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    Home » Khilji Vansh Ka Patan : कैसे गुजरात का एक लड़का बना खिलजी वंश के पतन का कारण, आइये जानते है
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    Khilji Vansh Ka Patan : कैसे गुजरात का एक लड़का बना खिलजी वंश के पतन का कारण, आइये जानते है

    By March 5, 2025No Comments9 Mins Read
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    Khilji Vansh Ka Patan Ka Karan Khusrau Khan Untold Story 

    Khilji Vansh Ka Patan Ka Karan Khusrau Khan Untold Story 

    History Of Khilji Dynasty: दिल्ली सल्तनत के इतिहास में खिलजी वंश (1290-1320 ई.) का शासनकाल सत्ता के लिए रक्तपात, साम्राज्यवादी विस्तार और आंतरिक षड्यंत्रों की कहानियों से भरा पड़ा है। इस वंश के अंतिम शासक कुतुबुद्दीन मुबारक शाह के पतन में गुजरात के एक दास-जनित सैन्य अधिकारी ख़ुसरौ ख़ान की भूमिका ने निर्णायक मोड़ लिया। यह घटना न केवल खिलजी वंश के अंत का प्रतीक बनी बल्कि इसने भारतीय मध्यकालीन इतिहास में सत्ता परिवर्तन के नए समीकरणों को भी जन्म दिया।

    खिलजी वंश का उदय और पतन का संदर्भ

    अलाउद्दीन खिलजी का साम्राज्यवादी विस्तार

    खिलजी वंश(Khilji Dynasty) की स्थापना जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में की थी, परंतु इस वंश की वास्तविक शक्ति का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी(Allauddin Khilji -1296-1316 ई.) के काल में हुआ। चाचा जलालुद्दीन की हत्या कर सत्ता हथियाने वाले अलाउद्दीन ने अपने 20 वर्षीय शासनकाल में दक्कन के हिंदू राज्यों पर विजय पाकर सल्तनत का विस्तार किया। उन्होंने मंगोल आक्रमणों को रोकने से लेकर प्रशासनिक सुधारों तक कई उल्लेखनीय कार्य किए, परंतु अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद सल्तनत में अराजकता का दौर शुरू हो गया।

    अलाउद्दीन खिलजी का शासन और उपलब्धियाँ

    अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं, जिनमें साम्राज्य का विस्तार, मंगोल आक्रमणों का प्रतिरोध, प्रशासनिक सुधार और सैन्य संरचना को सुदृढ़ बनाना शामिल है। उन्होंने दक्कन के हिंदू राज्यों जैसे देवगिरि, वारंगल, द्वारसमुद्र और मदुरै पर विजय प्राप्त कर सल्तनत का विस्तार किया। इसके अलावा, गुजरात और राजस्थान के कई महत्वपूर्ण किलों पर कब्जा कर अपनी शक्ति को और मजबूत किया।

    मंगोल आक्रमणों के लगातार खतरे को देखते हुए, अलाउद्दीन ने अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाया और मंगोलों के कई आक्रमणों को नाकाम कर उत्तरी भारत को सुरक्षित किया। उनकी कुशल रणनीतियों और मजबूत किलेबंदी ने मंगोलों को भारत में स्थायी रूप से बसने से रोक दिया।

    प्रशासनिक सुधारों की बात करें तो उन्होंने कठोर कर प्रणाली लागू की, जिससे जमींदारों की शक्ति सीमित हो गई और आम जनता पर करों का नियमन हुआ। इसके अलावा, उन्होंने बाजार नियंत्रण प्रणाली (Price Control System) शुरू की, जिससे खाद्य पदार्थों की कीमतें स्थिर रहीं और जनता को महँगाई से राहत मिली। यह उनकी सबसे अनूठी और प्रभावी नीतियों में से एक थी। सैन्य सुधारों के तहत उन्होंने एक स्थायी सेना की स्थापना की और सैनिकों के वेतन में सुधार किया।

    उत्तराधिकार संकट और मुबारक शाह का उदय

    1316 ई में अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद उनके बेटे शिहाबुद्दीन उमर (Shihabuddin Umar) को सिंहासन मिला, परंतु वास्तविक सत्ता सेनापति मलिक काफूर के हाथों में आ गई। मलिक काफूर ने शिहाबुद्दीन और अन्य राजकुमारों को अंधा करवा दिया, परंतु स्वयं भी षड्यंत्र का शिकार हो गया। इस अराजकता के बीच अलाउद्दीन का दूसरा पुत्र मुबारक शाह 1316 ई. में सत्ता पर काबिज हुआ। उसने अपने भाई शिहाबुद्दीन को अंधा करवाकर सिंहासन सुरक्षित किया, जो खिलजी वंश के पतन का मुख्य कारण साबित हुआ।

