ईरान और इसराइल के बीच तेज़ होती जंग के बीच निर्वासित क्राउन प्रिंस रज़ा पहलवी ने ईरान की जनता को संबोधित करते हुए चौंकाने वाला बयान दिया। उन्होंने कहा, ‘इस्लामी गणराज्य का अंत हो चुका है। आयतुल्लाह अली ख़ामेनई एक डरे हुए चूहे की तरह बंकर में छिपा है और नियंत्रण खो चुका है। समय आ गया है कि ईरान को फिर से आज़ाद और लोकतांत्रिक रास्ते पर ले जाया जाए।’ रज़ा पहलवी ने जनता और सेना से ख़ामेनई की सरकार को उखाड़ फेंकने की अपील भी की है।
ईरान के अंतिम शासक मोहम्मद रज़ा पहलवी ने जब 1967 में ख़ुद को शहंशाह घोषित किया था तो सात साल की उम्र के अपने बेटे रज़ा पहलवी को क्राउन प्रिंस या उत्तराधिकारी घोषित किया था। रज़ा पहलवी फ़िलहाल अमेरिका में रहते हैं और निर्वासित पहलवी परिवार के मुखिया हैं। उनका यह बयान युद्ध के मौक़े का फ़ायदा उठाने तक सीमित नहीं है। इससे पहले, 23 फरवरी 2025 को द टेलीग्राफ़ को दिए साक्षात्कार में उन्होंने संकेत दिया था, “यूरोप और अमेरिका को तेहरान में शासन के आसन्न पतन के लिए तैयार रहना चाहिए।” द टेलीग्राफ़ ने रज़ा पहलवी को एक ऐसे नेता के रूप में वर्णित किया, जिनके पास सुधार की योजना और ईरान के अंदर-बाहर सार्वजनिक मान्यता है।
पश्चिमी देशों की रणनीति
इसका मतलब है कि पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका की नज़र में, रज़ा पहलवी वह व्यक्ति हैं जो ईरान का शासन संभाल सकते हैं। ख़ामेनई का शासन ख़त्म करना उनकी प्राथमिकता है क्योंकि वे ईरान के मौजूदा निज़ाम को कट्टरपंथी मानते हैं और नहीं चाहते कि उसके पास परमाणु हथियार हों। यानी रज़ा पहलवी को लेकर कोई गुप्त योजना पहले से तैयार है। इस योजना की गहराई का अंदाज़ा इससे लगता है कि ईरान के सरकारी टेलीविजन पर जनविद्रोह की अपील करने वाली वीडियो क्लिप प्रसारित हो गई, जिसे हैकर्स का काम बताया गया। इस वीडियो में सरकार पर जनता की अपेक्षाओं को पूरा न करने का आरोप लगाते हुए लोगों से अपने भविष्य के लिए क़दम उठाने की अपील की गई। साथ ही, 13 जून 2025 को इसराइली हमले में मारे गए ईरानी कमांडरों की तस्वीरें भी दिखाई गईं।
1953 की पुनरावृत्ति?
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमेरिका 1953 जैसी घटना को दोहराने की फिराक में है? उस समय, अमेरिका और ब्रिटेन ने ‘ऑपरेशन अजाक्स’ के तहत ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्देक की लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट किया था। मोसद्देक ने 1951 में ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था, जो ब्रिटिश कंपनी एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी (आज की बीपी) के नियंत्रण में था। इससे पश्चिमी देशों के आर्थिक हितों को ठेस पहुंची।
अंततः 19 अगस्त 1953 को मोसद्देक को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी पार्टी, नेशनल फ्रंट ऑफ ईरान, 1949 में स्थापित एक राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक गठबंधन थी, जो तेल राष्ट्रीयकरण और विदेशी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ लड़ती थी। इसने कुछ वामपंथी समूहों और तुदेह पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) के साथ गठबंधन किया था, जिससे पश्चिमी देशों की आशंकाएं बढ़ गई थीं।
तख्तापलट के बाद, जनरल फजलोल्लाह ज़ाहेदी को प्रधानमंत्री बनाया गया और शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सत्ता मज़बूत की गई। 2013 में अमेरिका के डीक्लासिफाइड दस्तावेजों से पता चला कि सीआईए ने ज़ाहेदी की नियुक्ति के दो दिन बाद 50 लाख डॉलर की गुप्त मदद दी थी।
