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    Home » आरएसएस का ‘प्रात:स्मरणीय छल’ हैं गाँधी!
    भारत

    आरएसएस का ‘प्रात:स्मरणीय छल’ हैं गाँधी!

    By January 30, 2025No Comments9 Mins Read
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    बिहार की राजधानी पटना का बापू सभागार 25 दिसंबर 2024 को एक अजब हंगामे का गवाह बना। उस दिन इस सभागार में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म-शताब्दी समारोह मनाया जा रहा था। इस मौक़े पर भोजपुरी गायिका देवी ने बापू का प्रिय भजन रघपुति राघव राजा राम गाना शुरू किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने अगली पंक्ति गायी, हंगामा हो गया। अगली पंक्ति थी- ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’ सभागार में उपस्थिति तमाम बीजेपी कार्यकर्ताओं को ‘ईश्वर’ और ‘अल्लाह’ को एक बताने पर आपत्ति थी।

    कार्यक्रम के आयोजक, वरिष्ठ बीजेपी नेता और अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे अश्विनी चौबे ख़ुद गायिका देवी को मंच से हटाते नज़र आये। इतना ही नहीं, जैसे कोई ‘प्रायश्चित’ करते हुए अश्विनी चौबे मंच से ‘जय श्री राम’ का नारा भी लगाने लगे। आख़िरकार लोकगायिका ने यह कहते हुए माफ़ी माँगी कि यह भजन प्रस्तुत करने के पीछे उनका इरादा किसी को ठेस पहुँचाना नहीं था।

    यह विरोध कोई संयोग नहीं था। इससे पहले कई टीवी चैनलों ने रहस्योद्घाटन किया था कि इस भजन में ‘अल्लाह’ शब्द डालकर इसे दूषित किया गया था। दूषित करने वाले ज़ाहिर तौर पर गाँधी थे। ऐसे हर कार्यक्रम में आरएसएस का कोई जानकार भी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता था जो गाँधी को येन-केन-प्रकारेण हिंदू धर्म को कमज़ोर करने या मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए दोषी ठहराता था। 

    “

    बीजेपी कार्यकर्ताओं से लेकर पूर्व कैबिनेट मंत्री अश्विनी चौबे तक अगर ‘ईश्वर और अल्लाह’ को एक बताने वाले बापू के इस प्रिय भजन को बर्दाश्त नहीं कर पाये तो यह आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में मिली शिक्षा का असर है।


    सबको गले लगाने की गाँधी की इसी नीति से निराश होकर डॉ.हेडगवार ने कांग्रेस छोड़ी थी और 1925 में संघ का गठन किया था। इटली के तानाशाह मुसनोलिनी की सीख पर तैयार किये गये ‘सैन्य बल’ जैसे इस संगठन ने मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति नफ़रत से भरे हिंदुत्व की जो राह पकड़ी, उसमें ‘ बीसवीं सदी के महानतम हिंदू’ कहे गये महात्मा गाँधी की उस सद्भवाना से विद्वेष स्वाभाविक था जिसका स्रोत उपनिषदों में है, जिनमें किसी को ‘अन्य’ नहीं माना गया है। सारा संसार एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति माना गया है।

    महात्मा गाँधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर और उनके शहादत दिवस 30 जनवरी को श्रद्धांजलि देने में कोई क़सर नहीं छोड़ी जाती लेकिन उनके प्रिय भजन से ‘भड़कने’ बताने का यह प्रसंग महात्मा गाँधी और संघ के रिश्ते की असलियत बयान करता है। यूँ आधिकारिक रूप से महात्मा गाँधी संघ के ‘प्रात:स्मरणीयों’ में शामिल हैं।

    1969 में महात्मा गाँधी के जन्म शताब्दी के अवसर पर महाराष्ट्र के साँगली में आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने कहा था, “महात्मा गाँधी जी का जन्म सामान्य व्यक्ति के समान हुआ, पर वे अपने कर्तव्य और अंतःकरण के प्रेम से परमश्रेष्ठ पुरुष की कोटि तक पहुँचे । उनका जीवन अपने सम्मुख रखकर, अपने जीवन को हम उसी प्रकार ढालें । उनके जीवन का जितना अधिकाधिक अनुकरण हम कर सकते हैं, उतना करें ।अपने यहाँ ‘प्रातःस्मरण’ कहने की प्रथा पुरानी है । अपनी पवित्र बातों व राष्ट्र के महान व्यक्तियों का स्मरण ‘प्रातःस्मरण’ में हम करते हैं ।

