शुक्रवार को ईरान में इज़राइल द्वारा किए गए हमले कब तक जारी रहेंगे, और इनका अंतिम लक्ष्य क्या है। यह साफ नहीं है। इस हमले की रणनीति इज़राइल की एक बहु-स्तरीय योजना की ओर इशारा करती है, जिसमें ईरानी शासन की सैन्य पकड़ को कमजोर करना, उसके परमाणु कार्यक्रम की रीढ़ को नुकसान पहुंचाना, ईरान की जवाबी क्षमता को निष्क्रिय करना, नैतिक और मनोवैज्ञानिक झटका देना और अंततः एक ऐसा जनविद्रोह भड़काना शामिल है जिससे इस्लामी गणराज्य का शासन गिर सके। लेकिन क्या यह सब इतना आसान है। जरा अतीत पर नजर डालें।
इज़राइल की मौजूदा रणनीति कई ऐसे तत्वों पर आधारित है जो इज़राइल पहले भी इस्तेमाल कर चुका है – ईरान में और क्षेत्र के अन्य देशों और संगठनों के खिलाफ। सवाल यह है कि क्या इन सभी हथकंडों से ऐसा नतीजा निकाला जा सकता है जो ईरान के खतरे की प्रकृति को ही बदल दे और पूरे क्षेत्र में नई हकीकत बना दे। क्या इज़राइल के ये हथकंडे कामयाब रहे हैं। आज ईरान पहले से ज्यादा मजबूत है।
परमाणु कार्यक्रम को रोकना आसान नहीं
ईरान का परमाणु कार्यक्रम दशकों में बना है। यह कुछ चुनिंदा वैज्ञानिकों पर नहीं टिका है। उसी तरह ईरानी सेना और रिवोल्यूशनरी गार्ड्स भी सिर्फ कुछ वरिष्ठ अधिकारियों पर निर्भर नहीं हैं कि उनके हटने से पूरी सैन्य संरचना ढह जाए। प्रमुख अधिकारी जैसे कि चीफ ऑफ स्टाफ मोहम्मद बाघेरी और रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के कमांडर हुसैन सलामी मारे गए हैं, लेकिन उनकी जगह लेने के लिए नए नेता पहले से तैयार हैं। ये सभी उसी व्यापक तंत्र से निकले हैं जिसने ईरान का परमाणु बुनियादी ढांचा खड़ा किया गया है।
हां, परमाणु ठिकानों को नुकसान जरूर इस कार्यक्रम को कुछ समय के लिए धीमा कर सकता है, लेकिन ईरान का उद्देश्य – एक न्यूक्लियर थ्रेशहोल्ड राज्य बनना – खत्म नहीं होगा। वह चाहें तो “ऑफ-द-शेल्फ” परमाणु हथियार भी हासिल कर सकते हैं। 2015 की परमाणु संधि (JCPOA) का उद्देश्य यही था कि ईरान के इस कार्यक्रम को रोका जाए, बदले में उसे आर्थिक राहत और शासन की स्थिरता दी जाए।
लेकिन 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने, इज़राइल के दबाव में आकर, इस समझौते से अमेरिका को बाहर निकाल लिया। इसके बाद ईरान ने लगातार इस समझौते के नियमों का उल्लंघन किया और अब वह एक पूर्ण परमाणु राज्य बनने की दहलीज पर खड़ा है। अब यही ट्रम्प उस समझौते के लगभग समान संस्करण को फिर से लागू करने की कोशिश कर रहे हैं।
क्या यूएस के बिना इज़राइल इतना बड़ा हमला करता?
यह तय कर पाना मुश्किल है कि अगर हाल ही में तेहरान और वाशिंगटन के बीच समझौता हो गया होता, तो क्या इज़राइल ये हमले करता। लेकिन जो हुआ उसने एक पुरानी धारणा तोड़ दी — कि इज़राइल कभी भी अमेरिका की सक्रिय भागीदारी के बिना ईरान से सीधा युद्ध शुरू नहीं करेगा।
हालांकि अमेरिका ने स्पष्ट किया है कि वह खुद और इज़राइल की रक्षा करेगा, लेकिन उसने यह भी उतनी ही तेजी से दोहराया कि वह इस युद्ध में ‘पार्टी’ नहीं है। ट्रम्प ने तो यह भी आशा जताई कि ईरान फिर से वार्ता की मेज़ पर लौटे — फिलहाल ईरान ने इससे इनकार किया है, लेकिन भविष्य में बातचीत की संभावना को भी पूरी तरह नहीं नकारा है।
अगर अमेरिका-ईरान समझौता हुआ तो क्या करेगा इज़राइल?
