उत्तर प्रदेश सरकार ने लगभग 5000 परिषदीय स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है। परिषदीय स्कूलों में कक्षा 8 तक शिक्षा प्रदान की जाती है। उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा अपर सचिव दीपक कुमार ने आदेश दिया है कि जिन स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या 50 से कम है उन्हें बंद किया जाएगा। प्रशासन का कहना है कि, बंद किए जाने वाले स्कूलों के छात्रों को पड़ोस के किसी अन्य स्कूल में प्रवेश दिलाया जाएगा। आंकड़े के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 500 स्कूल ऐसे भी हैं जहाँ एक भी शिक्षक नहीं है। ये स्कूल शिक्षामित्रों के भरोसे चलाए जा रहे हैं। इन स्कूलों को भी बंद किए जाने की योजना है।
22 लाख छात्र यूपी में घटे
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में लगभग एक लाख 32 हज़ार प्राथमिक विद्यालय हैं। जहाँ साल दर साल प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या घटती जा रही है। वर्ष 2022-23 में जहाँ 1 करोड़ 92 लाख छात्रों ने इन स्कूलों में प्रवेश लिया था वहीं 2023-24 में यह संख्या घटकर 1 करोड़ 74 लाख पहुँच गई। यह 18 लाख छात्रों की गिरावट थी और यह संख्या देश में सबसे ज़्यादा थी। लेकिन योगी सरकार ने कोई भी आवश्यक कदम नहीं उठाया जिससे इस गिरावट को रोका जा सके। सरकार की इस नीतिगत नाकामी के कारण यह गिरावट 2024-25 में भी जारी रही। इस वर्ष छात्रों के प्रवेश की यह संख्या 22 लाख और घट गई यह अब घटकर मात्र 1 करोड़ 52 लाख ही रह गई।अब सरकार अपनी नाकामियों से कुछ सीख लेकर सुधार नहीं कर रही है बल्कि इस का ठीकरा स्कूलों और वहाँ के अध्यापकों के ऊपर फोड़ने में लगी है। स्कूलों को बंद किया जा रहा है और अध्यापकों को उन स्कूलों के साथ जोड़ा जाना है जहाँ शिक्षकों की संख्या कम है। जब प्रदेश में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, ऐसे में स्कूलों की संख्या बढ़नी चाहिए थी, और ज़्यादा से ज़्यादा शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं हो रहा है, ऐसा होता तो कहा जाता कि यह एक बेहतर कदम होता। पर सरकार ऐसा करने में नाकाम रही।
65 हजार टीचरों को कहां बैठाएंगे
सोचने वाली बात है कि जो छात्र 10 कदम दूर स्थित स्कूलों में प्रवेश के लिए नहीं आ रहे हैं वो स्कूल बंद हो जाने के बाद, कुछ किलोमीटर और दूर स्थित किसी नए स्कूल में प्रवेश के लिए कैसे जाएँगे? इस सवाल का जवाब सरकार के पास नहीं है, या फिर वह जो हो रहा है उस नुकसान को होने देने के लिए तैयार है। इस साल उम्मीद की जा रही थी कि 65 हज़ार शिक्षकों की भर्ती होगी लेकिन जब सरकारी स्कूल ही बंद किए जा रहे हैं तो इन शिक्षकों की भर्ती कहाँ पर की जाएगी?
छात्रों के मुकाबले कम टीचर
वास्तविकता तो यह है कि उत्तरप्रदेश के इन स्कूलों में शिक्षक-छात्र अनुपात बहुत ख़राब अवस्था में है। शिक्षा, संस्कृति और विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट एजेंसी यूनेस्को ने इस संबंध में जो मानक दिया है वो 1 और 30 (1:30)का अनुपात है, इसका मतलब है कि 30 विद्यार्थियों पर कम से कम एक शिक्षक ज़रूर होना चाहिए। यही अनुपात शिक्षा के अधिकार अधिनियम(RTE) के तहत भी वैधानिक रूप से अनुशंसित किया गया है। जबकि उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 1:45 है और राष्ट्रीय अनुपात 1:35 है। यह साफ़ है कि सरकार को ज़्यादा स्कूल खोलने और शिक्षक-छात्र अनुपात को बेहतर बनाने की आवश्यकता है।