    ‘प्रातःस्मरण’ में नए व्यक्तियों का समावेश करने का कार्य कई शताब्दियों से बंद पड़ गया था । संघ ने इसे पुन: प्रारंभ किया है और आज तक के महान व्यक्तियों का समावेश कर ‘भारत भक्ति स्तोत्र’ तैयार किया है। हमारे इस ‘प्रातःस्मरण’ में वंदनीय पुरुष के नाते महात्मा गाँधी का उल्लेख स्पष्ट रूप में है।”

    संघ की अब तक की यात्रा बताती है कि वह महात्मा गाँधी के सपनों के धर्मनिरपेक्ष और समावेशी भारत की संकल्पना को उलटने में जुटा है। ऐसे में शाखाओं में महात्मा गाँधी का स्मरण एक ‘छल’ के सिवा कुछ नहीं। गुरु गोलवलकर का यह भाषण उस समय का है जब ‘कांग्रेस को हराने के लिए शैतान से हाथ मिलाने’ को तैयार दलों ने उसे अपने पाले में लाकर कई राज्यों में संविद सरकारें बनाने में क़ामयाबी पा ली थी। वरना इसके पहले महात्मा गाँधी की हत्या में शामिल होने का आरोप झेल रहे संघ की स्थिति अस्पृश्य जैसी हो गयी थी। 

    महात्मा गाँधी की वैश्विक ख्याति को देखते हुए संघ ने भी सामने से वार करने की रणनीति छोड़ दी थी। जबकि 1965 में दिल्ली नगर निगम में आरएसएस के तत्कालीन राजनीतिक फ़्रंट जनसंघ के सदस्यों ने उस प्रस्ताव का विरोध किया था जिसमें महात्मा गाँधी का उल्लेख ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में किया गया था।

    ‘प्रात:स्मरणीय गाँधी’ को ‘राष्ट्रपिता’ न मानने की ज़िद इतनी पक्की है कि दशकों बाद जब कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने महात्मा गाँधी के ‘राष्ट्रपिता’ होने पर सवाल उठा दिया था। उन्होंने कहा था कि महात्मा गाँधी भारत के बेटे तो हो सकते हैं, पिता नहीं क्योंकि ‘राष्ट्र’ तो उनसे पहले भी मौजूद था।

    बहुत लोग इस बात को नहीं जानते कि महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहना किसी सरकारी आदेश के कारण नहीं है बल्कि यह उपाधि उन्हें नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को सिंगापुर से अपने एक रेडियो संबोधन में दी थी। नेता जी मानते थे कि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय उपमहाद्वीप में एक ऐसे राष्ट्र का जन्म हो रहा है जिसकी मान्यताएँ और प्रतिज्ञाएँ बिल्कुल ‘नयी’ हैं। 

    महात्मा गाँधी के नेतृत्व ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक की जनता को एक साझा स्वप्न से बाँध दिया है जो अभूतपूर्व है। लेकिन आरएसएस का ‘राष्ट्र’ तो ‘चिरकाल’ से है जिसका ‘स्वर्णकाल’ भविष्य में नहीं अतीत में है। किसी को शक़ हो तो वह प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ में भावी हिंदू राष्ट्र के प्रस्तावित संविधान पर नज़र डाल सकता है जिसे मनुस्मृति पर आधारित किया गया है। इस राष्ट्र के पिता महात्मा गाँधी कैसे हो सकते हैं

    मोदी राज के ज़रिए आरएसएस पहली बार केंद्र में ‘संपूर्ण सत्ता शक्ति’ का आनंद ले रहा है। इसी के साथ तमाम आवरण हटा दिये गये हैं। कभी महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से संबंध की वजह से असहज महसूस करने वाले संघ के नफ़रती अभियान ने एक ऐसी भीड़ तैयार कर दी है जो अब गोडसे की खुलेआम जय-जयकार करती है। ऐसा करने वालों में बीजेपी के सांसद भी हैं। 

    सरदार पटेल ने कहा था कि महात्मा गाँधी की हत्या की ख़ुशी में संघ के लोगों ने मिठाई बाँटी थी। बतौर गृहमंत्री उनके पास संघ की हरकतों की ऐसी तमाम सूचनाएँ थीं जो बताती थीं कि संघ के ज़हरीले प्रचार की वजह से ही 30 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी की हत्या हुई। उन्होंने संघ को प्रतिबंधित भी किया था। लेकिन प्रतिबंध हटाने के लिए सरदार से किये गये तमाम वादों को भुलाकर अब वह सब कुछ कर रहा है जिसका ख़्वाब गोडसे देखता था।

