हरे से नारंगी रंग में तब्दील हो रहे संतरों को देखते हुए मनोहर चटकवार गुज़रा हुआ वक्त याद कर रहे हैं। वह समय में एक साल पीछे चले जाते हैं।
17 मार्च 2024, चटकवार के 3 एकड़ के संतरे के बगीचे में फसल पककर तैयार थी। उन्होंने इसके लिए एक स्थानीय व्यापारी से 5 लाख रूपए का सौदा किया था। ठीक दो दिन बाद उनके बगीचे में संतरे की तोड़ाई होनी थी। चटकवार निश्चिन्त होकर अपने बगीचे में ही बैठे हुए थे। मगर तभी अचानक आंधी के साथ बारिश होना शुरू हो गई। वह बताते हैं कि उस दौरान हवाओं की गति इतनी तेज़ थी कि खुद को दुर्घटना से बचाने के लिए वह बगीचे से बाहर भागे।
लगभग 2 घंटे तक आंधी और बारिश जारी रही. बारिश थमते ही चटकवार वापस बगीचे की ओर आए। वह बताते हैं कि उस दौरान पूरी ज़मीन संतरे के फलों, पत्तियों और टूटी डालों से पटी हुई थी। चटकवार की पूरी फसल तबाह हो चुकी थी। उन्हें बीते साल 15 टन संतरे की फसल की उम्मीद थी। मगर इस घटना के बाद 700 पेड़ों से उन्हें एक टन से भी कम उपज ही मिल सकी।
ऑरेंज सिटी कहे जाने वाले नागपुर से 88 किमी दूर मध्य प्रदेश का पांढुर्णा जिला अपने संतरे के उत्पादन के लिए प्रसिद्द है। पहले यह छिंदवाड़ा जिले का हिस्सा हुआ करता था मगर 2023 में यह अलग होकर अलग जिला बन गया। भोपाल से पांढुर्णा में दाखिल होते ही संतरे के बड़े-बड़े बाग़ दिखाई देते हैं। यह फल ही इस इलाके की अर्थव्यवस्था का आधार है। मगर बीते कुछ सालों में इस फल पर मौसम की बुरी मार पड़ी है। इसने किसानों के साथ-साथ इस व्यापार से जुड़े हर तबके को प्रभावित किया है।
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देश में संतरे का उत्पादन
सिट्रस फलों के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। ब्राजील में सबसे ज़्यादा 20,682,309 मिलियन टन सिट्रस फलों का उत्पादन होता है। जबकि वर्ल्ड एटलस के मुताबिक भारत में 6,286,000 मिलियन टन सिट्रस फलों का उत्पादन होता है। मगर इसमें नींबू और मौसंबी जैसे फल भी शामिल हैं। भारत की कुल सिट्रस खेती में 40% हिस्सा नागपुरी संतरे या मैंडेरिन ऑरेंज (Citrus reticulata) का है।
वहीं 2019-20 से तीसरे अडवांस एस्टीमेट के अनुसार भारत में 4.79 लाख हेक्टेयर में नागपुरी संतरे की खेती होती है। 2019-20 में भारत में कुल 63.97 लाख टन संतरे का उत्पादन हुआ था। जो बीते 3 साल में सबसे ज़्यादा था। भारत में सबसे ज़्यादा संतरे का उत्पादन मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा में होता है। मध्य प्रदेश इस लिस्ट में सबसे ऊपर है। यहां देश की कुल उपज का 30% संतरा उत्पादित होता है।
मध्य प्रदेश में संतरे का उत्पादन
2024-25 के पहले अनुमान के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल 1,31,694.75 हेक्टेयर में संतरे की खेती हो रही है। इससे कुल 2200098.74 मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ है। मध्य प्रदेश में सबसे ज़्यादा संतरे का उत्पादन आगर मालवा जिले में होता है।
जबकि इस मामले में छिंदवाड़ा जिला दूसरे स्थान पर है। बीते साल यहां 24,563 हेक्टेयर में 4,90,000 मीट्रिक टन संतरे का उत्पादन हुआ था। वर्तमान पांढुर्णा जिले में 2 ब्लॉक आते हैं, पांढुर्णा और सौंसर। इन दोनों ब्लॉक में क्रमशः 2,50,500 और 15,5000 मीट्रिक टन संतरे का उत्पादन होता है।
पांढुर्णा ब्लॉक के तिगांव नामक गांव के विनोद जुमड़े लगभग 7 एकड़ में संतरे की खेती करते हैं। वह बताते हैं कि नींबू के पेड़ में क्राफ्टिंग करके संतरे का पौधा तैयार किया जाता है। इसे पेड़ बनने में 5 साल का समय लगता है. इसके बाद ही इसमें फूल आना शुरू होते हैं।
