मध्य प्रदेश की राजधानी से लगभग 386 किमी दूर स्थित पन्ना ज़िला दो कारणों से जाना जाता है। पहला यहां पाए जाने वाले हीरों के लिए और दूसरा बाघ की पुनः वापसी के लिए। मगर बुंदेलखंड को जानने वाले जानते हैं कि यह क्षेत्र कृषि संकट, बेरोज़गारी, पलायन, पत्थर की खदानों और उसके कारण होने वाली सिलिकोसिस की बिमारी से भी अभिशप्त है।
जिले के आदिवासी बहुल गांधीग्राम में पत्थर की खदानें, जो कभी रोजगार का साधन थीं, मौत का कारण बन गई हैं। इस एक गांव में ही 20-25 महिलाएं अपने पतियों को सिलिकोसिस से खो विधवा हो गई हैं। यहां इस बिमारी का हाल ऐसे समझिए कि पृथ्वी ट्रस्ट द्वारा 2011 में लगाए गए स्वास्थ्य शिविर में 43 में से 39 लोग सिलिकोसिस से पीड़ित पाए गए।
तिरसिया बाई का परिवार भी पत्थर तोड़ने का काम करता आया है। उनके ससुर और पति दिन भर पत्थरों पर छैनी-हथौड़ी मारते रहते. इसकी एवज में उन्हें सुखद जीवन तो नहीं मिला बल्कि तिरसिया ने 2015 में अपने ससुर वीरन और 2022 में अपने पति इमरतलाल को खो दिया।
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पत्थर, मज़दूर और जानलेवा सिलिकोसिस
कहानी में आगे बढ़ने से पहले जान लेते हैं कि सिलिकोसिस है क्या? सिलिकोसिस एक ऑक्यूपेश्नल लंग डिसीज (Occupational Lung Diseases) है। इसे और आसान भाषा में समझें तो जब तिरसिया के परिवार के लोग जब पत्थर तोड़ते हैं तब उससे उड़ने वाली धूल में सिलिका (silica) के बेहद महीन कण होते हैं। पूरे दिन में काम करते हुए सांस के रास्ते यह कण वीरन, इमरतलाल और उनके जैसे कई मज़दूरों के फेफड़ों में जमा होते जाते हैं। यह कण रेत के एक कण से भी छोटे होते हैं इसलिए इन्हें आंखों से देख पाना न मुमकिन होता है।
सिलिका कण शुरुआत में फेफड़ों में सूजन पैदा करते हैं फिर धीरे-धीरे यह फेफड़ों के टिशु (lung tissue) की कार्यक्षमता को घटा देते हैं। इस बीमारी के चलते पत्थर तोड़ने वालों का फेफड़ा भी पत्थर जैसा ही सख्त हो जाता है। इसके प्रारंभिक लक्षण के रूप में पीड़ित कमज़ोरी और थकावट महसूस करता है फिर लगातार आ रही खांसी, सीने में तनाव और सांस लेने में होने वाली दिक्कत अंत में जाकर प्राण निकलने पर ही ख़त्म होती है।
तिरसिया बाई के ससुर वीरन आदिवासी की मौत 15 जुलाई 2015 को हुई थी। वे सरकार की तरफ से सिलिकोसिस के प्रमाणित मरीज थे। जिसके बाद उनकी मौत पर परिवार को अनुदान राशि भी दी गई।
वीरन की मृत्यु के कुछ दिनों बाद साल 2016 में इमरतलाल में भी सिलिकोसिस के लक्षण दिखाई देने लगे। इसके बाद उनके स्वास्थ्य में भारी गिरावट आई। मगर गरीबी का तकाज़ा था कि वे फिर भी पत्थर खदानों में काम करते रहे। लेकिन जब बीमारी अपने चरम पर पहुंची तो उन्हें चलने में भी दिक्कत होने लगी थी। सांस लेने में भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता और पेट में सूजन रहने लगी। 5 मई 2022 में बीमारी से जूझते हुए उनकी मौत हो गई।
पिता इमरतलाल की तबियत खराब होने के साथ ही बड़े बेटे अरविंद को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वह भी जंगल से लकड़ियां लाकर पन्ना शहर में बेचने लगा। परिवार और पिता की दवाई का खर्च चलता रहा। जब इससे भी खर्च न चला तो अरविंद को भी पिता और दादा की जान लेने वाली पत्थर खदानों में काम करना पड़ा।
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‘अ’नीति और आंकड़ों का फेर
देश और प्रदेश में इस बिमारी का हाल आंकड़ों के ज़रिए ही समझा जा सकता है। यही आंकड़े सरकार के लिए बिमारी से निपटने के लिए बनाई जाने वाली नीति का आधार होते हैं। मगर केंद्र सरकार के तमाम दस्तावेजों में इसके आंकड़े भी एक जैसे नहीं है।
केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की 2022 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में 2008 से लेकर 2022 तक सिलिकोसिस के 441 केस ही दर्ज हुए हैं। इन आकड़ों के अनुसार 2011 में सरकार केवल एक सिलिकोसिस पीड़ित खोज पाई थी। जबकि उसी साल पृथ्वी ट्रस्ट ने सरकारी स्वास्थ्य विभाग के साथ एक कैम्प आयोजित कर एक ही गांव में 43 में से 39 लोग सिलिकोसिस से पीड़ित पाए थे।
