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    Home » नागा साधुओं की रहस्यमयी धरोहर! जहां से कोई लौटकर नहीं आया, क्या है पगारा की बावड़ी?
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    नागा साधुओं की रहस्यमयी धरोहर! जहां से कोई लौटकर नहीं आया, क्या है पगारा की बावड़ी?

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 13, 2025No Comments5 Mins Read
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    Pagara Ki Bawdi (Image Credit-Social Media)

    Pagara Ki Bawdi (Image Credit-Social Media)

    Pagara Ki Bawdi: ‘जल ही जीवन है’ यह कहावत जितनी साधारण लगती है लेकिन ये उतनी ही गहरी और अर्थपूर्ण भी है। क्योंकि इस धरती पर बिना जल जीवन संभव ही नहीं है। फिर चाहे वो इंसान हो या जीव जंतु हों या फिर प्रकृति हो। इन सभी के जीवन का आधार जल ही है। यही वजह है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ जल के प्राकृतिक और मानव निर्मित विभिन्न स्रोतों की भी खोज तेजी से की गई। जिसमें झील, तालाब, नदियों जैसे प्राकृतिक साधनों के अलावा पोखर, कुआं, नहर, बावड़ी जैसे मानव निर्मित जल स्रोतों का नाम शामिल है। भारत के इतिहास में जल संरक्षण की तकनीकों को लेकर जो परंपराएं रहीं हैं, उनमें बावड़ियों का विशेष स्थान रहा है। यह सिर्फ जल संग्रहण का साधन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की भी अमूल्य निशानी हैं। मध्य प्रदेश के सागर जिले की ‘पगारा की बावड़ी’ एक ऐसा ही चमत्कारी और रहस्यमयी स्थल है। जिसे न केवल इसके स्थापत्य सौंदर्य के लिए जाना जाता है, बल्कि इसके रहस्यों के लिए भी। आइए, इस ऐतिहासिक धरोहर के बारे में जानते हैं विस्तार से –

    पगारा की बावड़ी का ऐतिहासिक महत्व

    सागर शहर से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पगारा गांव में यह अद्भुत बावड़ी स्थित है। इसे ‘बाबा की बावड़ी’ भी कहा जाता है। जनश्रुति के अनुसार, इसका निर्माण आज से करीब 1000 वर्ष पूर्व नागा साधुओं द्वारा कराया गया था। उस समय यह स्थान न केवल एक जलस्रोत था, बल्कि एक तपस्थली के रूप में भी स्थापित था। इस बावड़ी की खूबी है कि इसमें 52 कोठरियां बनी हुई हैं, जिन्हें स्थानीय लोग भूलभुलैया कहते हैं।

    रहस्यमई है इन कोठरियों की विशेष बनावट

    बावड़ी की 52 कोठरियां अपने आप में एक रहस्य हैं। ग्रामीणों का मानना है कि कोई भी व्यक्ति जो इस भूलभुलैया में गया, वह फिर कभी लौट कर नहीं आया। इसी डर के कारण पहले इन कोठरियों के दरवाजों को बंद कर दिया गया। लगभग 25 वर्ष पूर्व जब इस बावड़ी का जीर्णोद्धार किया गया, तब वे पुराने निशान भी मिट गए।

    कई कहानियों में यह भी कहा गया है कि कोठरियों के भीतर गुप्त सुरंगें हैं, जो दूरस्थ स्थानों तक जाती हैं । कोई काशी, कोई गया तो कोई इलाहाबाद तक। हालांकि, इसकी पुष्टि अब तक किसी पुरातत्विक अध्ययन में नहीं हो सकी है।

    नागा साधुओं का रहस्य और हाथियों का दरवाजा

    कहते हैं कि इस बावड़ी में वर्षों तक नागा संन्यासी तपस्या किया करते थे। उनके साथ हाथी, गाय और अन्य जानवर रहते थे। इतिहास में बहुत कम ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जहां हाथियों की सुविधा के लिए वास्तुकला की योजना बनाई गई हो, लेकिन पगारा की बावड़ी एक अपवाद है।

