क्या राज ठाकरे उद्धव ठाकरे के साथ जाएँगे? यदि ऐसा है तो सवाल है कि एकीकरण के लिए दोनों तरफ़ से सकारात्मक संकेत आने के बाद भी राज ठाकरे शिंदे खेमे से लगातार क्यों मिल रहे हैं? एक दिन पहले ही उन्होंने शिंदे खेमे के मंत्री उदय सामंत से मुलाक़ात की है। वह पहले भी कई बार मिल चुके हैं। इन मुलाक़ातों के बीच ही संजय राउत ने फिर से उद्धव सेना और एमएनएस के एकीकरण का संकेत दिया है।
इसी वजह से अब महाराष्ट्र की सियासत में एक बार फिर ठाकरे परिवार के पुनर्मिलन की चर्चा जोर पकड़ रही है। शिवसेना (यूबीटी) ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे के साथ गठबंधन की संभावनाओं को फिर से हवा दी है। वहीं, दूसरी ओर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने भी राज ठाकरे और उनकी पार्टी के साथ संपर्क बढ़ाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं। यह सियासी हलचल आगामी बृहन्मुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी और दूसरे स्थानीय निकाय चुनावों से पहले देखने को मिल रही है, जो महाराष्ट्र की राजनीति में एक नए समीकरण की ओर इशारा कर रही है।
नये समीकरण को समझने से पहले यह जान लें कि आख़िर दोनों में यह दूरी कैसे आई थी। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बीच का मनमुटाव कोई नया नहीं है। 2005 में राज ठाकरे ने तब शिवसेना से अलग होकर एमएनएस बनाई थी जब बाल ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव को पार्टी की कमान सौंपने का फ़ैसला किया था। यह पारिवारिक और राजनीतिक विवाद तब से दोनों नेताओं के बीच दूरी का कारण बना हुआ है। हालाँकि, हाल के वर्षों में मराठी अस्मिता और महाराष्ट्र के हितों को लेकर दोनों नेताओं ने एक-दूसरे के प्रति नरम रुख दिखाया है।
शिवसेना (यूबीटी) ने हाल ही में अपने सोशल मीडिया हैंडल पर मराठी में एक संदेश पोस्ट किया, जिसका मोटा-मोटा मतलब यह था कि ‘समय आ गया है एकजुट होने का’। इस संदेश ने उद्धव और राज ठाकरे के बीच सुलह की संभावना को बढ़ाया। शिवसेना (यूबीटी) के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने भी इस दिशा में सकारात्मक बयान दिए हैं। राउत ने कहा है कि उद्धव मराठी मानूस और महाराष्ट्र के हितों के लिए मतभेद भुलाने को तैयार हैं, लेकिन उन्होंने यह शर्त भी रखी कि राज ठाकरे को बीजेपी और शिंदे सेना जैसे ‘महाराष्ट्र विरोधी ताक़तों’ से दूरी बनानी होगी।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, ‘राज ठाकरे ने इस सुलह की पहल की शुरुआत की थी और हमने सकारात्मक जवाब दिया। हम आज भी सकारात्मक जवाब दे रहे हैं। अब यह उन पर निर्भर है कि वे जवाब दें और हम उनके जवाब का इंतजार कर रहे हैं। हम राज ठाकरे को बहुत सम्मान की नज़र से देखते हैं, हम उनका आदर करते हैं।’
यह रणनीति उद्धव ठाकरे के लिए अहम है, क्योंकि 2022 में एकनाथ शिंदे के विद्रोह के बाद उनकी शिवसेना का विभाजन हो गया था। शिंदे गुट ने न केवल पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न हासिल किया, बल्कि बीएमसी और अन्य क्षेत्रों में शिवसेना की पारंपरिक ताक़त को भी कमजोर किया। ऐसे में उद्धव ठाकरे के लिए राज ठाकरे का साथ न केवल मराठी वोटों को एकजुट कर सकता है, बल्कि मुंबई जैसे शिवसेना के गढ़ में उनकी स्थिति को भी मज़बूत कर सकता है।
शिंदे सेना की चाल: एमएनएस को लुभाने की कोशिश
