मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले की सामनापुर तहसील के सिमरधा वन ग्राम में 62 वर्षीय सुमरिन बैगा बाई अपनी पुरानी कुल्हाड़ी थामे खेत की ओर बढ़ती हैं। यह वही खेत है जहाँ उनकी चार पीढ़ियों का पसीना रचा-बसा है। उनकी आँखों में एक अनकहा डर तैरता है।
“यह जंगल हमारा घर है, लेकिन राजस्व ग्राम बनने से क्या हमारा खेत हमसे छिन जाएगा?” वे धीमी आवाज़ में कहती हैं, मानो जंगल उनकी बात सुन लेगा।
सुमरिन की चिंता केवल व्यक्तिगत नहीं है। 444.053 हेक्टेयर की वनभूमि पर बसे सिमरधा वनग्राम में वे अपने परिवार के आठ सदस्यों के साथ 10.02 हेक्टेयर जमीन पर काबिज हैं, लेकिन उन्हें मिले वन अधिकार पत्र में सिर्फ 0.120 हेक्टेयर जमीन ही दर्ज है।
“हमने जंगल को सींचा, कोदो उगाया, तेंदुपत्ता-महुआ तोड़ा,” सुमरिन के 65 वर्षीय पति संतराम बैगा कहते हैं, “फिर भी कागज कहते हैं कि हम अतिक्रमणकारी हैं, जबकि हमें यहाँ वन विभाग ने ही बसाया है।”
925 वनग्रामों की पुकार और 2.5 लाख परिवारों का संघर्ष
संतराम की आवाज़ में छुपा दर्द सिमरधा वनग्राम के 86 परिवारों तक सीमित नहीं है। यह मध्य प्रदेश के 925 वनग्रामों की सामूहिक पुकार है, जहाँ 2.5 लाख परिवार अपनी मिट्टी, जंगल, संस्कृति और सम्मान के लिए लड़ रहे हैं।
राजनीतिक घोषणा से लेकर कागजी खानापूर्ति तक
गृहमंत्री अमित शाह ने 22 अप्रैल 2022 को वनग्रामों को राजस्व ग्राम में परिवर्तित करने की घोषणा की थी। इसके बाद आनन-फानन में वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा-3(1)(ज) के प्रावधान के तहत 26 मई 2022 को राजस्व ग्रामों में परिवर्तन का आदेश जारी हुआ।
करीब तीन साल बाद भी आदिवासी गाँवों में कुछ नहीं बदला है। इन वनग्रामों में जीवन कागजी प्रक्रियाओं में कैद होकर रह गया है। इन तीन सालों में न तो यहाँ रहने वालों को टाइटल डीड मिले, न ही उनके वन पट्टों में हुई त्रुटियों का सुधार हुआ और न ही विकास की बागडोर ग्राम पंचायतों के हाथ लगी।
SOP का विवाद और टास्क फोर्स की उपेक्षा
राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने 28 दिसंबर 2024 को वनग्राम के निवासियों को रिकॉर्ड ऑफ राइट्स छह माह में प्रदान करने के निर्देश दिए थे। इसके लिए बनी टास्क फोर्स की उपसमिति की 4 मार्च 2025 की बैठक में निर्णय लिया गया कि डिंडोरी जिले के वनग्राम शीतलपानी का अप्रैल माह में भ्रमण किया जाएगा।
