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    Home » लोग हक़ के लिए लड़ते तो भगदड़ रोकने को दबाव में होती सरकारें!
    भारत

    लोग हक़ के लिए लड़ते तो भगदड़ रोकने को दबाव में होती सरकारें!

    By February 16, 2025No Comments7 Mins Read
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    महाकुम्भ के नाम पर हादसे- पर- हादसे होते जा रहे हैं। देश की राजधानी के नई दिल्ली स्टेशन पर बीती रात भगदड़ में 18 कुम्भ तीर्थयात्री परलोक सिधार गए। 19 -20 दिन पहले प्रयागराज के महाकुम्भ स्थल की भगदड़ में 30 भक्त लोग अज्ञात- अदृश्य मोक्ष को प्राप्त हो चुके थे। यह आधिकारिक आँकड़ा है। लेकिन, अघोषित वास्तविक आँकड़े कई गुना अधिक माने जाते हैं। जब नई दिल्ली स्टेशन का हादसा -आँकड़ा बढ़ता गया है, तब महाकुम्भ की त्रासदी के आँकड़ों का अनुमान सहज में लगाया जा सकता है। प्रयागराज में तो तीन-तीन बार भगदड़ मचने की ख़बरें छपी हैं। इससे त्रासदी की गहराई की कल्पना की जा सकती है।  

    इसी सन्दर्भ में कोविड -महा त्रासदी की याद आना स्वाभाविक है। कोविड महामारी के आंकड़ों पर आज भी रहस्य की चादर पड़ी हुई है। अलबत्ता भारत सरकार के एक महाझूठ का पर्दाफ़ाश ज़रूर हुआ। सरकार ताल ठोक कर कहती रही कि देश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। देश के लोग सच्चाई जानते हैं। राजधानी दिल्ली में ही इस जीवनदायनी गैस के अभाव में लोग काल का ग्रास बने हैं, जिसमें इस पत्रकार के परिचित भी शामिल हैं। अतः कोविड -त्रासदी और महाकुम्भ त्रासदी से सम्बंधित आंकड़ों के प्रति सरकारी नीयत कैसी है, यह स्वतः उजागर है। सरकार के दोहरे चरित्र की पुष्टि 2021 में गुजरात की कवयित्री पारुल खाखर की विश्व विख्यात कविता ‘शव वाहिनी गंगा‘ से की जा सकती है। आज महाकुम्भ की महात्रासदी के सन्दर्भ में फिर से इस कविता की गूंज कानों में सुनाई दे रही है।

    सवाल यहां आंकड़ों का भी नहीं है। वैसे, महा बदइंतज़ामी का तो है ही। इस दृष्टि से केंद्र की मोदी और प्रदेश की योगी, दोनों सरकारें ऐतिहासिक रूप से ‘नाकाम’ साबित हुई हैं। तमाम हाईटेक घोषणाओं और पांच सितारा इंतज़ाम के बावज़ूद हादसे-पर- हादसे होते गए हैं। लेकिन, सरकारों को कटघरे में खड़ा करने के साथ-साथ भक्तगण भी सवालों से पलायन नहीं कर सकते। निःसंदेह, देश का जनमानस मूलतः धर्मभीरु है। उसकी दृढ़ आस्था है। सवा सदी के बाद महाकुम्भ के अवसर का आना धर्मप्राण जनता के लिए हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है; डुबकी लगा कर लोक -परलोक दोनों को सुधारना है; शासक नेता और पूंजीपति भी पीछे क्यों रहने लगे; राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से लेकर आम मंत्री-संत्री और उद्योगपति ने डुबकियां लगा कर पुण्य कमाया और स्वर्ग में स्थान सुरक्षित किया।  

    इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्मान्धता की सुनामी लाने में प्रचार तंत्र ने अराजक रोल अदा किया है; विज्ञापनों, सरकारी घोषणाओं और नेताओं के भाषणों से जनता जनार्दन धार्मिक सुनामी में परिवर्तित होती गई और महाकुम्भ की कोख में मौतें पलने लगीं; विमानों, ट्रेनों और कारों का तांता लग गया; मीलों लम्बा यातायात जाम रहा। इस धार्मिक सुनामी ने मनुष्य की चेतना, विवेक, और नागरिक ज़िम्मेदारी को सुन्न कर दिया। सारांश में, महाकुम्भ हिन्दू प्राण जनता की चेतना-विवेक – ज़िम्मेदारी शून्यता का वाहक बन गया। परिणाम निकला, भक्तों की मौतें।

