इस सप्ताह बानू मुश्ताक की किताब ‘हार्ट लैंप: सेलेक्टेड स्टोरीज़’ ने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया। बानू मुश्ताक की यह किताब 12 कहानियों का संग्रह है, जिन्हें मूल रूप से कन्नड़ में लिखा गया है, यह कहानी संग्रह 1990-2023 के बीच लिखा गया है। अंग्रेजी में इस किताब का अनुवाद दीपा भास्थी द्वारा किया गया है। यह पहला कन्नड़ और पहला लघु कहानी संग्रह है जिसने 2025 में इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ जीता। इंटरनेशनल बुकर प्राइज, ‘मैन बुकर प्राइज’(2005-2015) का उत्तराधिकारी पुरस्कार है। बानू मुश्ताक की हार्ट लैंप की कहानियाँ दक्षिण भारत की मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों के जीवन, पितृसत्ता, लैंगिक असमानता, खुद पर विश्वास और खुद की सहनशक्ति पर केंद्रित हैं। इनमें कहीं कहीं उत्पीड़न के साथ चलने वाला सूक्ष्म हास्य और पीड़ा को उकेरती भावनात्मक गहराई भी मिलती है।
बानू की शादी 26 साल की उम्र में हुई और उसके एक साल बाद उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई। लेकिन इसके बाद उनके जीवन में कुछ अच्छा नहीं हुआ। शादी भले ही उन्होंने अपनी पसंद से की थी लेकिन शादी के बाद का जीवन उनके लिए पीड़ा बनकर ही उभरा।
एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बानू मुश्ताक ने कहा कि वो हमेशा से लिखना चाहती थीं, लेकिन पहले प्रेम विवाह और उसके बाद की बदली हुई दुनिया ने उन्हें बुर्का और घर की चारदीवारी में समेट दिया, वो घरेलू जीवन में ही ख़ुद को समर्पित करने को मजबूर हो गईं। बानू की रचनात्मक क्षमता जब परवान नहीं चढ़ सकी तो उसका परिणाम यह हुआ कि 29 साल की उम्र में वो माँ बन गईं और प्रसव उपरांत डिप्रेशन का शिकार हो गईं।
उनके जीवन में एक वक्त ऐसा आया कि वो आत्महत्या करने की कोशिश करने लगीं, पर बानू मुश्ताक के भीतर के साहित्य ने उन्हें इतना टूटने नहीं दिया। वो सहती रहीं, मज़बूत बनी रहीं और लिखती रहीं। उनका कहना है कि “यह किताब इस विश्वास से जन्मी है कि कोई भी कहानी कभी छोटी नहीं होती। साथ ही यह भी कि मानवीय अनुभवों की बुनावट में हर एक धागा पूरे कपड़े का भार उठाए होता है”। बानू मुश्ताक की केंद्रीय परिस्थितियाँ पीड़ा, उत्पीड़न और हताशा से लिपटी हुई थी लेकिन उन्होंने इसे अपने व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने दिया। इसकी ताक़त मिली उन्हें साहित्य से। बानू कहती हैं कि “एक ऐसी दुनिया में, जो अक्सर हमें बाँटने की कोशिश करती है, साहित्य उन अंतिम पवित्र स्थानों में से एक है जहाँ हम एक-दूसरे के मन के भीतर रह सकते हैं – भले ही कुछ पन्नों के लिए ही सही”।
एक पत्रिका के साथ बात-चीत में उन्होंने कहा कि “मैंने हमेशा धर्म से जुड़ी पुरुषवादी व्याख्याओं को चुनौती दी है। ये मुद्दे आज भी मेरी लेखनी के केंद्र में हैं। समाज भले ही बहुत बदल गया हो, लेकिन मूल समस्याएँ आज भी जस की तस हैं। संदर्भ बदलते रहते हैं, लेकिन महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के मूल संघर्ष अब भी जारी हैं”।
यह बात साफ़ है कि बानू मुश्ताक़ ने अपने तरीके से यह लड़ाई लड़ी और एक मुकाम पा लिया। उनका संघर्ष बहुतों को प्रेरणा देगा लेकिन जबतक इन ‘मूल संघर्षों’ को ख़त्म नहीं किया जाता किसी व्यापक बदलाव की उम्मीद करना बेकार है। जब सेना जैसे धर्मनिरपेक्ष संस्थान में पहुँचकर कर्नल सोफिया क़ुरैशी को संघर्ष करना पड़ रहा है तो सामान्य जीवन जीने वाली साधारण मुस्लिम महिलाओं की चुनौतियों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। माहौल यह है कि इस ऐतिहासिक क्षण में जब पूरा देश बानू मुश्ताक की सराहना कर रहा है,तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक सामान्य शुभकामना संदेश तक नहीं आया (लेख लिखने तक)। एक तो महिला, उस पर मुस्लिम और इसके अलावा उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरस्कार मिला। क्या यह तीनों ऐसी बातें हैं जो भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को ‘सूट’ नहीं करतीं?
