ऑक्सफोर्ड यूनियन के एक कार्यक्रम में “फ्रॉम रेप्रेज़ेंटेशन टू रियलाइजेशन: एम्बेडिंग द कॉन्स्टिट्यूशन प्रॉमिस” मुद्दे पर बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी आर गवई ने कहा कि “(संविधान) यह नहीं मानता कि गहरी असमानता से घायल इस भूमि में सभी समान हैं। इसके बजाय, यह हस्तक्षेप करने की हिम्मत करता है, कहानी को फिर से लिखता है, शक्ति को पुनर्संतुलित करता है, और गरिमा को पुनर्स्थापित करता है।”
शायद सीजेआई का यह मतलब था कि भारत का संविधान बनाया ही इसलिए गया था जिससे दो शताब्दियों के औपनिवेशिक शासन के कुप्रभावों और हजारों सालों के अन्याय को ख़त्म किया जा सके। संविधान द्वारा दी गईं सुरक्षायें इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि देश में गहरी असमानता है, जातिगत शोषण है और इसे ख़त्म करने के लिए बहुत से उपायों की जरूरत है।
यह शोषण और असमानता एक झटके में समाप्त नहीं की जा सकती थीं इसलिए इनसे निपटने वाले सिद्धांतों को संविधान में अनुच्छेदों के रूप में समाहित कर दिया गया। जैसे- अनुच्छेद-17, इस होने से लगातार न्यायपालिका के माध्यम से उपर्युक्त बुराइयों पर प्रहार किए जा सके। शायद संविधान निर्माताओं ने यह माना होगा कि यदि लगातार न्यायिक प्रयास होगा तो हमारा भारत एक दी इन बुराइयों को खात्मा कर ही देगा।
अगर सीजेआई के अनमोल शब्दों में जाएँ तो संविधान को बस इस बीच ‘हस्तक्षेप करने की हिम्मत’ करनी थी, ‘शक्ति को पुनर्संतुलित’ करना था और ‘गरिमा को पुनर्स्थापित’ करने का काम करना था। अब सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका यह करने में सफल रही? क्या माननीय सीजेआई जो कह रहे हैं वह सब सचमुच हो रहा है?मैं भी भारत के संविधान से यही चाहती हूँ, यही उम्मीद करती हूँ लेकिन संविधान इसमें कितना सफल रहा, इसको लेकर मेरी राय भारत के मुख्य न्यायाधीश से एकदम अलग है।
संविधान को संभालने का काम संविधान ने खुद भारत के सर्वोच्च न्यायालय को दिया है। यह दायित्व न ही भारत के राष्ट्रपति के पास है, न प्रधानमंत्री के पास है और न ही संसद के पास! केशवानंद भारती मामले के बाद संसद से ऐसा कुछ भी करने का अधिकार छीन लिया गया है जो संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन की ज़रा भी मंशा रखता हो। भारतीय राजनीति का हिन्दूकरण तो कर दिया गया है, तमाम नेता 2024 के चुनावों के पहले यह चाहते थे कि अगर 400 पार हो जाये तो संविधान बदल दिया जाए। लेकिन ना ऐसा हुआ और ना ही संविधान बदला गया।
वैसे भी 400 आने के बाद भी भारत का संविधान उस सीमा के पार तक बदलना जहाँ मूल ढांचे को खतरा हो, संभव नहीं है। यह सिर्फ़ दो स्थितियों में ही संभव है, पहला, जब केशवानंद से बड़ी सुप्रीम कोर्ट की बेंच ऐसा करने की इजाज़त दे दे, दूसरा, यह तब संभव है जब सरकार सुप्रीम कोर्ट की लाश के ऊपर से निकल जाए।
ऐसी स्थिति भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को आधिकारिक रूप से छिन्न-भिन्न कर देगी और फिर इस बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा कि संविधान क्या है और उसमें लिखा क्या है।यह तो साफ़ है कि संविधान और न्यायपालिका अभी मजबूत अवस्था में हैं लेकिन क्या वो अपनी इस स्थिति से ‘हस्तक्षेप’ और ‘पुनर्संतुलन’ जैसे काम कर पा रही है? मुझे शंका है। भारत इस समय न्यायिक अनदेखी और सरकारी नीतियों के आतंक से जूझ रहा है। इसके एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं।
फिर चाहे उस मशीनरी का नाम- भारत निर्वाचन आयोग हो, प्रवर्तन निदेशालय हो या सीबीआई!ऐसी अवस्था में न्यायपालिका की भूमिका बढ़ जाती है। हस्तक्षेप और पुनर्संतुलन की आवश्यकता और बढ़ जाती है। लेकिन न्यायपालिका ऐसा करने में नाकाम रही है। क्या न्यायपालिका का काम सरकार की हाँ में हाँ मिलाना है? क्या न्यायपालिका का काम सरकारी वकीलों के झुंड, जिसमें कुछ संवैधानिक पद भी शामिल हैं, से प्रभावित होना है? नहीं।