    सवाल यह है कि क्या करोड़ों की यह भक्त जनता या भीड़ कभी अच्छे स्कूल, अच्छी शिक्षा, गरिमापूर्ण नौकरी, साफ़ पानी, पर्याप्त आवास, सस्ती चिकित्सा, महंगाई क्यों है, साग-सब्ज़ी -तेल के दाम कम क्यों नहीं हो रहे हैं पेट्रोल की क़ीमतें क्यों चढ़ रही हैं

    क्या जनता ऐसे बुनियादी मुद्दों के लिए संगठित हो कर सड़कों पर उमड़ती है एम्स और अन्य दूसरे अस्पतालों के परिसर में लोग दिन-रात क्यों पड़े रहते हैं क्या यह कभी अपने शासकों से पूछती है कि उन्हें क्यों ठगा जा रहा है सरकार उन्हें गुणवत्ता का जीवन क्यों नहीं दे रही है क्यों सरकार 80 करोड़ लोगों को सरकारी -ख़ैरात पर रख रही है क्यों सांसद, विधायक, पार्षद व अन्य जनप्रतिनिधि दल-बदल करते हैं और जनता को धोखा देते हैं क्यों उन्हें मौसमी खरीद-फ़रोख़्त का माल समझा जाता है क्या महाकुम्भ प्रेमी जनता ने इस मुद्दे पर अपनी सरकार को कभी सवालों के कटघरे में खड़ा किया है 

    सच्चाई यह है कि पिछले एक दशक में अंधविश्वास और आक्रामक व नकारात्मक धार्मिकता का सैलाब आ गया है; हर मर्ज़ की दवा को धर्म में खोजा जा रहा है। धार्मिक कर्मकांड को ‘रामबाण’ के रूप में चित्रित किया जाता है। पिछले साल राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का महाशंख गूंजा, इस वर्ष संगम के तट पर महाकुम्भ की गगनभेदी गूंजें  सुनाई दीं। 2014 से ध्रुवीकरण की लूऐं अलग से चल रही हैं; हिंदुत्व, अखंड भारत, हिन्दू राष्ट्र, मॉब लिंचिंग, लव जिहाद, श्मशान -कब्रिस्तान, उन्मादी गौ रक्षक, बँटोगे -कटोगे नारा आदि से जहां नफरत -संस्कृति का विस्फोट हुआ है, वहीं इसने नकारात्मक व आक्रामक धार्मिकता को भी बढ़ाया है। क्या आस्था और ईश्वर से मार्गदर्शन प्राप्त कर अदालती फ़ैसला नहीं हुआ है 

    जब एक सिटिंग न्यायाधीश कहता है कि बहु संख्यक के हितों को नज़रअंदाज़ नहीं जा सकता है, तब यह कथन धार्मिक सुनामी की कोख से जन्मा लगता है। यदि देश का लोक परिवेश और राज्य का चरित्र सामान्य रहा होता तो कोई जज ऐसी हिमाक़त की नुमाईश कर सकता था

    इस लेखक की दृष्टि में यह अंधविश्वास और धार्मिक सुनामी 2014 में ही उमड़ी हो, ऐसा भी नहीं है। इसकी आहटें पहले से सुनाई दी हैं। याद करिये, कांग्रेस प्रधानमंत्री राव का शासन (1991 -96 )। प्रधानमन्त्री  राव के दौर में ‘गणेश दुग्धपान’ ज्वार उमड़ा था। 21  सितम्बर 1995 को देश भर में मंदिरों के सामने गणेश मूर्ति को दूध पिलाने के लिए लम्बी लम्बी कतारें लग गयी थीं। दिल्ली के फैशनेबुल बाज़ार कनॉट प्लेस के क्षेत्र में स्थित हनुमान मंदिर में विशिष्टजन कतारबद्ध खड़े थे। मूर्ति द्वारा दुग्ध पान के इस चमत्कार की वज़ह से  टनों स्वच्छ दूध गटर में बह गया था। क्या इस दूध को झुग्गी -झोपड़पट्टी के बच्चों को नहीं पिलाया जा सकता था सड़कों और चौराहों पर बच्चे भूखे-प्यासे भिक्षा मांगते रहते हैं। देश में बच्चों की मृत्यु दर धीमी नहीं है। यह दूध हाशिये के जीवित बाल गणेशों को पिलाया जा सकता था।

    लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि हम लोग आस्था-अंधविश्वास की गंगा में डुबकी लगाने में स्वर्ग -मोक्ष तलाशते हैं। इसी मानसिकता की कोख से जन्मी हैं प्रयाग राज और नई दिल्ली स्टेशन  पर त्रासदियां। इसी मानसिकता ने 6 दिसंबर, ‘92 में बाबरी मस्ज़िद को ध्वस्त करने के लिए प्रेरित किया था। तब की राव -सरकार मूकदर्शक बनी रही। क़रीब दो दशक के बाद मोदी -शासन के दौर में इस मानसिकता में आक्रामकता का आयाम ज़रूर जुड़ा है। इसका लगभग घर-घर फैलाव हुआ है और औसत परिवार असहिष्णुता बनाम उदारता तथा अंधविश्वास बनाम विवेकशीलता में विभाजित दिखाई देता है।

    ऐसा क्यों है इसके भी ठोस कारण हैं। छठे, सातवें, आठवें और नौवें दशकों का ज़माना सामाजिक, श्रमिक और राजनैतिक आंदलनों (विद्यार्थी, नक्सलबाड़ी, आदिवासी संघर्ष, श्रमिक हड़ताल, घेराव, सम्पूर्ण क्रांति, मंडल -कमण्डल,जाति तोड़ो आंदोलन, अगड़ा -पिछड़ा   आदि) व सत्याग्रहों का था। आम बहुसंख्यक जनता के लिए ये आन्दोलनों ‘आउटलेट’ का रोल निभाते थे। लोग अपने मुद्दों की भड़ास निकाला करते थे। इन आंदोलनों की अगुवाई वामपंथी और समाजवादी नेता किया करते थे। हर क्षेत्र में श्रमिक -कर्मचारी संगठन सक्रिय रहते थे। आम जनता की ‘ऊर्जा’ रचनात्मक कामों में केंद्रित रहती थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी ने भी इसी धर्मप्राण जनता को आज़ादी के आंदोलन में जोत दिया था। धार्मिकता का सकारात्मक व रचनात्मक उपयोग किया था; ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे जो पीर पराई जाणे रे’, ‘रघुपति राघव राजाराम -पतित पावन  सीता राम -अल्लाह ईश्वर तेरोनाम’ जैसे भजनों ने धार्मिक जनता को राजनैतिक ऊर्जा से भर दिया था। यही सुप्त जनता स्वतंत्रता और आत्म सम्मान के बोध से लैस हो गयी थी। वह प्रजा से नागरिक में रूपांतरित हो गयी थी।

    दुर्भाग्य से पिछले एक दशक में वह वापस नागरिक से प्रजा में बदलती जा रही है। इस काम में नकारात्मक धार्मिकता निर्णायक भूमिका निभाती आ रही है। वह धर्म की पोशाक में ‘सरकार निर्मित परजीवी’ बनती जा रही है।

    यही परजीवी मानसिकता जनता को सरकार से सच बोलने व बुनियादी सवालों को उठाने से रोकती है और भगदड़ों के हवाले कर देती है। उसे प्रजा बने रहने में महान संतोष मिलता है। उसे  राजाश्रित बने रहने में परमानन्द की अनुभूति होती है। इसलिए वह भगदड़ को ईश्वर प्रदत्त या नियति के रूप में देखने लगती है। इतना ही नहीं, वह भगदड़ -मृत्यु को पुण्य, मोक्ष और स्वर्ग के काल्पनिक आनंद के रूप में लेती है; मिथ यथार्थ में बदल जाता है। इसी के साथ ‘पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स’ का सिलसिला शुरू हो जाता है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी सिद्ध हस्त हैं। 

    अंत में,

    लोकतंत्र व संविधान को जीवंत रखने के लिए ‘प्रजा से नागरिक’ बनें और नकारात्मक धार्मिकता को विवेचनात्मक सकारात्मक धार्मिकता में परवर्तित करें। तभी ऐसे हादसों को रोका जा सकता है।

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