सरकार इस समस्या के समाधान से भाग रही है। सार्वभौमिक विकास की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले माता-पिता बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय उन्हें घर के ही किसी अन्य काम में लगा रहे हैं। नकदी की कमी, बर्बाद होता रोजगार और असुविधाओं से पटा पड़ा भारत का ग्रामीण क्षेत्र बच्चों को स्कूल भेजने से अब कतरा रहा है। ऐसे में अगर सरकारी हलकों से यह बात छन-छनकर आए कि लोग इंग्लिश मीडियम में पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूलों से बच्चों को निकाल रहे हैं तो यह एक मजाक ही लगता है और कुछ नहीं।आंकड़ों से यह समझ में आयेगा कि यह सरकार की नीति नहीं है, असल में यह भारतीय जानता पार्टी की नीति है।
सरकारी स्कूलों की संख्या में 8% की गिरावट
प्रधानमंत्री मोदी की चहेती संस्था, नीति आयोग, जिसने 2014 में नेहरू की योजना आयोग का स्थान लिया था वो 2023 में आधिकारिक रूप से स्कूलों के विलय की सिफारिश कर चुकी है। यही सिफारिश तमाम बीजेपी शासित राज्यों ने पूरे दिल से लगाई और पिछले दस सालों में 89,441 स्कूलों को बंद कर दिया। 29,410 स्कूल तो सिर्फ़ मध्य प्रदेश में बंद कर दिए गए जहाँ बीजेपी पिछले 19 सालों से सत्ता में है।सरकार द्वारा दिए गए इन आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि बंद हुए कुल 89,441 स्कूलों में से लगभग 65,000 स्कूल अर्थात लगभग 73% स्कूल, उन राज्यों में बंद हुए जहाँ बीजेपी का शासन है।
क्या है एजेंडा
बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। असली एजेंडा है सरकारी से प्राइवेट की ओर बढ़ना। इसी दौर में जब 8% सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा था, सस्ती और बेहतरीन शिक्षा को हतोत्साहित किया जा रहा था उसी समय महंगी और बेलगाम फीस वसूली करने वाले प्राइवेट स्कूलों की संख्या में लगभग 15% की बढ़ोत्तरी हो रही थी।मैं सरकारी स्कूलों की संख्या के घटने और प्राइवेट स्कूलों की संख्या के बढ़ने के बीच के किसी नेक्सस के बारे में नहीं बताऊँगी बल्कि यह पाठकों के विवेक पर जरूर छोड़ूँगी कि वो सोचें कि आख़िर ऐसा कैसे और क्यों हो रहा था? यह जरूर सोचना चाहिए कि आख़िर जिस दौर में 89,441 सरकारी स्कूल बंद हो रहे थे उसी समय 42,944 प्राइवेट स्कूल क्यों खोले जा रहे थे?निजी स्कूलों को खोले जाने पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि 85 करोड़ लोगों को हर महीने तीन बार राशन प्रदान करने वाली यह भारत सरकार ऐसा क्यों सोच रही है कि उसके देश के गरीब, खासकर, ग्रामीण, उसके पास इतना धन तो होगा कि वो अपने बच्चों को धन मशीन बन चुके प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा सकेगी?सवाल यह उठता है कि क्या भारत में आम लोगों की स्थिति दयनीय नहीं है? क्या संविधान की प्रस्तावना में लिखा शब्द ‘लोग’ अब सिर्फ़ मिलेनियर और बिलेनियर लोगों के रूप में तब्दील हो चुका है? क्या इस देश में धनपतियों का राज स्थापित हो चुका है? क्या फैसले धनपतियों के फायदे को ध्यान में रखकर लिए जा रहे हैं और सत्ता में बने रहें इसके लिए वोट गरीबों से लिए जा रहे हैं?
भारत में आर्थिक असमानता
गिनी सूचकांक के माध्यम से आर्थिक असमानता को नापा जाता है। जितना ज़्यादा गिनी सूचकांक होगा असमानता उतनी अधिक होगी। नेहरू जी के समय 50 के दशक में गिनी सूचकांक लगभग 0.371 था जो कि 2023 में बढ़कर 0.410 हो गया। ऑक्सफैम, 2024 के अनुसार, भारत में शीर्ष 1% लोग देश की 40% से अधिक संपत्ति के मालिक हैं। यहाँ नीचे के 50% लोगों के पास केवल 3% संपत्ति है। इसी स्थिति को “बिलेनियर राज” कहा गया है। रिपोर्ट ने बताया कि भारत में वर्तमान आर्थिक विषमता ब्रिटिश राज की विषमता से भी आगे निकल गई है। और ऐसे समय में सरकार को लगता है कि धन पीने वाले प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने के लिए हिंदुस्तान का गरीब तबका तैयार है!