संतरे की फसल को साल भर में 3 हिस्सों में बांटा जाता है। पहली फसल के फूल फरवरी से माह में आते हैं। इसे अंबे बहार (स्थानीय भाषा में अंबिया बहार) कहा जाता है। इस फसल का फल 12 महीने में पककर तैयार होता है। जबकि मृग बहार का फूल जून माह में आता है जो लगभग 7 से 8 महीने में तैयार हो जाता है। वहीं अक्टूबर माह में खिलने वाले हस्त बहार के फूल अगले साल अप्रैल से मई महीने में फल बनकर तैयार होते हैं।
आम तौर पर हस्त बहार में पेड़ पर केवल 17% फूल ही आते हैं। इसलिए अंबे और मृग बहार को ही मुख्य फसल माना जाता है जहां क्रमशः 47% और 36% फूल आते हैं। हालांकि किसान बताते हैं कि हस्त बहार के फल अपेक्षाकृत ज़्यादा ऊंचे दामों में बिकते हैं। मगर उत्पादन बेहद कम होने के चलते इस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
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संतरों पर मौसम की मार
लेकिन बीते साल मार्च के महीने में मनोहर चटकवार अपनी फसल को देख कर बेहद खुश थे। उनके बाग़ में संतरे के पेड़ फलों से लदे हुए थे जिसके चलते उन्हें 5 लाख का सौदा भी कम लग रहा था। चटकवार 2 एकड़ में कपास की खेती भी करते हैं। इससे होने वाली कमाई को भी उन्होंने संतरे के बाग़ में लगा दिया था।
मगर 17 मार्च को बिगड़े मौसम ने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया। 18 मार्च को सुबह जब वह अपने बगीचे में आए तो बहुत देर तक ख़राब हो चुकी फसल को देखते रहे। हताशा में उन्होंने अपने खेत में ही बने कुएं में छलांग लगा दी। हालांकि यह देखते ही पास के खेतों में काम कर रहे चटकवार के दोस्तों ने उन्हें कुएं से निकाल लिया।
चटकवार उस नुकसान के बारे में कहते हैं,
“उस नुकसान से हम 5 वर्ष पीछे चले गए हैं. क़र्ज़ के चलते हम अपने बच्चों के स्कूल की फीस भी नहीं दे पा रहे हैं.”
हालांकि उन्हें मुआवज़े के रूप में 40 हज़ार रुपए मिले हैं। वह बताते हैं कि यह पहली बार है जब उन्हें इतना मुआवज़ा मिला है। वह कहते हैं कि अगर उन्हें यह पता होता कि सरकार उचित मुआवज़ा दे देगी तो वह ऐसा कदम नहीं उठाते।चटकवार के परिवार में 6 सदस्य हैं। अपनी सालाना पारिवारिक कमाई के बारे में बताते हुए वह कहते हैं।
“साल भर में 2 से 3 लाख रुपए हो जाता है लेकिन ऐसी आपदा आ जाए तो 50 हज़ार भी नहीं होता है।”
भले ही चटकवार को उचित मुआवज़ा मिल गया हो मगर मौसम की मार ने उनकी इस साल की फसल भी प्रभावित की है। वह कहते हैं कि बीते साल की तुलना में इस साल उत्पादन आधा ही है। वह इसकी दो वजह बताते हैं, पहली यह कि बीते साल अंबिया बहार के फूल भी आंधी में गिर गए थे दूसरा वह मानते हैं कि आंधी ने पेड़ों की जड़ें कमज़ोर कर दी हैं जिससे उत्पादन पर असर हुआ है।
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मौसम की मार के बाद भी आंकड़े स्थिर
बीते साल पहले मार्च और फिर अप्रैल में मौसम के चलते पांढुर्णा और सौंसर में संतरे की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई थी। लेकिन इसका असर छिंदवाड़ा ज़िले के वार्षिक उत्पादन पर नहीं दिखता। बीते 5 सालों (2019-2024) के आंकड़ों को देखें तो 2019 से 2021 तक यहां उत्पादन और रकबा दोनों बढ़ा है। भले ही 2020 में इसकी फसल बर्बाद होने की ख़बरें मीडिया में प्रकाशित हुई हों और 2024 में भी इसका दोहराव हुआ हो मगर इस जिलें में उत्पादन और रकबे का आंकड़ा स्थिर बना हुआ है।
पांढुर्णा जिले के प्रभारी वरिष्ठ उद्यान विकास अधिकारी सिद्धार्थ दोपारे बताते हैं कि यहां के किसान पारंपरिक तौर पर मृग बहार की फसल मुख्य तौर पर लेते थे। यह फसल पूरी तरह मौसम पर निर्भर होती है। मगर मौसम की अनियमितता के चलते अब किसान अंबिया बहार पर शिफ्ट हो रहे हैं। बीते साल का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं,
“मिट्टी में कार्बन और नाइट्रोजन का अनुपात सही रखने के लिए सिंचाई में 15 दिन का अंतराल ज़रूरी होता है. मगर बीते साल सतत बारिश के कारण मिट्टी में नमी बनी हुई थी जो मृग बहार के लिए सही नहीं है.”