परंतु, समिति के दौरे से पहले ही 16 अप्रैल को मध्य प्रदेश जनजातीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव गुलशन बामरा ने स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) जारी कर दिया। यह SOP, जिस पर जनजाति कल्याण, वन और राजस्व विभाग के हस्ताक्षर हैं, सुमरिन जैसे लाखों आदिवासियों के लिए उम्मीद कम, आशंकाएँ ज्यादा लेकर आया है।
विशेषज्ञों का विरोध और चिंताएँ
आदिवासी संगठनों, कार्यकर्ताओं और टास्क फोर्स में शामिल विषय विशेषज्ञों द्वारा इस SOP का व्यापक विरोध हो रहा है। सभी ने एकमत होकर कहा है कि “SOP में कई खामियाँ हैं। यह वन अधिकार अधिनियम की धारा का उल्लंघन और गलत व्याख्या करता है। इसे तत्काल वापस लेने की जरूरत है।”
टास्क फोर्स के सदस्य और वन अधिकार अधिनियम के जानकार डॉ. शरद लेले कहते हैं,
“SOP जारी करने की जल्दबाजी FRA की भावना को कमजोर करती है। वन ग्रामों में आज तक जो ऐतिहासिक अन्याय चलता आया है, उस पर यह SOP एक और कड़ी चढ़ाएगी।”
SOP की खामियाँ: एक विस्तृत विश्लेषण
SOP का उद्देश्य वन ग्रामों के संपरिवर्तन से पहले वन अधिकार कानून के तहत व्यक्तिगत वन अधिकारों (IFR) की प्रक्रिया में त्रुटियों को सुधारना है। लेकिन यह SOP समस्या को और जटिल बनाता है।
1. अधूरे और गलत अधिकारों की समस्या
SOP क्या कहता है: वन अधिकार कानून में वन ग्रामों के समस्त पट्टेधारियों के पट्टों का अधिकार पत्र में संपरिवर्तन करने का प्रावधान है।
मुख्य खामी: यह FRA की धारा 3(1)(h) का उल्लंघन करता है, जो “rights of settlement and conversion of all forest villages… whether recorded, notified, or not” की बात करती है। FRA सभी निवासियों (पट्टेधारी और गैर-पट्टेधारी, ST, OBC) को हक देती है, न कि केवल पट्टेधारियों को।
व्यावहारिक प्रभाव: सिमरधा में 86 में से केवल 37 परिवारों के पास ही पुराने पट्टे हैं। SOP के कारण 49 गैर-पट्टेधारी परिवार (20 OBC सहित) अपने अधिकारों से वंचित रह जाएंगे। सिमरधा के चैतराम गोंड (62) जैसे हजारों गैर-पट्टेधारियों के खेत अतिक्रमणकारी ठहराए जाएंगे।
2. सीमा के बाहर खेतों की अनदेखी
SOP का प्रावधान: परिच्छेद 4.3 में कब्जा केवल वन ग्राम की सीमा के अंदर होना चाहिए।
जमीनी हकीकत: वन ग्रामों में आबादी बढ़ने से खेती सीमा के बाहर फैली, जो वन विभाग की अलिखित सहमति से थी। धारा 3(1)(a) 2005 से पहले के कब्जे को 4 हेक्टेयर तक मान्यता देती है, चाहे वह सीमा के अंदर हो या बाहर।
