित्व को समझा और कम से कम फ़िलहाल हमें, भारत को वक्ती तौर पर ही सही, साँस लेने की मोहलत दी। आज इससे ज़्यादा हम उम्मीद भी क्या करते हैं