    आरएसएस के लोग बार-बार कहते हैं कि महात्मा गाँधी भी संघ की शाखा में गये थे और उसकी प्रशंसा की थी। लेकिन अपनी पीठ ठोकने के फेर में बहुत कुछ छिपा लिया जाता है। यह घटना 16 सितंबर 1947 की है जब बँटवारे की वजह से माहौल बहुत ख़राब था और आरएसएस पर हिंसा करने का आरोप लग रहा था। संघ के दिल्ली  प्रांत प्रचारक वसंतराव ओक महात्मा गाँधी को एक हरिजन बस्ती में लगने वाली शाखा में ले गये। वहाँ ओक ने महात्मा गाँधी का परिचय हिंदू धर्म द्वारा पैदा किये गये एक महान पुरुष के रूप में दिया। इस पर गाँधी जी ने कहा, “मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी। हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सभी धर्मों को आत्मसात् किया है।” 

    महात्मा गाँधी के सचिव प्यारेलाल ने अपनी किताब ‘पूर्णाहुति’ में इस घटना का ज़िक्र करते हुए आगे लिखा है कि गाँधी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा, “अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और महत्वपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा। मैं आपको चेतावनी देता हूँ कि अगर आपके ख़िलाफ़ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा।”

    इतिहास बताता है कि संघ ने महात्मा गाँधी की चेतावनी पर ज़रा भी कान नहीं दिया। जैसे-जैसे केंद्र और तमाम राज्यों की सत्ता संघ के नियंत्रण में आती गयी मुसलमानों और ईसाइयों पर संगठित हमले बढ़ते गये। यह भी कह सकते हैं कि अन्य धर्मों के प्रति घृणा को संगठित करके ही उसने अपनी ताक़त बढ़ाई। मोदी राज में यह रणनीति चरम पर है और भारतीय सामाजिक जीवन में ‘लिंचिंग’ जैसे शब्द को पहचान मिली। अल्पसंख्यक समाज के लोगों को पोशाक से पहचान कर उनकी हत्या करने वाली भीड़ की अगुवाई करने वालों को दंड की जगह ‘हिंदू वीर’ के रूप में सम्मानित किया गया।

    संघ और बीजेपी के तमाम नेता महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने सिर झुकाते हैं लेकिन जिस भाषा और भंगिमा के साथ लोक-व्यवहार करते हैं उसमें न ‘सत्य’ का स्थान है और न ‘अहिंसा’ का। गाँधी की मान्यता को उलटते हुए ‘ईश्वर’ और ‘अल्लाह’ को अलगाने के उनके सुचिंतित अभियान की गूँज पूरी दुनिया में है। इस अभियान का नेतृत्व ख़ुद पीएम मोदी कर रहे हैं और दुनिया हैरान है कि यह गाँधी के देश में हो रहा है।

    ‘हिंदुस्तान हिंदुओं का है’ जैसे नारे को हवा दी जा रही है जबकि महात्मा गाँधी ने इस नारे पर आपत्ति जताते हुए आज़ादी के पहले ही स्पष्ट कह दिया था, “भारत जितना हिंदुओं का है, उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और गैर-हिंदुओं का भी है। आज़ाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होागा और वह किसी भी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।” 

    यह कोई अंधा भी देख सकता है कि संघ लगातार महात्मा गाँधी की मान्यताओं और संकल्पों पर मिट्टी डालने में जुटा है। उसके असल आदर्श ‘पितृभूमि’ और ‘पवित्रभूमि’ का सवाल उठाकर मुस्लिमों और ईसाइयों की देशभक्ति को संदिग्ध बनाने वाले विनायक दामोदर सावरकर हैं जिन्हें अरसे से ‘भारत रत्न’ देने की कोशिशें की जा रही है। जस्टिस कपूर कमीशन ने सावरकर को महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश का मुख्य योजनाकार बताया था। उन्हीं सावरकर के चेले नाथूराम ने निहत्थे बापू के सीने पर तीन गोलियाँ दाग़कर उनके भौतिक जीवन का अंत किया था। संघ उनके विचारों को ख़त्म करने में जुटा है। महात्मा गाँधी को ‘प्रात:स्मरणीय’ बना देने से यह छल छुपने वाला नहीं है।

    (लेखक पंकज श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और कांग्रेस से भी जुड़े हुए हैं)

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