न्यायपालिका का काम ‘न्याय के शासन’ को बढ़ावा देना है। और इस बात पर लगातार नजर बनाये रखना है कि कहीं सरकार की नीति यह तो नहीं बनती जा रही है कि अपने विरोधियों को विभिन्न क़ानूनों के माध्यम से जेल में रखा जाए और अपने समर्थकों को उदारता दिखाकर बचा लिया जाए, चाहे वो कितना भी कानून तोड़ें? 31 मार्च 2020 को तत्कालीन सीजेआई बोबडे और जस्टिस नागेश्वर राव की पीठ कोविड से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई कर रही थी।
एक जनहित याचिका थी जो COVID-19 महामारी के कारण लागू 21-दिवसीय राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा को संबोधित करने के लिए दायर की गई थी। भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के सामने, गृहसचिव के हवाले से कहा कि “आज सुबह 11 बजे तक कोई भी सड़क पर नहीं है। उन्हें [प्रवासी मजदूरों को] निकटतम उपलब्ध आश्रय स्थल में ले जाया गया है।”
तुषार मेहता ने देश की सर्वोच्च अदालत के सामने कितना बड़ा झूठ बोला था। सबको पता था कि 24 मार्च को लगाए गए 21 दिवसीय लॉकडाउन की वजह से भगदड़ मच चुकी थी, लोग बदहवास होकर भाग रहे थे। देश के sराष्ट्रीय अख़बारों में मुख्य पृष्ठ में यही सब छप रहा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ़ सरकारी पक्ष को मान लिया बल्कि कभी भी इस झूठ के लिए न तो तुषार मेहता को जिम्मेदार माना और न ही गृहसचिव को।
पश्चिम देशों की अदालतों में झूठ बोलने पर उम्र भर कानूनी प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लग ही जाता है इसके अलावा सालों की क़ैद और लाखों डॉलर का जुर्माना अलग से देना पड़ता है। जब न्यायपालिकाएँ इतनी कठोरता दिखाती हैं तब सरकारी वकील ख़ुद को ख़लीफ़ा समझने की भूल नहीं करते और अदालत के सामने सच बोलते हैं फिर इसके लिए सरकार चाहे जितनी शर्मसार हो, फ़र्क नहीं पड़ता।
क्या भारत की अदालतों को सरकार का मुँह देखकर फैसला या तारीख़ देने की जरूरत होनी चाहिए? क्या इस तरह शक्ति का पुनर्संतुलन स्थापित होगा? मुझे ऐसा नहीं लगता। फादर स्टैन स्वामी का मामला इस बारे में मिसाल है। स्टैन स्वामी, एक 83 वर्षीय जेसुइट पादरी और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता थे जिन्हें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा अक्टूबर 2020 में, भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया गया था।
उन पर गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (UAPA) के तहत आरोप लगाए गए थे। स्वामी, पार्किंसंस रोग और तमाम अन्य बीमारियों से पीड़ित थे, लेकिन उनकी बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति और ठोस सबूतों की कमी के बावजूद कई बार जमानत से वंचित किया गया। उनकी चिकित्सा जमानत की मांग में देरी हुई, और बुनियादी सुविधाएं (जैसे कि उनके कांपने के कारण पीने के लिए सीरप) समय पर नहीं प्रदान की गईं। उनकी जमानत याचिका को पूरी तरह से संबोधित किया जाता उससे पहले ही 5 जुलाई 2021 को हिरासत में ही स्वामी की मौत हो गई।
मैं तो कहूँगी कि माननीय सीजेआई को देखना चाहिए कि इसमें न्याय फेल हुआ या पूरी न्यायपालिका ही फेल हो गई? इतने वृद्ध आदमी को जेल में ठूँस कर सरकार को क्या मिला? क्या न्यायपालिका ने सही समय पर हस्तक्षेप किया? क्या संविधान को पता भी चल पाया कि उसमें लिखे हुए शब्दों ने न्यायपालिका को इतना अंधा बना दिया है कि सरकारी पक्ष मानने को तैयार बैठी पीठें मानवीयता की सीमाएँ लाँघ रही हैं?
