राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद के घटनाक्रम पर अभी नागपुर में जो प्रतिक्रिया दी, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निराश करने के लिए काफ़ी है।
मोदी खेमे को उम्मीद थी कि संघ प्रमुख, जो 30 अप्रैल 2025 को प्रधानमंत्री से एक घंटे की मुलाकात के बाद लौटे थे, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के लिए उनका खुलकर समर्थन करेंगे।
लेकिन कार्यकर्ता विकास वर्ग द्वितीय के समापन समारोह में भागवत के बयान ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी। उन्होंने न तो मोदी का नाम लिया, न ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का जिक्र किया, और न ‘सीज़फायर’ का उल्लेख किया।
समस्या खत्म नहीं हुई” – सेना की कार्रवाई पर सवाल?
भागवत ने कहा, ‘पहलगाम हमले के बाद की कार्रवाई के बावजूद संकट बरकरार है।’ उन्होंने सेना की कार्रवाई की सराहना की, लेकिन यह कहना कि समस्या का समाधान नहीं हुआ, सवाल उठाता है। क्या भागवत का यह बयान सेना की कार्रवाई पर सवाल है? यह सवाल उन लोगों के लिए भी है जो सवाल उठाने वालों को कठघरे में खड़ा करते हैं।
9 मई को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू होने के बाद भागवत ने देशवासियों से सेना और सरकार का समर्थन करने की अपील की थी। लेकिन अचानक युद्धविराम ने संघ को भी असमंजस में डाल दिया। संघ आश्चर्य में है कि ये क्यों हुआ।
दशकों से भाजपा और संघ परिवार कांग्रेस पर आरोप लगाते रहे हैं कि उसने 1971 समेत कई मौक़ों पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) पर कब्जा नहीं किया।
विपक्ष के सवाल
भागवत का बयान ऐसे समय आया जब विपक्ष ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर सवाल उठा रहा है और संसद के विशेष सत्र की मांग कर रहा है। विपक्ष के प्रमुख सवाल हैं:
- विदेश मंत्री ने ऑपरेशन शुरू होने पर पाकिस्तान को क्यों सूचित किया?
- जब सेना जीत रही थी, तो युद्धविराम क्यों?
- सीज़फायर की घोषणा अमेरिका ने क्यों की?
- राष्ट्रपति ट्रंप ने 13 बार मध्यस्थता की बात क्यों कही?
- पीएम मोदी ने इसका खंडन क्यों नहीं किया?
- कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा रखने की नीति के खिलाफ अमेरिका की मध्यस्थता क्यों?
- क्या इस ऑपरेशन में राफेल समेत पांच भारतीय विमान गिरे, जैसा कि सुब्रमण्यम स्वामी ने दावा किया?
भारतीय सेना के चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ जनरल अनिल चौहान ने ब्लूमबर्ग को दिए साक्षात्कार में संकेत दिया कि विमानों के गिरने से ज़्यादा अहम यह है कि वे क्यों गिरे। सरकार इन सवालों का जवाब देने से बच रही है।
सवाल यह भी है कि जब पीएम मोदी ने 80 से अधिक देशों का दौरा किया, तो इस युद्ध में केवल दो-तीन देशों को छोड़कर कोई साथ क्यों नहीं आया? क्या यह विदेश नीति की नाकामी नहीं?
इन मुद्दों पर मोहन भागवत का मौन और यह कहना कि समस्या का हल नहीं निकला, साफ़ करता है कि संघ खुश नहीं है।
संघ का मोदी से मतभेद
संघ और मोदी सरकार के बीच मतभेद नए नहीं हैं। 2024 के चुनाव में भाजपा ने ‘400 पार’ का नारा दिया और विपक्ष को दुश्मन की तरह देखते हुए आक्रामक प्रचार किया। मोदी ने मंगलसूत्र, घुसपैठिए, और ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसे सांप्रदायिक बयान दिए। इससे हिंदू-मुसलमान के बीच खाई बढ़ी, लेकिन जनता ने भाजपा को 240 सीटों पर समेट दिया।
विपक्ष ने दावा किया कि ‘400 पार’ का नारा संविधान बदलने के लिए था, जो दलितों-पिछड़ों के मन में बैठ गया। इस बीच, भागवत के बयान, जैसे “हिंदुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है” और “मुसलमान और ईसाई भी समाज का हिस्सा हैं,” नक्कारखाने में तूती की तरह दब गए।
भागवत का ‘समाज’ पर जोर
पहलगाम हमले के बाद आतंकियों द्वारा धर्म पूछकर हत्या की कोशिशों ने सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ रैलियाँ निकालकर इस नैरेटिव को तोड़ा।