    यहां एक विशेष ‘हाथी दरवाजा’ मौजूद है, जिससे हाथी आसानी से बावड़ी में उतरकर पानी पी सकते थे। यह दर्शाता है कि उस युग में न केवल मानव के लिए, बल्कि पशुओं के लिए भी जल स्रोतों को समान रूप से महत्वपूर्ण माना गया।

    आज की स्थिति- गुमनाम होती धरोहर, बढ़ता अतिक्रमण

    आज यह ऐतिहासिक धरोहर गुमनामी और उपेक्षा का शिकार हो चुकी है। पगारा गांव के आसपास औद्योगिक विस्तार हो रहा है। फैक्ट्रियां, गोदाम, प्लॉटिंग ने इस ऐतिहासिक परिसर को चारों तरफ से घेर लिया है। इस बावड़ी के आसपास अब अवैध कब्जों का दौर शुरू हो गया है। स्थानीय लोग लगातार प्रशासन से संरक्षण की मांग कर रहे हैं। बावड़ी में आज भी पानी मौजूद है, लेकिन गंदगी, कूड़ा-कचरा और बदहाल सफाई व्यवस्था के चलते वहां न तो कोई जाता है और न ही पानी का उपयोग करता है। यदि समय रहते यह स्थल सुरक्षित नहीं किया गया, तो हम एक अद्भुत ऐतिहासिक धरोहर को हमेशा के लिए खो देंगे।

    भारत में बावड़ियों की परंपरा- जल संरक्षण की प्राचीन कला

    भारत में बावड़ियां केवल जल संग्रहण का साधन नहीं बल्कि ये सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र भी रहीं हैं। मध्यकाल में जब मानसून अनिश्चित था, तब राजाओं, व्यापारियों और संतों ने बावड़ियों, कुंडों और जलाशयों का निर्माण कराया ताकि जल संकट से निपटा जा सके। राजस्थान की चंद्र बावड़ी, गुजरात की रानी की वाव, दिल्ली की अग्रसेन की बावड़ी और मध्य प्रदेश की ही उदयपुर की बावड़ी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन सभी में स्थापत्य, विज्ञान और धार्मिकता का अनोखा संगम देखने को मिलता है।

    संरक्षण की आवश्यकता- सिर्फ इतिहास नहीं, भविष्य का जल समाधान भी

    आज जब पूरा देश जल संकट की ओर बढ़ रहा है, तब इन प्राचीन बावड़ियों का संरक्षण केवल सांस्कृतिक जिम्मेदारी नहीं बल्कि पर्यावरणीय समाधान भी है। बावड़ियां रीचार्ज वेल्स की तरह काम करती हैं। ये भूमिगत जलस्तर को बनाए रखती हैं और स्थानीय जलवायु को संतुलित करती हैं। पगारा की बावड़ी जैसे स्थल न केवल पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सशक्त बना सकते हैं। यदि इसे एक पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जाए तो इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि सांस्कृतिक चेतना भी पुनर्जीवित है।

     

    संविधान का अनुच्छेद 51A(f) प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा करता है कि वह देश की विरासत को सुरक्षित रखे। साथ ही, यूनेस्को की विश्व धरोहर संरक्षण संधि (1972) के अनुसार, प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को अपनी सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा सुनिश्चित करनी होती है।

    अगर इस बावड़ी को बचाने में सरकार, स्थानीय प्रशासन और समाज विफल होते हैं। तो यह न केवल सांस्कृतिक क्षति होगी, बल्कि यह लोगों के पारंपरिक जल अधिकार और स्थानीय समुदायों की पहचान पर भी कुठाराघात होगा। ग्रामीणों का प्रशासन से एक लंबे समय से निवेदन किया जा रह है कि, ‘इस बावड़ी को बचाइए, इसे पर्यटन स्थल बनाइए। इसे साफ कीजिए, इसे जीवित रखिए।’ प्रशासनिक स्तर पर इस धरोहर को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया जाना चाहिए। लोग आज भी इस बावड़ी को आदर और भय दोनों की नजर से देखते हैं। यहां अब भी साधु-संत समय-समय पर आते हैं, जिससे इसकी आध्यात्मिक गरिमा आज भी जीवित है। 

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