दोपारे के अनुसार मिट्टी को हवा और धूप न मिलने पर पेड़ पर फंगस इन्फैक्शन का खतरा बढ़ जाता है। वह बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में संतरे में गमोसिस रोग बढ़ा है। दोपारे कहते हैं कि मौसमी अनियमितता के चलते संतरे का उत्पादन 10 से 20% तक प्रभावित हुआ है।
प्रभावित होता संतरे का बाज़ार
संतरों पर मौसम के इस प्रभाव का असर इसके व्यापारियों पर भी हुआ है। यहां के व्यापारी दिनेश कोल्हे बताते हैं कि पांढुर्णा में पहले संतरे की 102 से 105 प्राइवेट मंडियां हुआ करती थीं। मगर अब यहां केवल 15 मंडियां ही बची हैं। वह कहते हैं कि अनियमित मौसम और उत्पादन कम होने के चलते बहुत से व्यापारियों के पास खरीददार नहीं बचे थे जिसके कारण उन्हें यह धंधा बंद करना पड़ा।
दिनेश बताते हैं कि फूल लगने के बाद और फल पकने के लगभग 4 महीने पहले व्यापारी बगीचे का मुआयना कर पूरे बगीचे की एक कीमत लगाते हैं। यह कीमत उत्पादन के अनुमान के आधार पर लगाई जाती है। मुख्य फसल की तोड़ाई से पहले किसान को किश्तों में कुल राशि दी जाती है. कोल्हे कहते हैं,
“संतरे का व्यापार कच्चा व्यापार होता है क्योंकि इसमें सब कुछ अनिश्चित होता है.”
दिनेश ने पिछले साल 4 रुपए प्रति संतरे के रेट का अनुमान लगाकर एक किसान से सौदा किया था। उन्हें अनुमान था कि इस संतरे की बिक्री से उन्हें 4 लाख की कमाई हो जाएगी। इसके लिए उन्होंने किसान को 2 लाख रुपए की अडवांस पेमेंट की थी। मगर मार्च में मौसम में अचानक परिवर्तन होने के चलते उस बगीचे के आधे संतरे खराब हो गए। इस दौरान उन्हें 2 लाख का घाटा सहना पड़ा था। वह कहते हैं कि बीते 10 साल में ऐसा कई व्यापारियों के साथ हुआ है जिसके चलते उन्हें अपनी मंडी बंद करनी पड़ी।
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तिगांव के विनोद जुमड़े संतरे के किसान और व्यापारी दोनों हैं। वह भी दोहराते हैं कि अगर मौसम के कारण उत्पादन कम होता है तो उसका नुकसान व्यापारी को ही सहना पड़ता है। वह बताते हैं,
“आपने अगर किसान से 5 लाख का सौदा कर लिया है तो आपने रिस्क लिया है. अब अगर फसल बर्बाद भी हो जाए तब भी ये पैसे आपको देने ही पड़ते हैं.”
हालांकि दिनेश बताते हैं कि जब व्यापारी को ज़्यादा घाटा होता है तब संबंध बनाए रखने के लिए किसान सौदे का कुछ पैसा छोड़ देते हैं ताकि घाटे की भरपाई हो सके।
जुमड़े बताते हैं कि पहले रेलवे के रैक से पांढुर्णा का संतरा दिल्ली जाता था। वहां से यह देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजा जाता था। मगर रेलवे द्वारा रैक की सुविधा बंद करने से अब उन्हें भाड़े के रूप में अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है। वह इसका उत्पादन से संबंध समझाते हुए कहते हैं कि अगर किसी व्यापारी के पास उत्पादन ज़्यादा है तो उसके लिए यह खर्च निकालना आसान होगा।
मनोहर चटकवार कहते हैं कि इस बार भले ही उनकी फसल कम हुई है मगर उन्हें सबसे ज़्यादा चिंता अनियमित मौसम की है। वह कहते हैं कि अनियमित वर्षा के चलते फंगस का खतरा बढ़ जाता है ऐसे में उन्हें कीटनाशकों का अधिक इस्तेमाल करना पड़ता है। पहले जहां वह 2 बार इसका छिड़काव करते थे अब वह 6 से 7 बार करना पड़ता है।
पांढुर्णा के किसानों से बात करते हुए यह समझ आता है कि मौसम की अनियमितता के चलते यहां के किसानों पर संकट बढ़ा है। यह बात ध्यान देने वाली है कि मध्य प्रदेश का यह इलाका महाराष्ट्र के विदर्भ से लगा हुआ है। विदर्भ, जो किसानों की आत्महत्या और खेती को होने वाले नुकसान के लिए खबरों में रहता है। ऐसे में सरकारी आंकड़ों में छिंदवाड़ा का उत्पादन भले ही स्थिर हो मगर मनोहर चटकवार जैसे किसानों की कहानी इन आंकड़ों के पार किसान के नुकसान पर सोचने को मजबूर करती है।
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