वहीं, उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कभी मुस्लिम दुकानदारों को नेमप्लेट लगाने और महाकुम्भ में उनके प्रवेश पर रोक जैसे कदम उठाये। हालाँकि गंगा-जमुनी तहजीब के साक्षात प्रतीक संगम में जहाँ साफ़ तौर पर गंगा और जमुना नदियों की धाराएँ मिलती हैं, वहां मोदी-योगी के नारे उसी संगम में तब डूब गये, जब कुम्भ के हजारों भगदड़ प्रभावितों को प्रयागराज के मुसलमानों ने अपने घरों में शरण देकर गंगा-जमुनी तहजीब का उदाहरण पेश किया।
बीजेपी शासित यूपी में मुसलमानों के ख़िलाफ़ बुलडोजर कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट को रोक लगानी पड़ी। मस्जिदों पर तिरपाल, मंदिर खोजने, और औरंगजेब की कब्र खोदने जैसे मुद्दों पर संघ के भैयाजी जोशी को कहना पड़ा कि औरंगजेब यहीं पैदा हुआ और उसकी कब्र यहीं रहेगी।
मोदी का दोहरा रवैया
मोदी ने पहले तो ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसे सांप्रदायिक नारे दिए, लेकिन ईद पर ‘सौगात ए मोदी’ की घोषणा कर पाला बदल लिया। इससे भाजपा समर्थक असमंजस में पड़ गए।
जो संघ हिंदू एकता के सावरकर के बुनियादी विचारों पर खड़ा है और हमेशा से जाति प्रथा के साथ आरक्षण का भी विरोध करता रहा है, यहां तक कि स्वयं मोदी भी इसके खिलाफ बोल चुके हैं, उन्हीं मोदी ने अचानक अगली जनगणना में जातियों की गणना कराने के राहुल गांधी की मांग को मंजूरी दे दी, तो उनके इस अप्रत्याशित कदम से समूचा संघ परिवार हिल गया। यह सावरकर समेत समूचे संघ की सोच पर हमला था।
बीजेपी अध्यक्ष पद का विवाद
आरएसएस प्रमुख के हालिया बयानों और भाजपा की रणनीति के बीच जो अंतर दिख रहा है, उसके पीछे एक अहम बिंदु है – भाजपा के पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव।
संघ और मोदी-शाह के बीच बीजेपी अध्यक्ष पद को लेकर एक साल से मतभेद चल रहे हैं। मार्च 2025 में मोदी नागपुर गए और 30 मई को भागवत दिल्ली में मोदी से मिले, लेकिन मसला अनसुलझा रहा।
मोदी ने 11 साल में पार्टी को स्वकेन्द्रित बनाया, पार्टी की बजाय ‘मोदी की गारंटी’ को बढ़ावा दिया। और इसे चुनाव जीतने के लिए जरूरी बताकर संघ का मुंह बंद रखा। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। तभी से संघ भाजपा के संगठन को मज़बूत करने पर जोर दे रहा है। एक और बात संघ को चुभ गयी – पिछले लोकसभा चुनाव नतीजों से पहले ही बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यह कहकर सनसनी मचा दी कि बीजेपी अब बड़ी और सक्षम हो चुकी है, उसे संघ के निर्देश की आवश्यकता नहीं।
चुनाव में 240 सीटें मिलने पर मोदी ने बिना कार्यकारिणी या संघ से सलाह लिए एनडीए की बैठक बुलाकर खुद को फिर से नेता घोषित कर लिया। अब संघ अपने विश्वासपात्र को अध्यक्ष बनाना चाहता है, जबकि मोदी-शाह 2029 के लिए सरकार के साथ पार्टी पर भी पूरा नियंत्रण चाहते हैं।
75 साल की उम्र का नियम
मोदी ने 75 साल की उम्र में नेताओं को रिटायर करने का नियम बनाया, जिसके तहत आडवाणी, जोशी जैसे नेता हाशिए पर चले गए। अब सितंबर 2025 में मोदी खुद 75 साल के होंगे। पार्टी नेता चाहते हैं कि यह नियम उन पर भी लागू हो। लेकिन वो पद छोड़ने के मूड में नहीं। चूंकि पार्टी अध्यक्ष ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करता है, इसलिए मोदी अपनी पसंद का अध्यक्ष चुनना चाहते हैं, पर संघ अब मोदी को मौका देने के मूड में नहीं है।
मोदी के लिए ट्रंप की मध्यस्थता की बात और ऑपरेशन की सफलता विफलता पर चर्चा की मांगों से ज़्यादा बड़ा तनाव का कारण पार्टी का अगला अध्यक्ष पद का चुनाव है। भागवत का ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर मोदी का नाम न लेना और समस्या का हल न होने की बात कहना साफ़ करता है कि संघ और मोदी के बीच मतभेद गहरे हैं। अगले कुछ महीनों में पार्टी अध्यक्ष का चुनाव इस सवाल का जवाब दे देगा कि आखिर किसकी चली और कौन बनेगा बादशाह।
(लेखक ओंकारेश्वर पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और विभिन्न अखबारों, टीवी चैनलों, डिजिटल मीडिया के संपादक रहे हैं। वह राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ हैं।)