
संविधान निर्माता डॉ. भीम राव आंबेडकर को लेकर इन दिनों कुछ ख़ास तरह के ख़बरों की भरमार दिखाई दे रही है। अख़बारों और टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया पर अक्सर इस तरह की सुर्खियां दिखाई देती हैं। “बाबा साहेब की मूर्ति तोड़ी गयी” “बाबा साहेब आंबेडकर का अपमान“। आज कल बिहार में इसी तरह की एक ख़बर राजनीतिक विवाद का केंद्र बना हुआ है। आरोप लगाया जा रहा है कि आरजेडी के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के जन्म दिन समारोह में बाबा साहेब की तस्वीर जमीन पर रखी गयी थी, जहां लालू कुर्सी पर बैठे थे। बीजेपी ने इसे राजनीतिक मुद्दा बना लिया है। बिहार के उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे सीधे तौर पर डॉ. आंबेडकर का अपमान बताया। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सिवान की सभा में दलितों के अपमान के मुद्दे पर लालू का नाम लिए बिना ग़ैर-बीजेपी विपक्षी पार्टियों की आलोचना की।
बिहार अनुसूचित जाति आयोग ने इस मुद्दे पर लालू को नोटिस जारी कर दिया है। सवाल ये है कि क्या लालू ने सचमुच बाबा साहेब का अपमान करने के लिए बाबा साहेब की तस्वीर को जमीन पर रखा या ये अनजाने में हुआ? क्या इसे बाबा साहेब का अपमान माना जाना चाहिए? या फिर ये सब राजनीतिक स्टंट है जिसका मकसद चुनाव में लाभ उठाना है?
मूर्ति बना कर पूजने का सच
पिछले बीस पच्चीस सालों में डॉ. आंबेडकर की पूछ अचानक बढ़ गयी है। इसका एक बड़ा कारण तो ये है कि दलितों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना बढ़ी है। दलितों ने डॉ. आंबेडकर को आधुनिक भारत का एक मात्र नेता मान लिया है। आजादी के बाद से कांग्रेस का पिछलग्गू माने जाने वाले दलित एक राजनीतिक शक्ति बन कर उभरे हैं। उत्तर प्रदेश में कांसी राम और मायावती ने 2007 में दलित शक्ति के बूते पर सरकार बना कर साबित कर दिया कि दलितों में नेतृत्व की क्षमता है। उसके बाद डॉ. आंबेडकर की पूजा की नई लहर शुरू हुई।
आंबेडकर की इस पूजा का राजनीतिक महत्व समझने के लिए महात्मा बुद्ध की तरफ़ लौटना ज़रूरी है। प्राचीन काल के सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रतापी राजा अशोक के बौद्ध होने के बाद लगभग पूरा देश बौद्ध मय हो गया था। उनके प्रयासों से बौद्ध धर्म भारत के बाहर भी फैला। अशोक के बाद उनके वंश के एक राजा की हत्या करके उनके मंत्री पुष्य मित्र शुंग ने मगध के शासन पर कब्जा कर लिया। शुंग ने बौद्धों का नरसंहार किया। बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया और हिंदू धर्म की पुनः स्थापना की।
सामंती इतिहास में इस तरह की घटना नयी बात नहीं है। नया तो इसके बाद हुआ। शुंग के बर्बर प्रयासों के बाद भी बौद्ध धर्म समाप्त नहीं हुआ तो आगे चलकर बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया। बुद्ध के दर्शन में ईश्वर की कोई जगह नहीं है। बुद्ध की स्थापनाओं में सबसे अहम ये है कि मनुष्य की मुक्ति सिर्फ़ ज्ञान से संभव है। लेकिन बुद्ध को अवतार घोषित करने के बाद उनकी मूर्ति बना कर पूजा शुरू हो गयी। बौद्ध काल में नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसे विश्व विद्यालय बनाये गए थे ताकि ज्ञान का प्रसार हो सके। सोचने की बात ये है कि क्या आज के बौद्ध मंदिर ज्ञान के प्रसार का केंद्र बने हुए हैं। बुद्ध अब देवता बन गए हैं। क्या ये बुद्ध के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप है।
आंबेडकर और बुद्ध
डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन के आख़िरी समय में बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। यह आंबेडकर के सिद्धांतों के अनुरूप ही था। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत के संविधान के निर्माण में डॉ आंबेडकर की महान भूमिका थी। ये इसलिए संभव हुआ कि डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटेन से क़ानून की पढ़ाई की थी। वो ब्रिटिश और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ज्ञाता थे। डॉ. आंबेडकर अगर क़ानून के विशेषज्ञ नहीं होते तो शायद संविधान निर्माण में उनकी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। डॉ. आंबेडकर का जीवन दलितों, पिछड़ों और ग़रीबों के लिए एक सबक है जिसमें ज्ञान की सबसे बड़ी भूमिका है। बौद्ध धर्म को अपना कर डॉ. आंबेडकर ने ज्ञान मार्ग को ही श्रेष्ठ माना। लेकिन आज क्या हो रहा है।
दलित वोट बैंक पर नज़र?