परिणाम: सिमरधा में घनसी बाई (58) के 6.34 हेक्टेयर खेत में से 3.67 हेक्टेयर जो सीमा से बाहर है, खारिज हो गया। इससे उनकी आजीविका संकट में है।
3. OTFD/OBC का गलत नवीनीकरण
SOP का दावा: परिच्छेद 5.4 में “जो अन्य परंपरागत वन निवासी (OTFD/OBC) 75 साल से कम समय तक निवासरत हैं, उनके लिए पट्टा नवीनीकरण का फॉर्म भरा जाएगा।”
कानूनी समस्या: यह कानूनी रूप से गलत और अव्यावहारिक है। राजस्व ग्राम बनने पर वन ग्राम नियम खत्म हो जाएंगे, फिर पट्टा नवीनीकरण का कोई आधार नहीं रह जाता।
व्यापक प्रभाव: सिमरधा में 20 OBC परिवारों की 50 हेक्टेयर खेती खतरे में है, जबकि राज्य के वनग्रामों में 85 प्रतिशत OTFD दावे इस SOP के कारण खारिज होंगे।
आंकड़ों में मध्य प्रदेश के वन ग्राम
- वन ग्राम: कुल 925 में से 827 वनग्राम बचे हैं, 792 को राजस्व ग्राम बनाने का नोटिफिकेशन जारी
- खेती का रकबा: 60,000 हेक्टेयर, जिसमें 20 प्रतिशत सीमा के बाहर
- FRA दावे: 6.5 लाख IFR दावे, 3 लाख स्वीकृत, लेकिन वनग्रामों में सिर्फ 12 प्रतिशत को अधिकार पत्र
- OTFD परिवार: 25,000 परिवार, 85 प्रतिशत को 75 साल के सबूत की बाधा
- वनक्षेत्र: 85,724 वर्ग किमी, 2023 में 612.41 वर्ग किमी वनोन्मूलन
सिमरधा: एक केस स्टडी
सिमरधा वन ग्राम के आंकड़े बताते हैं कि SOP के परिच्छेद कैसे वनवासियों को प्रभावित करेंगे:
- कुल परिवार: 86 (66 ST, 20 OBC)
- कुल रकबा: 444.053 हेक्टेयर
- वन अधिकार पत्र: केवल 37 परिवारों को 91.354 हेक्टेयर (20.57 प्रतिशत)
- शेष भूमि: 352.699 हेक्टेयर (79.43 प्रतिशत) अधिकार विहीन
व्यक्तिगत मामले
- जेठू बैगा (40) का 3.94 हेक्टेयर खेत परिच्छेद 4.3 (सीमा के बाहर) के कारण खारिज
- संभू बैगा (50) का 6.33 हेक्टेयर का पट्टा परिच्छेद 5.6 से केवल 0.079 हेक्टेयर तक सीमित
- 20 OBC परिवार परिच्छेद 5.4 की बाधाओं से प्रभावित
ऐतिहासिक अन्याय की निरंतरता
अतीत की कहानी
1910-1950 के बीच वन विभाग ने बैगा, गोंड और कोरकू समुदायों के साथ OTFD/OBC को मजदूरों के रूप में बसाया। उनके जंगल छीनकर रिजर्व फॉरेस्ट बनाए गए। सिमरधा में 20 परिवारों से शुरू होकर अब 86 परिवार हैं। वन विभाग ने सीमा के बाहर खेती को कभी रोका नहीं।
सुमरिन बैगा सवाल करती हैं, “तब हमारी खेती वैध थी, अब अवैध कैसे?” वे बताती हैं,
“गाँव में कब कौन आकर बसा, कब कौन जन्मा और किसकी मृत्यु हुई, इस सबकी जानकारी वन विभाग का बीट गार्ड रिकॉर्ड रजिस्टर में रखता था। अब वन विभाग वाले हमें अतिक्रमणकारी की नजर से क्यों देखते हैं?”