इसके अलावा, केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का मामला देखिए। कप्पन को अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार और मृत्यु की खबर कवर करने के लिए जाते समय गिरफ्तार किया गया। उन पर यूएपीए के तहत हिंसा भड़काने और अतिवादी समूहों से संबंध रखने का आरोप लगाया गया। कमजोर सबूतों के बावजूद, उनकी जमानत याचिकाओं को इलाहाबाद उच्च न्यायालय और निचली अदालतों ने बार-बार खारिज कर दिया। बिना चार्जशीट दाखिल किए या बिना किसी मुकदमे को शुरू किए ही कप्पन को लगभग दो साल तक जेल में रखा गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई में एक साल से अधिक समय ले लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर 2022 में उन्हें जमानत दी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, वे बहुत कुछ खो चुके थे। कप्पन की बूढ़ी माँ बीमारी से जूझती रहीं और अतंतः जून 2021 में उनकी मृत्यु हो गई। न्यायपालिका के ये कैसा हस्तक्षेप था? और कैसा संतुलन? सरकार शोषण कर रही थी, न्यायपालिका अनदेखी कर रही थी, लेकिन कोई कुछ नहीं कर सका। यह शर्म का विषय नहीं है तो क्या है?
इसी तरह गर्भवती छात्र कार्यकर्ता सफ़ूरा जरगर को अप्रैल 2020 में यूएपीए के तहत 2020 के दिल्ली दंगों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। सफ़ूरा 6 महीने की गर्भवती थीं, उनकी गर्भावस्था और प्रत्यक्ष सबूतों की कमी के बावजूद, दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून 2020 में उनकी जमानत याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें आरोपों की गंभीर प्रकृति का हवाला दिया गया। ऐसी अवस्था में भी तीन महीने तक उन्हें जेल में रखा गया।
इसी मामले में छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद को 13 सितंबर 2020 को दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने गिरफ्तार किया था और तब से अब तक उन्हें जमानत मिली ही नहीं। 5 साल हो चुके हैं और उमर ख़ालिद पर मुक़दमे की सुनवाई तक शुरू नहीं हुई है। इस बीच तमाम अदालतों ने सरकारी पक्ष को ध्यान में रखते हुए उमर ख़ालिद की जमानत याचिका को स्वीकार नहीं किया है।
मेरा सवाल सीजेआई गवई से है। क्या अनुच्छेद-21 का कोई अर्थ है? क्या इसके अर्थ मनमाने तरह से लगाएं जाते रहेंगे? यदि सरकार के पास एक मजबूत केस है तो अभी तक ट्रायल शुरू क्यों नहीं हुआ और अगर केस मजबूत नहीं है तो सिर्फ़ UAPA कानून का नाम देकर जमानत ख़ारिज क्यों की जा रही है? यह तो न्याय के शासन की तौहीन है।
न्यायपालिका संसद के बहुमत से बनाये गए किसी कानून पर अंधा भरोसा नहीं कर सकती। मुझे न्यायपालिका, मुख्यरूप से सुप्रीम कोर्ट से यह उम्मीद है कि वो कार्यपालिका द्वारा कानून के दुरुपयोग को ध्यान से देखेँ और जब मामला ‘जीवन के अधिकार’ के हनन का हो तो कोर्ट को उमर ख़ालिद जैसों के साथ खड़ा होना चाहिए न कि सरकारी वकीलों की उन दलीलों के साथ जिसमें तरह तरह के बहाने बनाये जाते हैं जिससे जमानत मिलने ही न पाये।
