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    Home » ‘तपस्वियों के राज’ में बलात्कार पीड़िताओं को न्याय क्यों नहीं मिलता?
    भारत

    ‘तपस्वियों के राज’ में बलात्कार पीड़िताओं को न्याय क्यों नहीं मिलता?

    By December 15, 2024No Comments10 Mins Read
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    2021 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान जब प्रियंका गांधी ने “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ” का नारा दिया तब तमाम चुनावी पंडितों और राजनैतिक विश्लेषकों को इसमें कोई खास बात नज़र नहीं आई। उनके विपक्षियों ने इसे चुनावी चाल कही। उन्होंने यह साफ-साफ कहा भी और फैलाया भी कि यह नारा प्रियंका गाँधी की ‘अवसरवादी’ राजनैतिक चाल है, जिससे उन्हें आधी आबादी वोट करे।

    प्रियंका गाँधी ने 40% आरक्षण का वादा किया और 2021 के विधानसभा चुनावों में 40% महिला उम्मीदवारों को चुनाव भी लड़ाया लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं आया। कॉंग्रेस चुनाव बुरी तरह हार गई। यहाँ तक कि कॉंग्रेस अपने पुराने वोट प्रतिशत को भी बरक़रार नहीं रख सकी। शायद लोगों को प्रियंका गाँधी की यह सोच ज़्यादा पसंद नहीं आई जिसमें महिलाओं को राजनैतिक रूप से सशक्त किए जाने का दृष्टिकोण था। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिनमें नेतृत्व क्षमता होती है वो निर्णय लेते समय व्यक्तिगत नफ़ा-नुक़सान नहीं देखते। प्रियंका गांधी के विषय में भी यही सच है। महिलाओं के सशक्तिकरण की जिस विचारधारा को वो यूपी चुनावों में सामने ले आयीं, जिससे तमाम काँग्रेसी नेता भी सहमत नहीं थे, वो उनके लिए कोई चुनावी पासा नहीं बल्कि यह उनकी शानदार राजनैतिक सोच थी। 

    वायनाड, केरल से चुनकर प्रियंका गाँधी अब लोकसभा पहुँच चुकी हैं। यहां ‘भारत के संविधान की 75 वर्षों की गौरवशाली यात्रा’ पर चर्चा चल रही है। इसी को लेकर 13 दिसंबर को लोकसभा में उन्होंने अपना पहला भाषण दिया। अपने लगभग 30 मिनट के भाषण में उनकी शुरुआत भारतीय सभ्यता, यहाँ वाद-विवाद की परंपरा और फिर स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर संविधान के मूल्यों पर बात करते हुए 5 मिनट बाद ही प्रियंका गांधी महिला मुद्दों पर आ गईं। उन्होंने उन्नाव और हाथरस जैसे बलात्कार के मुद्दों पर बात की। उन्होंने बताया कि कैसे उन्नाव की बलात्कार पीड़िता और उसके परिवार का संघर्ष अंततः उसकी मौत के बाद ही रुक सका। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बलात्कारों के मामलों पर उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुखिया कुछ नहीं बोलते, प्रधानमंत्री अक्सर बोलते-बोलते मंचों पर रो देते हैं पर बलात्कारों पर पीएम मोदी को कभी आँसू नहीं आए, वे बलात्कार उन्हें इतने ख़राब नहीं लगे कि मंच पर इस पर बात करते-करते, उनके आँसू निकल आएँ, प्रियंका गाँधी को इन बलात्कारों पर बात करना ज़रूरी लगता है। उन्हें अपने विचारों और विजन पर पुख्ता भरोसा है। 

    महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण इस देश के सबसे ज़रूरी और संवेदनशील मुद्दों में से एक है। इस पर बात इसलिए करनी ज़रूरी है क्योंकि अक्सर सरकार और उसके हिस्से बलात्कार पीड़ित के ज़ख़्मों को बढ़ाने का ही काम करते हैं। उन्नाव बलात्कार का मामला ही ले लीजिए जिस पर प्रियंका गांधी ने 13 दिसंबर को बात की। आपको लग रहा होगा कि यह बीजेपी नेता और विधायक रहे कुलदीप सिंह सेंगर का मामला है। ऐसा नहीं है! कुलदीप सिंह सेंगर का मामला 2017 का है जब तत्कालीन विधायक ने न सिर्फ़ 17 वर्षीय लड़की का बलात्कार किया बल्कि उनके क्षेत्र में उसके पिता को पुलिस के हाथों पुलिस स्टेशन में मौत की नींद सुला दिया गया, उसकी गाड़ी पर ट्रक से हमला किया गया। जिस जिस व्यक्ति ने पीड़ित की मदद की हर उस शख़्स को मारने की कोशिश की गयी। लेकिन योगी सरकार चुप बैठी रही, अंततः न्यायपालिका सामने आई और सेंगर को सजा मिली। लेकिन जिस मामले की बात प्रियंका गाँधी ने की, वह मामला एक अलग ही तस्वीर दिखाता है। यहाँ न्यायपालिका की उदासीनता ने पीड़िता को दर्दनाक मौत देने में मदद की है।

    12 दिसम्बर 2018 की बात है, पीड़िता ने शिवम त्रिवेदी और उसके दोस्त शुभम् त्रिवेदी के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत की। पीड़िता का आरोप था कि उसके गाँव का शिवम त्रिवेदी उसे उठाकर रायबरेली ले गया वहाँ उसने और उसके दोस्त ने मिलकर बंदूक की नोक पर उसके साथ बलात्कार किया। उसका वीडियो बनाया, बार-बार उसका बलात्कार किया गया। इसके बावजूद पुलिस ने FIR दर्ज नहीं की। समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में पुलिस कितनी  संवेदनहीन है! 

    समझा जा सकता है कि संविधान को हटाकर मनुस्मृति का समर्थन करने वाले जब सत्ता में आते हैं तब महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न पर उनकी धार्मिक चेतना कितनी निष्क्रिय रहती है!

    जब थाने से न्याय नहीं मिला तो पीड़िता रायबरेली के पुलिस अधीक्षक के पास अपनी शिकायत लेकर पहुँची, लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि पढ़-लिख कर UPSC पासकर अधिकारी बने इन साहब ने भी कोई एक्शन नहीं लिया। हो सकता है परीक्षा के दौरान महिला सुरक्षा पर बहुत संवेदनशील निबंध लिखे हों लेकिन जब धरातल में काम करने की बारी आई, या तो उनके अंदर का ‘पुरुष’ जाग गया होगा या फिर किसी दबाव में उनकी कायरता ने उन्हें ढक लिया होगा। अंततः पीड़िता जिला न्यायालय पहुँची और तब जाकर इन दोनों त्रिवेदियों के ख़िलाफ़ FIR दर्ज हुई। जबकि ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार मामले,2013 में सुप्रीम कोर्ट यह निर्देश पुलिस को दे चुकी है कि बलात्कार जैसे संगीन मामलों में FIR, सात दिन के अंदर दर्ज की जाय। लेकिन ‘डबल इंजन’ वाला यह उत्तर प्रदेश का नकारा प्रशासन और रीढ़ विहीन नेतृत्व ही है कि आसानी से किसी बलात्कार पीड़िता को न्याय नहीं मिल पाता। लगभग इसी समय 2019 में, हैदराबाद में एक लड़की का बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई थी, और पुलिस ने आरोपियों को दो दिन में ही अरेस्ट कर लिया था। लेकिन तथाकथित तपस्वियों के शासन वाले उत्तर प्रदेश में पीड़िता या तो दर-दर भटकती है या फिर उसे मार दिया जाता है। इस उन्नाव मामले में भी यही हुआ। 4 महीने की मशक्कत और मानसिक प्रताड़ना के बाद FIR दर्ज हुई और गिरफ्तारी के 2 महीने बाद ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जमानत पर दोनों त्रिवेदियों को रिहा कर दिया। 