अब बड़ा सवाल यह है: अगर अमेरिका और ईरान किसी नए समझौते की दिशा में बढ़ते हैं, जिसमें अमेरिका ईरान को भविष्य के इज़राइली हमलों से सुरक्षा की गारंटी दे, तो इज़राइल की प्रतिक्रिया क्या होगी? यह मसला नेतन्याहू और ट्रम्प के बीच नए टकराव की वजह बन सकता है।
ट्रम्प भले इस हमले को ईरान को बातचीत की टेबल पर लाने के लिए एक रणनीतिक कदम मानें, लेकिन इज़राइल का रुख बिल्कुल अलग है — उसका मानना है कि ईरान से कोई भी समझौता नहीं होना चाहिए। बल्कि ऐसी हकीकत बनानी चाहिए जिसमें कोई समझौता जरूरी ही न हो, क्योंकि ईरान के पास परमाणु कार्यक्रम बचे ही नहीं।
अरब देशों और वैश्विक समुदाय की नाराज़गी
इज़राइल को क्षेत्रीय और वैश्विक समीकरण भी नजरअंदाज नहीं करने चाहिए। सऊदी अरब, यूएई और कतर जैसे अरब राष्ट्रों ने इस हमले की कड़ी निंदा की है और सऊदी अरब ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपात बैठक बुलाने की मांग की।
इन देशों की चिंता यह है कि ईरान की जवाबी कार्रवाई उनके समुद्री व्यापार या तेल आपूर्ति को बाधित कर सकती है। ये सभी देश अमेरिका और ईरान के बीच मध्यस्थता भी कर रहे हैं और उन्होंने साफ कर दिया है कि वे अपने हवाई या भू-भाग का उपयोग किसी हमले के लिए नहीं होने देंगे।
अब तक इन देशों के नेता ट्रम्प और उनके शीर्ष सलाहकारों से बातचीत कर रहे हैं कि इज़राइल को रोका जाए और जितना हासिल हो गया है, वहीं रुककर एक नया समझौता आगे बढ़ाया जाए। ईरान से भी बातचीत चल रही है ताकि यूरेनियम संवर्धन को अस्थायी तौर पर रोका जा सके — यही मुद्दा समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
यूरोपीय देशों का दबाव
फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे JCPOA के मूल हस्ताक्षरकर्ता देशों ने ईरान को चेतावनी दी है कि अगर उसने उच्च-स्तरीय संवर्धन बंद नहीं किया तो वे फिर से प्रतिबंध लागू कर सकते हैं। हालांकि ईरान का तर्क है कि वह अमेरिका से बातचीत कर रहा है, इसलिए उसकी मंशा संदेहास्पद नहीं है।
विडंबना यह है कि इज़राइल के हमले के चलते वह नतीजा आ सकता है जिसे इज़राइल टालना चाहता था — यानी ईरान फिर से बातचीत की मेज़ पर लौट सकता है।
ईरान की प्रतिक्रिया सीमित लेकिन संकेत स्पष्ट
अब तक ईरान की जवाबी कार्रवाई ड्रोन हमलों तक सीमित रही है। उसने इराक की शिया मिलिशियाओं या लेबनान के हिज़्बुल्लाह को अमेरिका या अरब देशों पर हमला करने के लिए नहीं उकसाया — शायद यह संकेत है कि वह इस टकराव को फिलहाल केवल इज़राइल और ईरान के बीच ही रखना चाहता है। लेकिन अगर हमले बढ़ते हैं या शासन के भीतर अस्थिरता पैदा होती है, तो तस्वीर बदल सकती है।
इज़राइल भी अब तक ऐसे कदम उठा रहा है जो अमेरिका को सीधे युद्ध में न घसीटें। अभी के हमले सिर्फ सैन्य और परमाणु प्रतिष्ठानों पर केंद्रित हैं, नागरिक ढांचे को छोड़ दिया गया है ताकि ईरान के भीतर जनता में असंतोष न फैले।
इसी तरह, इज़राइल की नीति अब तक सिर्फ सैन्य कमांडरों को निशाना बनाने की रही है, न कि शासन के वरिष्ठ नागरिक पदाधिकारियों को — यह दिखाने के लिए कि यह युद्ध ईरानी जनता के खिलाफ नहीं, बल्कि उनके सैन्य नेतृत्व के खिलाफ है।
अब अगला कदम क्या?
ग़ज़ा में युद्ध आज भी जारी है। ऐसे में इज़राइल और अमेरिका दोनों को यह तय करना होगा कि “यह सब” कब तक टलेगा — और कब इन्हें बंद कैसे किया जाएगा। अगर ईरान की सभी परमाणु साइट नष्ट नहीं होतीं, तो यह तय करना होगा कि किस स्तर पर इसे ‘गेम-चेंजिंग’ सफलता माना जाए। हमास खत्म नहीं हुआ और उसका श्रेय नेतन्याहू ने ले लिया। हिजबुल्लाह खत्म नहीं, उसका श्रेय भी ले लिया गया। हूती के हमले आज तक इज़राइल नहीं रोक पाया, जबकि अभी हाल ही में यूएस ने यमन में हूतियों के ठिकानों पर बमबारी की थी।
यहीं पर इज़राइल और वाशिंगटन की राहें अलग हो सकती हैं। ट्रम्प को लग सकता है कि समझौते की पुनर्बहाली एक बड़ी सफलता है, जबकि इज़राइल उसे एक विफलता मानेगा – खासकर अगर ईरान भविष्य में फिर परमाणु कार्यक्रम को पुनर्जीवित करने की स्थिति में रहता है।
ईरान पर इज़राइल का यह हमला रणनीतिक रूप से जितना महत्वाकांक्षी है, राजनीतिक रूप से उतना ही जोखिम भरा भी। यह नेतन्याहू की सरकार के लिए अंततः उलटा पड़ सकता है, और अमेरिका में ट्रम्प जैसे नेता को राजनीतिक लाभ दे सकता है। युद्ध का मैदान चाहे जितना दूर हो, लेकिन उसकी राजनीति बेहद नजदीक है — और यही सबसे बड़ी जटिलता है। ट्रम्प खुद श्रेय लेने के लिए कुछ भी कह सकते हैं और सकते हैं। अभी तक वो ईरान को धमका रहे थे। लेकिन अब उन्होंने सऊदी किंग मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) से बात करके कहा है कि यह संघर्ष बढ़ना नहीं चाहिए। इसका क्या मतलब निकाला जाए।