विशेषज्ञों की राय
डॉ. लेले इस स्थिति को ऐतिहासिक अन्याय और वर्तमान नीतिगत विसंगति के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार,
“वन विभाग का प्रारंभिक मौन समर्थन, जिसने वन ग्रामों के भीतर खेती के विस्तार को प्रभावी रूप से स्वीकार किया, अब इन निवासियों को उनके भूमि अधिकारों से वंचित करने का आधार नहीं बनना चाहिए।”
जमीनी कार्यकर्ताओं की आवाज़
डिंडोरी जिले के कार्यकर्ता पितंबर खैरवार कहते हैं, “सरकार को इस SOP को वापस लेना चाहिए। वनग्राम की वास्तविक स्थिति का अध्ययन कर ग्राम सभा की अनुमति लेकर नया SOP जारी करना चाहिए।”
खैरवार डिंडोरी जिले के वन ग्रामों में जाकर ग्राम सभाओं को इस SOP की खामियों के बारे में जागरूक कर रहे हैं। उन्होंने ग्रामसभाओं से विरोध पत्र भी लिखवाए हैं।
“यदि इस SOP को वापस नहीं लिया गया तो हमें सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करना होगा,” खैरवार चेतावनी देते हैं।
कानूनी विशेषज्ञों का मत
पर्यावरण कार्यकर्ता और एडवोकेट राहुल श्रीवास्तव कहते हैं,
“2001 में वन विभाग द्वारा वन ग्रामों के डी-नोटिफिकेशन का प्रस्ताव, जिसमें सभी प्रकार की ‘वैध’ और ‘अवैध’ खेती वाली भूमि शामिल थी, इस बात का प्रमाण है कि विभाग ने उस समय इन बस्तियों की समग्र वास्तविकता को स्वीकार किया था।”
“यदि तब सभी प्रकार की कृषि भूमि को गैर-अधिसूचित करने का प्रस्ताव था, तो अब वन अधिकार देने में हिचकिचाहट समझ से परे है,” राहुल आगे कहते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता राज कुमार सिन्हा कहते हैं, “यह विरोधाभास वन विभाग के भीतर नीतिगत स्पष्टता की कमी और वनवासी समुदायों के अधिकारों के प्रति उदासीनता को दर्शाता है।”
आगे की राह: मांगें और समाधान
सिमरधा और अन्य वन ग्रामों के निवासी, आदिवासी संगठन और कार्यकर्ता SOP में सुधार की निम्नलिखित मांगें कर रहे हैं:
मुख्य मांगें
- धारा 3(1)(h) के तहत सभी निवासियों को पूरे कब्जे पर अधिकार पत्र
- धारा 3(1)(a) के तहत सीमा के बाहर खेतों को 4 हेक्टेयर तक मान्यता
- वन विभाग के रिकॉर्ड के आधार पर OTFD को मान्यता
- 1980 का बंदोबस्त, 2001 का प्रस्ताव और बीट मैप ग्राम सभा को सौंपे जाएं
- मुफ्त उपग्रह तस्वीरें और GPS प्रशिक्षण
- टास्क फोर्स और ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य
तत्काल आवश्यक कार्रवाई
एक प्रतिनिधि मंडल जल्द ही राज्य सरकार से मिलकर अपनी मांगों का ज्ञापन सौंपने की तैयारी कर रहा है। सिन्हा ने आगे कहा, “इस SOP को तत्काल खारिज कर सरकार को ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए, वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत वनग्रामों में निवासरत सभी पात्र परिवारों को उनका हक देने की दिशा में सक्रिय कदम उठाने चाहिए।”
निष्कर्ष: एक माँ की पुकार से राष्ट्रीय चुनौती तक
सिमरधा में 352.699 हेक्टेयर जमीन और राज्य के अन्य वन ग्रामों में निवासरत हजारों परिवार SOP के परिच्छेदों की गलत व्याख्या और तकनीकी जाल में फंस चुके हैं। 20 साल की कवायद, 2022 की उम्मीद और 2025 का SOP अज्ञानता, उदासीनता और वन विभाग के प्रतिरोध से ठप पड़ा है।
सुमरिन बैगा की कहानी 792 वन ग्रामों का दर्द बयान करती है: “हमने जंगल बसाया, मिट्टी सींची, फिर कागजों में क्यों कैद?”
यह केवल राजस्व ग्राम की तकनीकी समस्या नहीं है। यह आदिवासी और OTFD के हक, आजीविका और विरासत की लड़ाई है। यह उस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का मामला है जो सदियों से चलता आ रहा है।
सुमरिन बैगा बाई की आँखों में तैरता डर तब तक नहीं जाएगा जब तक कि सरकार वन अधिकार अधिनियम की मूल भावना के अनुसार सभी वनवासियों को उनका न्यायसंगत हक नहीं दिलाती। समय की मांग है कि कागजी प्रक्रियाओं की जगह जमीनी वास्तविकताओं को समझा जाए और वनग्रामों को वास्तविक आजादी दिलाई जाए।
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