    जरा सोचकर देखिए कि 12 दिसंबर की शिकायत के पहले महीनों चले बलात्कार, धमकी और उत्पीड़न और उसके बाद FIR दर्ज कराने के लिए 4 महीने के मानसिक उत्पीड़न के बाद आरोपी मात्र 2 महीने बाद ही छोड़ दिए जायें तो क्या होगा पीड़ित निराश होगा और अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे। इस मामले में भी यही हुआ। जेल से रिहा होने के 10 दिन बाद 6 दिसंबर, 2019 को जब पीड़िता अपने घर, उन्नाव जिले, से रायबरेली सुनवाई के लिए जा रही थी तब शिवम त्रिवेदी, उसका पिता राम किशोर त्रिवेदी, शुभम त्रिवेदी, उसका पिता हरिशंकर त्रिवेदी, और उनके एक दोस्त उमेश बाजपेई सभी कायरों ने मिलकर उस पर हमला किया और केरोसिन छिड़ककर आग लगा दी। 95% जली हुई हालत में पीड़िता लगभग एक किमी चली और तब जाकर उसे मदद मिल सकी। लेकिन यह मदद अब किसी काम की नहीं थी। सफ़दरजंग अस्पताल, दिल्ली में उसने दम तोड़ दिया। सेंगर और त्रिवेदियों की इन कहानियों के अलावा भी सैकड़ों कहनियाँ हैं जिन्हें बताने की जरूरत है। 

    यह तो तय है कि सरकार कभी इन कहानियों को नहीं बताएगी। इसके लिए आवश्यक है महिला-केंद्रित राजनैतिक दृष्टिकोण, जिससे महिलाओं के मुद्दों को पुरुषों से खचाखच भरी अदालतें, थाने और संसद कभी दबा न सकें।

    पीएम मोदी की क्या राय

    कितने ताज्जुब की बात है कि जिन्हें संविधान ने सम्मान और शक्ति दोनों प्रदान की है ऐसे पद-प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री-पर रहने वाले लोग भी सिर्फ़ बातें करना जानते हैं। एक्शन के नाम पर भी उनके पास सिर्फ़ बातें ही हैं। 4 महीने पहले 9 अगस्त को कोलकाता के आर जी कर मेडिकल कॉलेज के सेमिनार हाल में एक जूनियर डॉक्टर की लाश मिली थी। डॉक्टर के साथ बलात्कार और अमानवीयता भी हुई थी। विपक्षी दल बीजेपी, जो केंद्र में भी सत्ता में है, ने बहुत ज़ोर-शोर से ‘न्याय’ की माँग की। 6 दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लाल क़िले से भाषण के दौरान कहा, “मैं आज एक बार फिर से लाल किले से अपना दर्द व्यक्त करना चाहता हूं। एक समाज के रूप में हमें महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा – देश में इसके खिलाफ आक्रोश है। मैं इस आक्रोश को महसूस कर सकता हूं। देश, समाज और राज्य सरकारों को इसे गंभीरता से लेना होगा”। 