शीतयुद्ध और तेल का खेल
1950 का दशक शीतयुद्ध का दौर था। दुनिया दो खेमों- कम्युनिस्ट और पूंजीवादी देश- में बंटी थी। 1917 की रूसी क्रांति और 1948 की चीनी क्रांति के बाद कम्युनिज्म का प्रभाव बढ़ रहा था। पूंजीवाद को शोषण का पर्याय माना जा रहा था, और समाजवादी विचारधारा ने भारत जैसे देशों में भी समतामूलक समाज बनाने का सपना भर दिया था। अमेरिका को यह रास नहीं आया, और उसने कम्युनिस्ट प्रभाव को रोकने के लिए कई देशों में हस्तक्षेप किया। ईरान इसका शिकार हुआ, क्योंकि इसके पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल भंडार है, वेनेज़ुएला और सऊदी अरब के बाद। यह पश्चिमी देशों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
ईरान में लोकतंत्र
ईरान में सीमित लोकतंत्र की शुरुआत 1905 की संवैधानिक क्रांति से हुई। इसने काजर राजवंश के निरंकुश शासन को चुनौती दी और एक संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की। मजलिस (संसद) ने शाह की शक्तियों को सीमित किया। लेकिन यह सार्वभौमिक लोकतंत्र नहीं था। पुरुषों, खासकर संपत्ति धारकों, को ही मताधिकार मिला। महिलाएँ, गरीब और कुछ अन्य समूह वोट नहीं डाल सकते थे। ज़ाहिर है शाह और अभिजात वर्ग का प्रभाव बना रहा, जिसने लोकतंत्र को मज़बूत नहीं होने दिया।
1940 के दशक में मोसद्देक जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन को बढ़ावा दिया, लेकिन 1953 के तख्तापलट ने इस लोकतांत्रिक प्रयोग को कुचल दिया। शाह का शासन तानाशाही में बदल गया, जिसे अमेरिका और ब्रिटेन का समर्थन प्राप्त था।
1979 की इस्लामी क्रांति
शाह के शासन में तेल से समृद्धि आई, लेकिन आर्थिक असमानता और दमनकारी नीतियाँ बढ़ीं। शाह की गुप्त पुलिस सवाक (जिसे इसराइल की मोसाद और अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने प्रशिक्षित किया था) ने छात्रों, बुद्धिजीवियों और सुधारवादियों पर अत्याचार किए। पश्चिमी मूल्यों के बढ़ावे से धार्मिक नेता नाराज़ थे। धर्मगुरु आयतुल्लाह रुहल्लाह खुमैनी इस असंतोष के राष्ट्रीय प्रतीक बनकर उभरे जिनके नेतृत्व में 1979 में इस्लामी क्रांति हुई। शाह देश छोड़कर भाग गए।
खुमैनी का एक रिश्ता भारत से भी है। उनका खानदान उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के किंतूर गांव से जुड़ा था। कई पीढ़ी पहले उनके ख़ानदान के लोग अवध आये थे जहाँ के नवाब शिया थे और ईरान के धर्मगुरुओं का काफ़ी सम्मान करते थे। आयतुल्लाह ख़ुमैनी के एक पूर्वज सैयद अहमद मुस्सवी 1830 के आसपास ईरान लौटे थे।
ईरान में इस्लामी शासन ने लोकतंत्र की संभावनाओं को नष्ट कर दिया। 1980 के शुद्धिकरण अभियान में हजारों प्रगतिशील और वामपंथी लोग मार दिये गये या जेल में डाले गये। महिलाओं के अधिकार छीन लिए गए और असहमति की कोई गुंज़ाइश नहीं रही।
ईरान और भविष्य
हाल के वर्षों में ईरान में लोकतांत्रिक आंदोलन, खासकर हिजाब विरोधी प्रदर्शन मज़बूती से उभरे थे। नौजवान अपने अधिकारों के लिए संगठित हो रहे थे, और लोकतांत्रिक क्रांति की आहट थी। लेकिन इसराइली बमबारी ने सब बदल दिया। यह युद्ध ईरानी राष्ट्रवाद को भड़का सकता है, जिससे आंतरिक असंतोष दब जाएगा। अगर ईरान युद्ध हारता है तो शाह का शासन वापस आ सकता है, जो अमेरिका की कठपुतली बनकर जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को फिर पीछे धकेल देगा।
अमेरिका और इसराइल का रुख़ बताता है कि पाँच हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति का यह देश बारूदी ढेर में बदलने के कगार पर है।