वहीं संसद में इससे संबंधित लगातार 2 साल 2 सवाल पूछे गए। इन सवालों में सिलिकोसिस से पीड़ित मरीज़ों की संख्या और इसके लिए उठाए जा रहे सरकारी कदमों के बारे में पूछा गया। मगर दोनों ही बार 2 अलग अलग आंकड़े पेश किए गए।
राजस्थान के करौली-धौलपुर से तत्कालीन सांसद डॉ मनोज राजोरिया ने 2020 में लोकसभा में अतारांकित प्रश्न (Unstarred Question) क्रमांक 4539 पूछा। इसके ज़रिए उन्होंने जानना चाहा कि देश में सिलिकोसिस पीड़ितों की संख्या कितनी है और सरकार ने इनको कितनी मुआवजा राशि दी है? इसका जवाब देते हुए मंत्रालय द्वारा कहा गया,
“राष्ट्रीय खनिक स्वास्थ्य संस्थान, नागपुर द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2015 से 2019 के दौरान सिलिकोसिस के 391 मामले पाए गए हैं।”
वहीं केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार इसी दौरान (2015-19) कोल वर्कर्स न्यूमोकोनियोसिस (CWP), सिलोकोसिस और नॉइज़-इन्ड्यूज्ड हेयरिंग लॉस (NIHL), इन तीनों बीमारियों को मिलाकर भी केवल 24 मरीज़ ही पाए गए हैं। इसी रिपोर्ट में इस आंकड़े के ठीक नीचे एक और आंकड़ा दिया गया है। इसके अनुसार
“सिलिकोसिस के मामलों का पता लगाने के लिए डीजीएमएस द्वारा वर्ष 2017, 2018, 2019, 2020, 2021 और 2022 में पत्थर खदानों और अन्य धातु खदानों में राज्य सरकार के अधिकारियों और अन्य खदान प्रबंधन की मदद से विभिन्न राज्यों में व्यावसायिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किए गए हैं। सर्वेक्षण के दौरान 12657 व्यक्तियों की जांच की गई और सिलिकोसिस के 287 मामले सामने आए।”
यानि सरकार द्वारा अलग-अलग जगह अलग-अलग सर्वे का हवाला देकर अलग-अलग आंकड़े दिए गए हैं। मगर यह बात यहां करना ज़रूरी क्यों है? यह ज़रूरी इसलिए है क्योंकि यह दिखाता है कि सरकार के पास इस बिमारी को लेकर कोई भी एक स्पष्ट आंकड़ा नहीं है। यानि सरकार यह ठीक-ठीक नहीं जानती कि असल में इसके कितने मरीज़ हैं।
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ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए इस बिमारी से पीड़ित लोगों के लिए काम करने वाली प्रसून संस्था के प्रमोद पटेरिया कहते हैं,
“सरकार जानबूझकर सिलिकोसिस पीड़ितों को चिह्नित नहीं करती है. ऐसा करेगी तो उसे मुआवजा देना पड़ेगा।”
वहीं पृथ्वी ट्रस्ट की निदेशक समीना यूसुफ भी कहती हैं कि यहां के सिलिकोसिस पीड़ितों का टीबी समझकर इलाज किया जा रहा है।
सरकार से जब यह पूछा गया कि वह इस बिमारी के प्रति जागरूकता और इससे बचाव के लिए क्या कर रही है? तो संसद में जवाब देते हुए सरकार ने कहा,
“आईसीएमआर-राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान (ICMR-NIOH) ने धूल कम करने, सिलिकोसिस निदान और एगेट तथा क्वार्ट्ज उद्योगों में इसकी रोकथाम की तकनीकें विकसित की हैं। राज्यों ने जोखिम वाले जिलों में सिलिकोसिस स्वास्थ्य इकाइयां स्थापित की हैं जहां मुफ्त एक्स-रे और फेफड़ों की जांच होती है, तथा एनजीओ की सहायता से सिलिका उद्योगों का नियमित निरीक्षण किया जाता है।”
मगर तिरसिया बाई बताती हैं कि जब उनके पति बीमार हुए तो उन्हें ज़िला अस्पताल से टीबी की दवाएं ही दी गईं। मगर सिलिकोसिस के मरीज़ इमरतलाल पर इसका कोई असर नहीं हुआ। आखिर उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी।
तिरसिया ऊपर लिखी किसी भी सुविधा के बारे में नहीं जानतीं। वहीं खुद इस बिमारी के मरीज़ों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि जिन उद्योगों से सिलिकोसिस होता है उनकी मॉनिटरिंग केवल सरकारी शगूफ़ा है।
यह सरकारी लापरवाही ही है कि तिरसिया जैसे कई परिवार एक ऐसी बिमारी से उजड़ गए जो रोटी के बदले उनको मिली। यही मजबूरी तिरसिया के बेटे अरविंद को पत्थर की खदान की ओर जाने को मजबूर कर देती है। अरविंद ने हाल ही में खदान का काम छोड़ा है। होना तो ये चाहिए था कि सरकार उसके लिए कोई वैकल्पिक रोज़गार का इंतज़ाम कर देती। मगर फिलहाल उसे एक एनजीओ की सहायता से वैकल्पिक आय साधन मिला है। उसकी कहानी भी बेहद दिलचस्प है, मगर वह अगले भाग में।
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