दूसरी ओर, एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने भी राज ठाकरे के साथ नजदीकी बढ़ाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। हाल ही में शिंदे गुट के वरिष्ठ नेता और महाराष्ट्र के मंत्री उदय सामंत ने मंगलवार को राज ठाकरे से उनके मुंबई स्थित आवास पर मुलाकात की। इसके अलावा, पिछले महीने खुद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी राज से मुलाकात की थी। ये मुलाकातें बीएमसी और अन्य नागरिक निकाय चुनावों से पहले एमएनएस को महायुति गठबंधन के साथ लाने की कोशिश के रूप में देखी जा रही हैं।
शिंदे गुट का मानना है कि राज ठाकरे की एमएनएस, भले ही चुनावी रूप से ज्यादा मजबूत न हो, लेकिन मुंबई और आसपास के मराठी भाषी मतदाताओं में उसका प्रभाव है। अगर एमएनएस महायुति के साथ आती है तो यह शिंदे सेना को उद्धव ठाकरे के ख़िलाफ़ एक मज़बूत स्थिति दे सकता है। हालाँकि, राज ठाकरे के बीजेपी के साथ पहले के अनुभव ठीक नहीं रहे हैं। खासकर 2019 के लोकसभा चुनावों में समर्थन के बावजूद उनको कोई खास फायदा नहीं मिला था।
राज ठाकरे की यह सतर्कता उनकी पिछली सियासी रणनीतियों को देखते हुए समझी जा सकती है। एमएनएस का 2009 में 13 विधानसभा सीटें जीतने के बाद से प्रदर्शन लगातार कमजोर हुआ है और 2024 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। ऐसे में राज के लिए यह फ़ैसला उनकी पार्टी के भविष्य के लिए निर्णायक हो सकता है।
बीएमसी चुनाव का दांव
बीएमसी चुनाव महाराष्ट्र की सियासत में हमेशा से अहम रहे हैं और शिवसेना ने 1997 से इस पर कब्जा जमाए रखा है। 2017 में शिवसेना (तब उद्धव के नेतृत्व में) ने 84 सीटें जीती थीं, जबकि एमएनएस को 7 सीटें मिली थीं। लेकिन शिंदे के विद्रोह के बाद शिवसेना के 84 पूर्व नगरसेवकों में से 50 से ज़्यादा अब शिंदे गुट के साथ हैं। ऐसे में उद्धव के लिए बीएमसी में अपनी ताक़त को फिर से स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है।
अगर उद्धव और राज एक साथ आते हैं तो मराठी वोटों का ध्रुवीकरण उनकी सबसे बड़ी ताक़त हो सकता है। दूसरी ओर, अगर राज शिंदे और बीजेपी के साथ जाते हैं, तो यह उद्धव के लिए बड़ा झटका होगा। हालाँकि, एमएनएस के कुछ नेताओं ने उद्धव के साथ गठबंधन पर ऐतराज जताया है, खासकर 2014 और 2017 में हुए कथित ‘विश्वासघात’ का हवाला देकर।
उद्धव और राज के बीच पुनर्मिलन की राह आसान नहीं है। दोनों नेताओं की अलग-अलग शैलियां, संगठनात्मक ढांचे और अतीत के विवाद एकीकरण में बाधा बन सकते हैं।
वहीं, शिंदे सेना और बीजेपी के लिए राज का साथ महायुति को मुंबई में मज़बूत करने का एक मौक़ा है, लेकिन राज की सियासी महत्वाकांक्षाएँ और स्वतंत्र छवि इसे मुश्किल बनाती हैं। दोनों पक्षों की रणनीति में राज ठाकरे एक किंगमेकर की भूमिका में उभर रहे हैं और उनका अंतिम फ़ैसला महाराष्ट्र की सियासत को नया रंग दे सकता है।
महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे परिवार का पुनर्मिलन एक भावनात्मक और रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक हो सकता है, लेकिन यह कई अगर-मगर पर टिका है। उद्धव ठाकरे जहां अपनी खोई जमीन वापस पाने की कोशिश में हैं, वहीं एकनाथ शिंदे और बीजेपी राज ठाकरे को अपने पाले में लाकर महायुति की ताक़त बढ़ाना चाहते हैं। बीएमसी चुनाव से पहले यह सियासी शतरंज दिलचस्प मोड़ ले रही है और राज ठाकरे का अगला क़दम इस खेल का रुख तय करेगा।