ऐसा ही एक मामला दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और 90% शारीरिक विकलांगता धारण करने वाले, व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ता जी.एन. साईंबाबा का है जिन्हें 2014 में यूएपीए के तहत कथित माओवादी संबंधों के लिए गिरफ्तार किया गया। 2017 में महाराष्ट्र सत्र अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने उनकी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद कई बार जमानत से वंचित किया। किसी तरह बांबे उच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत दे दी लेकिन 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने 2022 के बॉम्बे उच्च न्यायालय के जमानत आदेश को निलंबित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस एम आर शाह की पीठ ने छुट्टी के दिन प्रोफेसर साईंबाबा की सुनवाई करके 90% अपंगता वाले इंसान की जमानत को रद्द कर दिया। अंततः 5 मार्च 2024 को, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सबूतों की कमी का हवाला देते हुए साईंबाबा को बरी कर दिया, लेकिन तब तक वे 10 सालों तक जेल में रह कर परेशान हो चुके थे। अंततः 12 अक्टूबर को साईं बाबा की मौत हो गई। एक दशक तक एक 90% अपंगता वाला व्यक्ति जेल में आतंकी गतिविधियों के आरोप में जेल में रखा गया, देश में यह संदेश गया कि यह आदमी देशद्रोही है और इस बीच सरकार उनपर सिर्फ़ आरोप ही लगाती रह गई और देश का सर्वोच्च न्यायालय कुछ नहीं कर सका।
माननीय सीजेआई गवई, क्या न्याय की परिभाषा बदल गई है? क्या अब यह अपने नागरिकों को फेल करने का पर्याय बन गया है? क्या यह मानवता का ह्रास नहीं है, जिसके लिए जितनी सरकार दोषी है उतना ही न्यायपालिका भी ।जिस तरह की बात सीजेआई गवई ने कही लगभग उसी तरह की बातें जस्टिस वी आर कृष्णा अय्यर ने भी कहीं, कि “न्यायपालिका को सबसे कमजोर के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए सतर्क प्रहरी बनना चाहिए, क्योंकि कानून का शासन एक न्यायपूर्ण लोकतंत्र की आधारशिला है।”
अगर न्यायपालिका नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार से कड़े सवाल नहीं पूछेगी, सरकार को कठघरे में नहीं खड़ा करेगी तो कितने दिन यह लोकतंत्र जिंदा रहेगा? क्या देश की सर्वोच्च अदालत यह नहीं जानती कि देश की जेलों में स्थितियां क्या हैं? कितनी अमानवीयता है? और अगर सरकार किसी एक्टिविस्ट को जेल से बाहर नहीं लाना चाहती तो इसका मतलब है कि सरकार सिविल सोसाइटी की रीढ़ में वो इंजेक्शन लगाना चाहती है जिससे सरकार का विरोध, सरकार के फैसलों के ख़िलाफ़ असहमति को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाय। जिससे भारत के लोगों में यह संदेश चला जाए कि यदि सरकार का विरोध किया तो जीवन जेल में ही गुज़र जाएगा और जेल का मतलब है नर्क।
तो क्या यह संदेश साफ़ है कि सरकार के विरोध में गए तो नर्क ही भोगना पड़ेगा? माननीय सीजेआई क्या आपको नहीं लगता कि विपक्ष और असहमति की अनुपस्थिति में लोकतंत्र बहुत दिनों तक नहीं जीवित बच पाएगा? असल में संविधान का काम है कि ‘हस्तक्षेप’ और ‘पुनर्संतुलन’ सही समय पर जरूर किए जाएँ, जिससे सरकार को यह भ्रम न हो कि ‘सरकार’ ही भारत है। असल में, सरकार मुट्ठी भर लोगों का समूह भर ही तो है, भारत इस छोटे से समूह के बाहर करोड़ों की संख्या में खड़ा है, न्यायपालिका को उनके साथ और उनके अधिकारों के लिए खड़ा रहना चाहिये क्योंकि वही असली भारत हैं!