गौर से देखें तो राजनीतिक दलों की नजर दलितों के वोट पर लगी है। देश के कई राज्यों में दलितों की आबादी 15 से 20 प्रतिशत है। चुनाव में उनका वोट निर्णायक हो गया है। डॉ. आंबेडकर का नाम लेकर दलितों को लुभाने की साजिश तो नहीं है। आगे चलकर डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों की पूजा शुरू हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। आंबेडकर का असली सम्मान तो तब होगा जब दलितों, पिछड़ों और गरीबों को शिक्षित किया जाए। लेकिन ये वर्ग शिक्षित हो जाए तो आज के राजनीतिक वर्ग के लिए ख़तरा बन सकता है। शिक्षित वर्ग अपने अधिकार की मांग करेगा। समाज में बराबरी का दावा करेगा। आर्थिक संसाधनों पर अधिकार जताएगा। लेकिन आंबेडकर की पूजा से किसी का क्या बिगड़ेगा। क्या आंबेडकर की मूर्ति बनाने की जगह कुछ और स्कूल खोलने की ज़रूरत नहीं है? क्या सिर्फ दलितों को ही नहीं पिछड़ों और गरीबों को भी शिक्षा का अवसर देना और प्रेरित करना ज़रूरी नहीं है? आंबेडकर की शिक्षाएं तो यही कहती हैं।
आंबेडकर के मूल सिद्धांतों पर बहस क्यों नहीं?
डॉ. आंबेडकर के मूल सिद्धांतों पर बहस की जगह उनकी मूर्ति और तस्वीर पर बहस दलितों, पिछड़ों और गरीबों के साथ एक छल है। मूर्ति और तस्वीर पूजो, शिक्षा मत मांगो, रोजगार मत मांगो, छुआ छूत और जाति खत्म करने की बात मत करो, सामाजिक समानता की उम्मीद नहीं रखो, आर्थिक संसाधनों में हिस्सा मत चाहो। बौद्ध मंदिर आज भी बन रहे हैं, लेकिन ज्ञान पीछे छूट चुका है। डॉ. आंबेडकर की मूर्ति चाहे जितनी लगा लो संविधान में जो सहूलियतें दलितों, पिछड़ों और गरीबों के लिए दी गयी हैं वो पीछे छूटती जा रही हैं। बिहार में आंबेडकर पर ताजा विवाद क्या उनकी नीतियों को लागू करने के मुद्दे पर की जा रही है? कदाचित नहीं।
दलित वोट का गणित
बिहार में दलितों की आबादी करीब 20 प्रतिशत है। इसके चलते चुनाव में इनका महत्व काफ़ी बढ़ जाता है। 1990 के दशक में जब लालू सत्ता में आए तब उन्हें दलितों के एक बड़े वर्ग का समर्थन मिल रहा था। लेकिन सन दो हज़ार के आते आते राम विलास पासवान दलितों के बड़े नेता के रूप में उभरे। इसी दौर में नीतीश कुमार अति पिछड़ों के नेता के रूप में सामने आए। पासवान और नीतीश ने लालू से अलग राह पकड़ ली। नीतीश के अति पिछड़ों और अति दलितों के गठजोड़ ने 2005 में लालू को सत्ता से बाहर कर दिया। नीतीश ने उसी दौर में बीजेपी का हाथ पकड़ लिया। नीतीश ने अति दलितों के नेता के रूप में जीतन राम मांझी को आगे बढ़ाया जो 2015 में कुछ समय के लिए राज्य के मुख्यमंत्री भी बने।
1995 के बाद से ही दलित लालू से अलग होने लगे थे। लेकिन सन दो हज़ार में रमई राम के आरजेडी में शामिल होने के बाद दलितों का कुछ हिस्सा आरजेडी के साथ बना रहा। अब रमई राम के साथ-साथ विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने आरजेडी छोड़ दिया है। दूसरी तरफ़ राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद उनके बेटे चिराग पासवान ने उत्तराधिकार संभाल लिया है। अति दलितों के बीच नीतीश की अपनी पकड़ थोड़ी ढीली पड़ी है। लेकिन मांझी और चिराग के साथ होने से एनडीए को दलित वोटों का फ़ायदा मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है।
लालू का दाँव
चिराग और मांझी एनडीए में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें पाने के लिए जोड़ तोड़ में जुटे हैं। लालू का खेमा इस विवाद का फ़ायदा उठा कर दलितों में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। राम विलास के भाई और चिराग के चाचा पशुपति पारस नाराज होकर एनडीए से अलग हो गए हैं। चर्चा है कि अब वो लालू के महागठबंधन में जगह बनने की कोशिश में हैं। आरजेडी महागठबंधन को चुनाव में बड़ी सफलता के लिए एमवाई यानी मुस्लिम यादव गठजोड़ में कुछ अन्य जातियों का सहयोग जरूरी है। आरजेडी की नज़र सवर्ण के साथ साथ दलित वोटों पर है। इस समय आरजेडी के 75 फिर विधायकों में से 6 दलित हैं। बिहार की राजनीति में डॉ. आंबेडकर को लेकर ताजा विवाद नवंबर दिसंबर में होने वाले विधान सभा चुनावों की पेशबंदी के रूप में देखा जा रहा है।