भारत में मुस्लिम महिलाओं की स्थितियां ठीक नहीं हैं। मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 68.5% है जोकि राष्ट्रीय औसत (77.7%) से कम है। शहरी भारत में 59.5% मुस्लिम महिलाएं निरक्षर हैं, जो हिंदू महिलाओं (42.2%) और ईसाई महिलाओं (22.7%) से काफी अधिक है। उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी और भी कम है, जो आर्थिक अवसरों को सीमित करती है।
वैसे तो भारत में कुल महिलाओं की कार्यबल भागीदारी बहुत कम है (27%) लेकिन मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और भी ख़राब है (15%)। अधिकांश मुस्लिम महिलाएँ असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं, जैसे बीड़ी रोलिंग, सिलाई, और छोटे पैमाने के हस्तशिल्प, जहां आय कम और रोजगार की सुरक्षा न के बराबर है। 2022 में ‘लेड बाय’ के एक अध्ययन में पाया गया कि मुस्लिम महिलाएँ सामाजिक-आर्थिक बाधाओं और इस्लामोफोबिया के कारण औपचारिक रोजगार में कम प्रतिनिधित्व कर पाती हैं। इस रिसर्च प्रोजेक्ट ने दिखाया कि मुस्लिम महिलाओं (हबीबा अली के नाम से रिज्यूमे) को हिंदू महिलाओं (प्रियंका शर्मा) की तुलना में नौकरी के लिए आधे कॉल-बैक (47.1% भेदभाव दर) मिले, खासकर हिजाब पहनने वाली महिलाओं को।
अलबत्ता इसके बढ़ने और विस्तार देने के लिए उचित परिस्थितियाँ बनाई गईं। भूलना नहीं चाहिए कि किस तरह पीएम मोदी ने 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों और घुसपैठियों के बीच के अन्तर को समाप्त कर दिया था, कैसे उन्होंने भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भाषण को ग़लत तरीक़े से पेश किया। जब सोफिया क़ुरैशी पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की जा रही थीं तो इस मामले में उन्होंने ख़ुद आगे बढ़कर एक ट्वीट तक नहीं किया। अगर वो ऐसा करते तो देश में एक संदेश जाता कि भारत का प्रधानमंत्री धर्म और लैंगिक पहचान से ऊपर है और वो इस भेदभाव को बर्दाश्त नहीं करेगा। लगभग सभी ‘राजनैतिक विश्लेषक’ कहते हैं कि पीएम मोदी सब कुछ सोच समझकर और नफ़ा नुक़सान का आकलन करके करते हैं। तो क्या यह समझा जाए कि यह सब उन्होंने सोच समझकर ही किया होगा? न उन्होंने बानू मुश्ताक़ को शुभकामना दी और न ही कर्नल सोफ़िया पर धार्मिक और लैंगिक आक्रमण पर कुछ बोला?
