राहुल गांधी एक शरीफ इंसान हैं। आख़िर पारिवारिक संस्कार भी कोई चीज होती है। सत्ता की मौजूदा राजनीति में ऐसे लोगों के लिए कम जगहें बची हैं या यूँ कहें कि बची ही नहीं !’गोदी मीडिया’ के दलाल पत्रकार उन्हें जगह नहीं देते इसलिए राहुल ढेर सारे वीडियो बनवाकर सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते हैं। अब उन्हें एक वीडियो बनवाकर नागरिकों (कांग्रेसियों से नहीं) से सुझाव माँगना चाहिए कि कांग्रेस को आगे की लड़ाई कैसे लड़ना चाहिए
लोकसभा के उत्साहजनक परिणामों के बाद और हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के पहले तक यही माना जा रहा था कि राहुल की लड़ाई संविधान, मोदी,अदाणी और ईवीएम को लेकर है और समूचा इंडिया ब्लॉक उनके साथ एकजुट है।
हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी हार के तुरंत बाद साफ़ होने लगा कि राहुल की लड़ाई मोदी-अदाणी-संघ के साथ तो है ही, अपनी ही पार्टी के खुर्राट कांग्रेसियों और इंडिया ब्लॉक के सत्ताभोगी सहयोगियों से भी है। हकीकत यह है कि राहुल कहानी तो ‘एकलव्य’ की सुना रहे हैं पर उनकी ख़ुद की हालत अभिमन्यु जैसी बन रही है।
ममता ने भी इंडिया ब्लॉक को ‘मज़बूत’ करने का बहुत ‘सही’ वक्त चुना वह यह कि यह काम कांग्रेस को कमज़ोर दिखा कर ही संपन्न किया जा सकता है। ममता के हाल के उद्बोधनों का सारांश यही समझा जा सकता है कि मोदी का मुक़ाबला सिर्फ़ वे कर सकती हैं, कांग्रेस नहीं। अतः कांग्रेस की जगह वे इंडिया गठबंधन का नेतृत्व सँभालने के लिए तैयार हैं। शरद पवार से लेकर केजरीवाल तक सभी ‘दीदी’ के पल्ले तले खड़े हो गए हैं। लालू भी राहुल की बारात में शामिल होने का इंतज़ार छोड़ दीदी के मंगलगान में जुट गए हैं।
इंडिया ब्लॉक के कुछ सहयोगियों द्वारा राहुल को हाल तक यही सलाह दी जा रही थी कि वे अदाणी का पीछा छोड़ दें। अब उमर अब्दुल्ला ने सलाह दे डाली है राहुल ईवीएम की लड़ाई भी बंद कर दें। इसके पीछे उनके तर्क वे ही हैं जो भाजपा के हैं। ( अब्दुल्ला को सरकार चलाने के लिए केंद्र की मदद चाहिए, इंडिया ब्लॉक चलाने के लिए राहुल की नहीं ! ) ममता की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी उनके भतीजे भी अब्दुल्ला की ज़ुबान बोल रहे हैं।
उद्धव के सिपाही बाबरी की बरसी छह दिसंबर पर ‘कार सेवकों’ की सार्वजनिक रूप से जय-जयकार कर चुके हैं। प्रतीक्षा करना चाहिए कि राहुल द्वारा छेड़ी गई सावरकर की बहस को शिव सैनिक कब तक हज़म कर पाते हैं ! सपा ने कह दिया है कि वह न तो ‘सोरोस’ मुद्दे के साथ है और न ‘अदाणी’ मुद्दे के साथ।
इंडिया गठबंधन में शामिल दलों की चर्चा करें तो पूछा जा सकता है अब कौन-कौन बचे हैं जो राहुल के साथ खड़े हुए मोदी को दिखाना चाहते हैं ! कांग्रेस के अलावा ब्लॉक के प्रमुख दलों में शरद पवार की एनसीपी, लालू का राजद, ममता की तृणमूल, अखिलेश की सपा, उद्धव की शिव सेना, केजरीवाल की ‘आप’ और फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीक़ों से इंडिया ब्लॉक की ज़रूरत के प्रति इरादे ज़ाहिर कर चुके हैं। राहुल के लिये भरोसे के नेताओं में स्टालिन और हेमंत सोरेन बचते हैं। ब्लॉक के बाक़ी बचे सदस्यों में कम्युनिस्ट और अन्य छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियाँ ही हैं।
यूपी के हाल के उपचुनाव सपा ने बिना कांग्रेस के लड़े थे। हरियाणा के बाद दिल्ली में भी केजरीवाल यही करने वाले हैं। ममता ने न तो लोकसभा में और न विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस से कोई समझौता किया। लालू के तेवर बताते हैं कि बिहार में भी राजद अकेले ही लड़ने की घोषणा कर सकती है।
प्रियंका के लोकसभा में प्रवेश के साथ समझा जा रहा था कि इंडिया ब्लॉक अब मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हमलों के लिए ज़्यादा मज़बूत हो जाएगा पर होता उल्टा दिखाई दे रहा है। इंडिया ब्लॉक के पालने में पूतों के पाँवों की बेचैनियों से यही माना जा सकता है कि गठबंधन के विद्रोही स्वर फूट पड़ने के लिए संसद का सत्र ख़त्म होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या नेतृत्व के सवाल पर इंडिया ब्लॉक टूट जाएगा या राहुल कांग्रेस को उससे आज़ाद करके आगे की लड़ाई अकेले लड़ेंगे मोदी-अदाणी के ख़िलाफ़ राहुल लड़ाई में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों की सत्ता-समृद्धि के लिए वे न तो अदाणी को छोड़ सकते हैं और न ईवीएम और संविधान को।अनुमान ही लगाया जा सकता है कि इंडिया गठबंधन के भविष्य को लेकर नीतीश कुमार इस समय क्या सोच रहे होंगे!