13 जून 2025 को दुनिया ने फिर देखा कि जब कोई देश बिना अंतरराष्ट्रीय सहमति के सैन्य कार्रवाई करता है तो उसके कितने ख़तरनाक परिणाम हो सकते हैं। इसराइल ने ईरान की संप्रभुता के ख़िलाफ़ जो हमला किया, वह गहरी चिंता का कारण और क़ानून का उल्लंघन था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ईरान की ज़मीन पर हुए इन बमबारी और लक्षित हत्याओं की कड़े शब्दों में निंदा की है। यह एक ख़तरनाक स्तर की बढ़ोतरी है, जिसके गंभीर क्षेत्रीय और वैश्विक परिणाम हो सकते हैं। ग़ज़ा में इसराइल की बर्बर और असंतुलित कार्रवाई की तरह ही, यह हमला भी नागरिकों की ज़िंदगियों और क्षेत्रीय स्थिरता की पूरी तरह अनदेखी करता है। ऐसे क़दम सिर्फ़ अस्थिरता को और गहरा करेंगे और आगे संघर्ष की ज़मीन तैयार करेंगे।यह हमला उस वक़्त हुआ जब ईरान और अमेरिका के बीच बातचीत की संभावनाएं उभर रही थीं। इस साल अब तक पाँच दौर की बातचीत हो चुकी थी और जून में छठे दौर की योजना थी। मार्च 2025 में अमेरिका की राष्ट्रीय खुफिया निदेशक तुलसी गबार्ड ने कांग्रेस में स्पष्ट कहा था कि ईरान परमाणु हथियारों का कार्यक्रम नहीं चला रहा है और सुप्रीम लीडर अली खामेनई ने 2003 में इसे स्थगित करने के बाद फिर से शुरू करने की अनुमति नहीं दी है।
इसराइल की नीतियां और नेतन्याहू की भूमिका
इतिहास यह भी दिखाता है कि नेतन्याहू ने 1995 में इस तरह का माहौल बनाया जिसमें प्रधानमंत्री यित्झाक राबिन की हत्या हो गई, जिससे इसराइल और फ़िलिस्तीन के बीच शांति प्रक्रिया को बड़ा झटका लगा।इस पृष्ठभूमि में नेतन्याहू का बातचीत के बजाय टकराव का रास्ता अपनाना हैरानी की बात नहीं है। लेकिन यह दुखद है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जिन्होंने कभी ‘अंतहीन युद्धों’ और ‘सैन्य-औद्योगिक गठजोड़’ की आलोचना की थी, अब इसी रास्ते पर चलते नज़र आ रहे हैं। उन्होंने ख़ुद स्वीकारा था कि इराक में ‘जनसंहार हथियारों’ की झूठी रिपोर्टों के कारण युद्ध हुआ, जिसने पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया।17 जून को ट्रंप का यह बयान कि “ईरान परमाणु हथियारों के बहुत क़रीब है”, न सिर्फ़ उनके ख़ुद के खुफिया प्रमुख की रिपोर्ट के विपरीत है, बल्कि बेहद निराशाजनक भी है। दुनिया आज ऐसे नेतृत्व की तलाश में है जो तथ्यों पर आधारित हो, संवाद को प्राथमिकता दे — न कि ताक़त या झूठ पर।
दोहरे पैमानों की कोई जगह नहीं
पश्चिम एशिया के इतिहास को देखते हुए, यह सही है कि इसराइल को परमाणु हथियार संपन्न ईरान को लेकर सुरक्षा चिंता हो सकती है। लेकिन दोहरे मापदंड नहीं चल सकते। इसराइल ख़ुद एक परमाणु शक्ति है और उसने अपने पड़ोसियों पर सैन्य हमले भी किए हैं।
इसके विपरीत, ईरान परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का हस्ताक्षरकर्ता है और उसने 2015 के परमाणु समझौते (Joint Comprehensive Plan of Action) में यूरेनियम संवर्धन की सीमा तय की थी। इस समझौते को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य, जर्मनी और यूरोपीय संघ का समर्थन प्राप्त था। अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने इसकी पुष्टि भी की थी। लेकिन 2018 में अमेरिका ने इसे एकतरफ़ा रूप से छोड़ दिया, जिससे वर्षों की मेहनत से बनी कूटनीति को झटका लगा।भारत ने भी इस स्थिति की कीमत चुकाई है। ईरान पर फिर से लगे प्रतिबंधों ने भारत की रणनीतिक परियोजनाओं को बाधित किया — जैसे चाबहार पोर्ट और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर, जो हमें मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान से जोड़ सकते थे।
भारत की ऐतिहासिक भूमिका और आज की चुप्पी
ईरान भारत का पुराना मित्र रहा है, और हमारे बीच गहरे सभ्यतागत संबंध हैं। जम्मू और कश्मीर के मुद्दे पर भी ईरान ने भारत का साथ दिया है। 1994 में ईरान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत-विरोधी प्रस्ताव को रुकवाने में मदद की थी। जबकि इसी ईरान का पिछला शाही शासन 1965 और 1971 के युद्धों में पाकिस्तान के पक्ष में झुका हुआ था।
भारत और इसराइल के संबंध भी हाल के दशकों में मज़बूत हुए हैं। इस कारण भारत एक अनूठी स्थिति में है — जहां वह शांति और संवाद की राह खोलने वाला पुल बन सकता है। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है; लाखों भारतीय नागरिक पश्चिम एशिया में रहते और काम करते हैं। वहां की शांति भारत के लिए एक राष्ट्रीय हित का मुद्दा है।इसराइल के हालिया हमले ऐसे माहौल में हो रहे हैं जहां पश्चिमी शक्तियों का लगभग बिना शर्त समर्थन मिला हुआ है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा किए गए घातक और निंदनीय हमलों की खुलकर निंदा की थी। लेकिन हम इसराइल की अत्यधिक और विनाशकारी प्रतिक्रिया पर चुप नहीं रह सकते — जिसमें अब तक 55,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। पूरे परिवार, मोहल्ले और अस्पताल तबाह कर दिए गए हैं। ग़ज़ा भुखमरी के कगार पर है और वहां के आम लोग अकथनीय पीड़ा सह रहे हैं।
भारत की चिंताजनक स्थिति
ग़ाज़ा में तबाही और अब ईरान के ख़िलाफ़ अचानक हुए हमलों पर नई दिल्ली की चुप्पी न केवल हमारी नैतिक परंपरा से एक विचलन है, बल्कि यह हमारे मूल्यों की भी हार है।अभी भी देर नहीं हुई है। भारत को स्पष्ट बोलना चाहिए, ज़िम्मेदारी से काम करना चाहिए और सभी उपलब्ध कूटनीतिक रास्तों को अपनाकर पश्चिम एशिया में तनाव कम करने और संवाद बहाल करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।