    मुबारक शाह का विलासितापूर्ण शासन

    युवा सुल्तान का चरित्र चित्रण

    इतिहासकारों के अनुसार मुबारक शाह का शासनकाल अय्याशी और अहंकार से भरा था। सत्ता में आते ही उसने अपने पिता अलाउद्दीन के कड़े प्रशासनिक नियमों को ठुकरा दिया। दरबारियों की सलाह को नज़रअंदाज़ करते हुए उसने राजकोष को व्यक्तिगत विलासिता पर उड़ाना शुरू कर दिया। इस दौरान उसने अपने हरम में सैकड़ों महिलाओं को जमा किया और नित्य नए उत्सवों का आयोजन करवाया।

    सत्तारोहण और प्रारंभिक नीतियाँ

    1316 ई. में सिंहासन पर बैठते ही मुबारक शाह ने अपने पिता अलाउद्दीन खिलजी की नीतियों को उलटना शुरू कर दिया। उसने अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण व्यवस्था को समाप्त कर दिया, जिससे वस्तुओं के मूल्य तेजी से बढ़ने लगे। इसके साथ ही गुप्तचर विभाग के कठोर अनुशासन को ढीला छोड़ दिया गया, जिससे प्रशासनिक निगरानी का ढाँचा ध्वस्त हो गया। उसने 17-18 हज़ार कैदियों को मुक्त करवाया और सैनिकों को छह महीने का अग्रिम वेतन देकर उनका समर्थन हासिल किया।

    सैन्य संरचना में अव्यवस्था

    मुबारक शाह ने सेना के पुराने अधिकारियों को हटाकर नए लोगों को पद दिए, जिससे सैन्य अनुशासन बिगड़ने लगा। इस नीति ने दरबार में असंतोष फैला दिया, विशेषकर उन वरिष्ठ सरदारों में जो अलाउद्दीन के समय से सेवा दे रहे थे। यही वह समय था जब ख़ुसरौ ख़ान नामक एक युवा सैनिक धीरे-धीरे सत्ता के केंद्र में पहुँचने लगा।

    आर्थिक नीतियों का विपरीत प्रभाव

    मुबारक शाह ने अमीरों और सैन्य अधिकारियों के वेतन में भारी वृद्धि की, जिससे सल्तनत का आर्थिक संतुलन बिगड़ गया। सरदारों की जागीरें वापस करने और सैय्यदों-उलेमाओं को बढ़े हुए अनुदान देने की नीति ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के अनुसार, मुल्तान के व्यापारियों ने अलाउद्दीन की मृत्यु पर खुलकर मुनाफाखोरी की, जिससे आम जनता को महँगाई का सामना करना पड़ा। नौकरों का वार्षिक वेतन 10-12 टंके से बढ़कर 100 टंका(टंका मध्यकालीन भारत और बंगाल की ऐतिहासिक मुद्रा थी) हो गया, जिससे प्रशासनिक व्यय असंतुलित हो गया।

    व्यक्तिगत विलासिता और नैतिक पतन

    मुबारक शाह का दरबार भोग-विलास का केंद्र बन गया। उसने युवा लड़कों और खूबसूरत दासियों को महँगे दामों पर खरीदकर अपने हरम में जमा किया, जिनकी कीमत 500 से 2000 टंका तक थी। बरनी के वर्णनानुसार, वह नशे की हालत में नग्न अवस्था में दरबार में घूमता था और कभी-कभी स्त्रियों के वस्त्र पहनकर भी प्रकट होता था। फरिश्ता के अनुसार, मुबारक शाह महल की छतों पर वेश्याओं को नग्न अवस्था में घुमाता था और दरबारियों पर उनसे पेशाब करवाने जैसे अमानवीय कृत्य करता था।

    धार्मिक एवं सांस्कृतिक नीतियों में परिवर्तन

    सुल्तान ने स्वयं को खलीफा घोषित कर अल-इमाम उल-वासिक बिल्लाह की उपाधि धारण की, जो दिल्ली सल्तनत के इतिहास में एक नवीनता थी। हालाँकि, उसने सूफी संत निजामुद्दीन औलिया का अभिवादन स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिससे धार्मिक वर्ग में असंतोष पैदा हुआ। शराब बिक्री पर नरमी और नशीले पदार्थों के प्रतिबंध को जारी रखने की उसकी द्वंद्वात्मक नीति ने समाज में नैतिक अराजकता फैलाई।

    ख़ुसरौ ख़ान का उदय और षड्यंत्र

    गुजरात से दिल्ली तक का सफर

    ख़ुसरौ ख़ान के प्रारंभिक जीवन के बारे में विवरण स्पष्ट नहीं हैं, परंतु ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं कि वह गुजरात के हिंदू परिवार में जन्मा था। बचपन में ही उसे मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बंदी बना लिया और दास के रूप में बेच दिया गया। दिल्ली पहुँचने पर वह मुबारक शाह के निजी दरबार में शामिल हो गया। उसकी योग्यता और चापलूसी ने शीघ्र ही सुल्तान का विश्वास जीत लिया।