बीजेपी और आरएसएस पूरे देश में यह भ्रम फैलाने में लगी है कि मुसलमानों की तो चार-चार पत्नियाँ होती हैं इसलिए उन्हें समान नागरिक संहिता चाहिए। जबकि तथ्य यह है कि केवल 1.9% मुस्लिम महिलाओं के पति के पास एक से अधिक पत्नियां हैं। मैं मानती हूँ कि यह भी एक समस्या है और अगर एक भी महिला नहीं चाहती कि उसके साथ ऐसा हो तो क़ानून को उसके साथ खड़ा होना चाहिए लेकिन यदि इसे इस्लामोफोबिया का औज़ार बनाया जाता है तो मेरी असहमति है।
तीन तलाक वाक़ई एक अपराध है, इसे किसी भी सभ्य समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन जिस तरह ‘बुल्ली बाई’ और ‘सुल्ली डील’ जैसी वेबसाइट्स चलाने वालों को संरक्षण प्राप्त होता है, क्या यह मुस्लिम महिलाओं के साथ कोई न्याय करने वाली बात है? क्या यह किसी भी समाज के लिए गंदी बीमारी नहीं है? कॉर्पोरेट क्षेत्र में मुस्लिम महिलाएँ इस्लामोफोबिक टिप्पणियों और भेदभाव का सामना करती हैं। यदि सरकार मुस्लिम महिलाओं के प्रति सच में संवेदनशील है, जैसा कि वो दावा करती है तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मुस्लिम महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व बढ़े। 18वीं लोकसभा (2024) में मात्र 2 महिलाएँ हैं, मतलब, सिर्फ़ 0.37% महिलाएं! यह संख्या अब 17वीं लोकसभा के 0.7% से भी कम हो गई है। मुस्लिम महिलाओं की बात रखने के लिये इन दिनों दक्षिणपंथी हिंदू नेता सामने आते रहते हैं। यह बिल्कुल ठीक नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के मूल संघर्षों को सामने रखने के लिए मुस्लिम महिलाओं की एक उचित संख्या निम्न सदन में होना जरूरी है।
कुछ बातें कभी सामने नहीं आ पातीं, कुछ घटनाओं के परिणाम कई पीढ़ियाँ भुगतती हैं। गुजरात दंगा भी एक ऐसी ही घटना है। तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशासनिक असफलताओं का स्मारक बन चुका गुजरात दंगा, वहाँ की महिलाओं के लिए एक विशेष चुनौती लेकर आया। 2023 के एक अध्ययन (‘The Effects of Communal Violence on Women’s Marital Outcomes’; देवकी घोष, दिव्या पांडे) में पाया गया कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद मुस्लिम महिलाओं की शादी की उम्र कम हो गई, और 18 वर्ष से पहले विवाह की संभावना बढ़ गई, जिसने उनकी शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया। क्या ऐसा होना कोई समान्य बात है? यह सामान्य बात नहीं है क्योंकि किसी दंगे के बाद यदि 18 साल से पहले किसी समुदाय की तमाम लड़कियों के विवाह का चलन चल रहा है तो ऐसी रूढ़ियों के नीचे मुस्लिम महिलाओं की कई पीढ़ियाँ सिसक सिसककर दम तोड़ रही होंगी, जिसे आज़ादी के बाद बड़ी मुश्किल से दशकों के प्रयासों के बाद कमजोर किया गया था।
महिलाओं के मूल संघर्ष जिनकी बात बानू मुश्ताक कर रही हैं उन्हें संबोधित करना जरूरी है। यह सही है कि मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ कोई आधिकारिक सरकारी नीति नहीं है, और जब तक संविधान है ऐसा किया भी नहीं जा सकता। संविधान है इसलिए कल्याणकारी योजनाओं में सामान्यतया कोई विभेद नहीं किया जाता है, लेकिन यदि मामला हिंदू तुष्टिकरण का हो तो उन 11 राक्षसों को भी रिहा किया जा सकता है जिन्होंने गुजरात दंगों के दौरान 5 महीने की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया, उसकी 3 साल की बच्ची सहित परिवार के 7 लोगों की हत्या कर दी गई थी। रिहा करने का यह पाशविक काम गुजरात की बीजेपी सरकार ने 1992 की एक नीति का फ़ायदा उठाकर किया था। हालांकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार के फैसले को औंधे मुँह पटक दिया। लेकिन यह तथ्य इतिहास में तो दर्ज हो गया है कि राजनैतिक फायदे के लिए बीजेपी की सरकारें अमानवीयता को भी सरकारी नीति का कपड़ा पहना सकती हैं। इनसे बचने का एकमात्र तरीका है कि मुस्लिम महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व बढ़े जिससे वो अपने मुद्दे भारत की संसद के माध्यम से पूरे देश और दुनिया में उठा सकें। रूढ़ियों के ख़िलाफ़ लड़ सकें, कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल हो सकें जिससे पितृसत्ता जोकि रूढ़ियों की वजह से असहनीय हो चुकी है, उसकी घुटन से करोड़ों महिलाओं को बाहर निकाला जा सके।