    ऐसा लगा मानो प्रधानमंत्री सच में दुखी हैं, लगा कि पीड़िता के साथ न्याय होगा लेकिन आज यह पता चला कि केंद्र सरकार के अंतर्गत काम करने वाली सीबीआई इस मामले में निर्धारित 90 दिनों की अवधि के भीतर आरोपियों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करने में विफल रही और इस वजह से सत्र अदालत ने शुक्रवार को आरजी कर अस्पताल के पूर्व प्रधानाचार्य संदीप घोष और ताला पुलिस स्टेशन के पूर्व प्रभारी अधिकारी अभिजीत मंडल को जमानत दे दी। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री की गंभीरता में भाषणबाजी का तत्व अधिक था और महिलाओं को लेकर संवेदना कम अन्यथा वो स्वयं इस मामले की समीक्षा करते, और सीबीआई को समय पर चार्जशीट दाखिल करने को कहा जाता। मुझे नहीं पता क्या सच है जिन्हें गिरफ्तार किया गया वो दोषी हैं या नहीं मुद्दा यह है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामले को लेकर राजनैतिक फ़ायदे लेने से बचना चाहिए। प्रियंका गांधी ने यही संदेश दिया है। महिलाओं का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। सरकार, पुलिस, सभी को कुर्सी और प्रमोशन से परे जाकर काम करना होगा। 

    महिलाओं को लेकर सोच बदलने का नाम नहीं ले रही है। हर 15 मिनट में एक बलात्कार(2018) का होना समाज के रूप में भारत की असफलता ही तो है। बलात्कार को लेकर गंभीरता इसी बात से समझी जा सकती है कि भारत में ऐसे मामलों में सजा मिलने की दर मात्र 27-28% ही है (NCRB,2018-22)। जबकि वैश्विक स्तर पर -ब्रिटेन (लगभग 60%) और कनाडा (लगभग 40%)-स्थितियां कहीं बेहतर हैं। 

    प्रधानमंत्री को सीबीआई से पूछना चाहिए और मुख्यमंत्रियों को अपनी पुलिस से, साथ ही ख़ुद से भी कि आख़िर उनकी जांच एजेंसियों की योग्यता और नीयत क्या है तब शायद पता चल सके कि भारत में बलात्कारियों को सजा मिलने की दर इतनी कम क्यों है

    एक्सपर्ट्स कहते हैं कि बलात्कारों की बढ़ती संख्या और इसे लेकर भय की स्थिति इसलिए नहीं बन पा रही है क्योंकि अपराधियों को लगता है कि वो बलात्कार करके आसानी से बच सकते हैं। उन्नाव मामले में देखा भी गया कि 4 महीने की मशक्कत के बाद और कोर्ट के आदेश के बाद ही FIR दर्ज हो सकी। पुलिस को लगता है कि FIR दर्ज नहीं करने पर भी उन पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। नेतृत्व को लगता है कि हजारों लड़कियों के बलात्कार के बावजूद उनकी सीट पर कोई ख़तरा नहीं है, क्योंकि स्वयं महिलाओं के लिए ही महिलाओं का यौन उत्पीड़न कोई मुद्दा ही नहीं। अगर कोई ख़तरा होता तो बीएसपी प्रमुख मायावती पर अभद्र टिप्पणी करने वाले नेता को बीजेपी मंत्री क्यों बनाती 

    मीडिया की संवेदनशीलता सिर्फ़ उसी सीमा तक है जहाँ तक उसके आकाओं को कोई राजनैतिक नुक़सान न पहुंचता हो। ऐसे में कौन होगा जो महिलाओं के मुद्दे को सड़क से लेकर संसद तक मुखरता से उठाएगा कौन होगा जो वोट और सत्ता के रंगमंच को चुनौती देकर ज़रूरी बात को देश के सामने रखेगा मुझे लगता है कि यह काम प्रियंका गांधी कर रही हैं वो भी यह मानते हुए कि इससे उन्हें या उनकी पार्टी को कोई भी फ़ायदा नहीं होगा। असल में यही तो नेतृत्व है, यही दूरदर्शिता है और यही है जिससे राष्ट्र निर्मित होते हैं, संवेदनाएँ अपने स्थान पर क़ायम रहती हैं और बुराई से आँख से आँख मिलाकर बात की जाती है यदि वास्तव में भारत के संविधान की 75वीं वर्षगाँठ को श्रद्धांजलि देना है तो यह दृष्टिकोण बनाये रखना होगा।

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