    ख़ुसरौ ख़ान का उदय और विश्वासघात

    सुल्तान मुबारक शाह ने अपने शासनकाल में नासिरुद्दीन ख़ुसरौ ख़ान (Nasiruddin Khusrau Khan), जो एक धर्मांतरित हिंदू था, को अपना वजीर नियुक्त किया। ख़ुसरौ ख़ान ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए सत्ता पर कब्जा करने की गुप्त योजना बनाई। वह दक्षिण भारत में देवगिरी और वारंगल के विजय अभियानों से लौटने के बाद अपने प्रभाव को बढ़ाने में जुट गया। हालांकि, मुबारक शाह को उसके षड्यंत्र की भनक लग गई थी, लेकिन इसके बावजूद उसने ख़ुसरौ ख़ान का समर्थन जारी रखा।

    उसने पहले खुद को सुल्तान के निजी अंगरक्षक दल का प्रमुख बनवा लिया और इस पद का उपयोग करते हुए सेना और प्रशासन में अपने वफादार समर्थकों की एक टोली तैयार कर ली। किंवदंतियों के अनुसार, उसने मुबारक शाह को यह विश्वास दिला दिया था कि वह उसका सबसे निष्ठावान सेवक है, जबकि पर्दे के पीछे वह सत्ता पर कब्जा करने की साजिश रच रहा था।

    रात्रिकालीन आक्रमण और सुल्तान की हत्या

    1320 ई. के प्रारंभ में ख़ुसरौ ख़ान ने अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ मिलकर तख्तापलट की योजना बनाई। उसने राजमहल के अंदरूनी हिस्सों तक पहुँच बनाने के लिए रसोईघर और अन्य सेवाकर्मियों को अपने पक्ष में कर लिया। इस दौरान मुबारक शाह अपनी विलासिता में इतना डूबा हुआ था कि उसे इस षड्यंत्र का आभास तक नहीं हुआ।

    निर्णायक रात का घटनाक्रम

    एक अंधेरी रात को जब सुल्तान महल में अपने क्षयन कक्ष में सो रहा था तब ख़ुसरौ ख़ान ने अपने साथियों के साथ महल पर हमला बोल दिया। उन्होंने पहले महल के प्रहरियों को चुपके से मार डाला, फिर सुल्तान के शयनकक्ष तक पहुँच गए। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के अनुसार मुबारक शाह ने अपने अंतिम क्षणों में खुसरो से दया की भीख माँगी, परंतु उसने निर्दयतापूर्वक उसका सिर धड़ से अलग करते हुए उसकी हत्या कर दी।

    हत्या का कारण

    कुतुब-उद-दीन मुबारक शाह और ख़ुसरौ ख़ान के बीच एक जटिल और विवादास्पद संबंध था, जो केवल राजनीतिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत भी था। मुबारक शाह ने ख़ुसरौ ख़ान को अपना प्रिय बनाया था और उसे अपने दरबार में उच्च पद दिया था। यह संबंध इतना गहरा था कि कुछ इतिहासकार इसे प्रेम संबंध के रूप में भी देखते हैं।

    कहा जाता है कि ख़ुसरौ ख़ान को मुबारक शाह के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ हमबिस्तर होना पड़ता था। यह स्थिति ख़ुसरौ ख़ान के लिए बहुत कठिन थी, क्योंकि वह इस संबंध को मजबूरी के रूप में देखता था। इस मजबूरी ने ख़ुसरौ ख़ान के मन में बदले की आग भड़का दी थी। वह मुबारक शाह के प्रति अपनी निष्ठा बदलने लगा और उसके खिलाफ विद्रोह की योजना बनाने लगा।

    ख़ुसरौ ख़ान ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर एक साजिश रची और 1320 में मुबारक शाह की हत्या कर दी। इस हत्या के पीछे न केवल राजनीतिक कारण थे, बल्कि व्यक्तिगत बदले की भावना भी एक महत्वपूर्ण कारक थी।

    तख्तापलट के बाद की स्थिति

    ख़ुसरौ ख़ान का अल्पकालीन शासन

    सुल्तान की हत्या के बाद ख़ुसरौ ख़ान ने स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया। परंतु उसका शासन मात्र कुछ महीनों तक ही टिक सका। तुगलक वंश के संस्थापक ग़यासुद्दीन तुगलक ने एक सैन्य अभियान के तहत दिल्ली पर हमला करके ख़ुसरौ ख़ान को पराजित किया। इस प्रकार खिलजी वंश के पतन के साथ ही दिल्ली सल्तनत में एक नए राजवंश का उदय हुआ।

    ऐतिहासिक प्रभाव और निष्कर्ष

    खिलजी वंश के पतन की यह घटना मध्यकालीन भारतीय इतिहास में कई महत्वपूर्ण सबक छोड़ गई। यह दर्शाता है कि किस प्रकार आंतरिक षड्यंत्र और शासक की अयोग्यता एक शक्तिशाली साम्राज्य को नष्ट कर सकती है। ख़ुसरौ ख़ान की कहानी सत्ता के लालच और विश्वासघात की चरम सीमा को दर्शाती है, जबकि मुबारक शाह का चरित्र शासन में व्यक्तिगत दायित्वों की उपेक्षा के खतरों को उजागर करता है। यह अध्याय न केवल एक वंश के अंत की गाथा है बल्कि मध्यकालीन राजनीति की जटिलताओं को समझने का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है ।

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