प्राइवेट स्कूलों की फीस
लेकिन अगर इसे ही मानक समझ लें तो भारत की प्रतिव्यक्ति आय 2025 में केवल 2,880 डॉलर, मतलब लगभग 2.39 लाख रुपये है। जोकि वैश्विक औसत 14,210 डॉलर का लगभग पांचवा हिस्सा है। मतलब भारत में औसतन एक महीने में लगभग 20 हज़ार की आय हो रही है। अब ये समझें कि देश में चल रहे प्राइवेट स्कूल प्रतिमाह कितनी फीस वसूल रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार भारत में चल रहे प्राइवेट स्कूल 2500 रुपये से लेकर 50,000 रुपये प्रतिमाह वसूल रहे हैं। अगर बहुत अभिजात्य स्कूलों को छोड़ दें तो भी ये औसत लगभग 8000 रुपये प्रतिमाह के आसपास आयेगा। तो क्या जिस समाज के व्यक्ति की 20 हज़ार रुपये मासिक आमदनी हो वो अपने औसतन दो बच्चों की पढ़ाई में लगभग 16 हज़ार रुपये खर्च कर सकता है? नहीं कर सकता!मुझे नहीं लगता कि लोग सरकारी स्कूलों से बच्चों को निकाल कर प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं। मुझे लगता है लोग अपने बच्चों को स्कूलों से निकाल कर उन्हें घर के कामों में लगा रहे हैं। क्योंकि लोग जान गए हैं कि सरकार पढ़े-लिखे लोगों को नौकरी नहीं दे पा रही है, ऐसे में पढ़ने लिखने से क्या फ़ायदा! यह बात लुकी छिपी नहीं है कि भारत में शिक्षित बेरोजगारों की एक अप्रत्याशित संख्या मौजूद है और सरकार वादों और भाषणों के अतिरिक्त कुछ और कर पाने में सक्षम नहीं रही।असल में राशन बाँटने के अलावा जो कुछ भी किया जा रहा है वो सिर्फ़ अमीरों के लिए किया जा रहा है उसमें गरीबों की भूमिका सिर्फ़ लाचार उर मूक दर्शक के रूप में रह गई है। वरना सोचिए कि बिहार में जहाँ शिक्षक-छात्र अनुपात 1:50 है जहाँ प्रतिव्यक्ति आय मात्र एक लाख वार्षिक है, वहाँ एक दशक में निजी स्कूलों की संख्या में लगभग 180% की वृद्धि से कौन सी कहानी कही जा रही है?असली प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़े तो और भी चौंकाने वाले हैं। राष्ट्रीय स्तर पर यह लगभग एक लाख है और बिहार जैसे राज्यों में तो यह मात्र 36,000 रुपये प्रतिवर्ष ही है और यूपी में लगभग 51,000 रुपये प्रतिवर्ष। अगर किसी को लगता है कि इतनी कम कमाई करने वाला समाज अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा सकता है तो वह गलतफहमी का ही शिकार है।
सरकारी बनाम प्राइवेट स्कूल
5000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला करने वाले उत्तर प्रदेश में पिछले दस सालों में लगभग 43 हज़ार प्राइवेट स्कूल खोले गए हैं। शिक्षा को मजाक बनाया जा रहा है, शिक्षा को एक खास वर्ग तक ही सीमित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार समेत तमाम राज्यों में जो कुछ भी किया जा रहा है वो असल में असंवैधानिक है। शिक्षा के अधिकार को ना सिर्फ़ वैधानिक मान्यता है बल्कि इसका संवैधानिक आधार भी है। 2009 में लाया गया शिक्षा का अधिकार कानून एक लंबी प्रक्रिया और कड़ी मशक्कत के बाद लाया गया कानून है इसे स्कूल बंद करके झटके में समाप्त करने की कोशिश असंवैधानिक है।
संविधान में जो लिखा है
संविधान के शुरुआत में ही भाग-4, राज्य के नीतिनिदेशक तत्वों में शिक्षा देने के दायित्व को सरकार के ऊपर छोड़ा गया। इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण कदम 1990 में उठाया गया जब राममूर्ति समिति, जिसने शिक्षा के अधिकार का दस्तावेज तैयार किया, फिर सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में इसे अनुच्छेद-21, जीवन के अधिकार से जोड़ा। इसके बाद 1999 की तपस मजूमदार समिति ने इसे अनुच्छेद-21ए के रूप में जोड़ने की अनुसंशा की, जिसे अंततः 86वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ दिया गया। और अंत में UPA-2 के शासन में इस संवैधानिक प्रावधान को कानूनी ढांचे में तब्दील कर दिया गया जिससे सरकार को हर हाल में 6-14 साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना ही है। अब वो किसी नीति, मजबूरी या समिति के पीछे नहीं छिप सकती। लेकिन यूपी सरकार संभवतया इसका पालन नहीं करना चाह रही है इसीलिए स्कूलों को बंद किया जा रहा है। शिक्षकों को ‘एक्सपोर्ट’ करने का सपना दिखाने वाले नेता अब देश में ही शिक्षकों की कमी पर ख़ामोश हैं। एक तरफ़ रामदेव जैसे व्यापारियों के लिए शिक्षा के दरवाज़े व्यवसाय के लिए खोले जा रहे हैं, उन्हें नया बोर्ड तक बनाने की अनुमति दे दी गई है तो दूसरी तरफ़ असमानता से जूझ रहे ग्रामीण बच्चों से उनके शिक्षा के अधिकार तक को छीना जा रहा है। प्रवेश बढ़ा पाने में नाकाम हुई सरकार अपनी नाकामी को छिपाने के लिए संविधान के साथ खेल कर रही है, लंबे समय तक चले उस प्रयास के साथ खिलवाड़ कर रही है जिसने अपनी जनता को शिक्षा का अधिकार प्रदान किया। यदि इस नीति को नहीं बदला गया तो आने वाले समय में करोड़ों ग्रामीण बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाएँगे। यह देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा।