राहुल गांधी ने चुनाव आयोग के इस फैसले पर हमला बोला है कि अब एक साल तक नहीं सिर्फ 45 दिन तक रखे जाएंगे चुनाव के फोटो वीडियो । राहुल गांधी ने अपने एक्स हैंडल पर लिखा कि यह फैसला लोकतंत्र के लिए ज़हर है । चुनाव आयोग अब मतदाताओं और प्रत्याशियों की प्राइवेसी और कानूनी पहलुओं का हवाला दे रहा है।
1 साल को 45 दिन पर क्यों लाए
दरअसल 30 मई 2025 को चुनाव आयोग ने चुनाव के नियमों में बदलाव किया कि अगर किसी सीट के चुनाव नतीजों को 45 दिनों के अंदर कोर्ट में चुनौती नहीं दी जाती, तो उस सीट का CCTV फुटेज, वेबकास्टिंग और बाकी वीडियो-फोटो वाला डेटा हटा दिया जाएगा। पहले ये डेटा 3 महीने से लेकर 1 साल तक संभाल कर रखा जाता था, ताकि अगर कोई गड़बड़ी की शिकायत हो, तो उसकी जांच की जा सके। लेकिन अब नया नियम ये है कि अगर 45 दिन तक कोई केस नहीं होता, तो समझा जाएगा कि सब ठीक था- और फिर वो रिकॉर्ड हटा दिया जाएगा।
आयोग ले रहा प्राइवेसी की आड़
चुनाव आयोग अपने फैसले को सही ठहराने के लिए कह रहा है कि यह नया नियम इसलिए लाया गया है, क्योंकि पोलिंग बूथ के वीडियो और फोटो का “गलत इस्तेमाल” हो रहा था। यह मतदाताओं की प्राइवेसी का सवाल है। आयोग के मुताबिक, कुछ गैर-उम्मीदवारों ने इन रिकॉर्डिंग्स को तोड़-मरोड़कर सोशल मीडिया पर डाला और गलत नरेटिव बनाए, जिससे मतदाताओं में भ्रम फैला। लेकिन चुनाव पोलिंग बूथ के डेटा की सुरक्षा को बढ़ा कर इसका समाधान नहीं निकाल रहा है।
राहुल गांधी ने कहा- मैच फिक्सिंग
पार्टी का कहना है कि जब सबूत ही जल्दी मिटा दिए जाएंगे, तो लोग कैसे मानें कि चुनाव सही तरीके से हुए थे? इससे पूरी चुनावी प्रक्रिया की साख पर सवाल खड़े हो रहे हैं। राहुल गांधी ने ये भी कहा कि ये फैसला ना सिर्फ पारदर्शिता के खिलाफ है, बल्कि इससे लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं। यानी लोगों का भरोसा उठ सकता है कि चुनाव सच में ठीक से हो रहे हैं या नहीं।
महाराष्ट्र चुनाव पर सवाल
राहुल गांधी पहले भी महाराष्ट्र चुनाव को लेकर सवाल उठा चुके हैं। उन्होंने कहा था कि पोलिंग बूथ के CCTV फुटेज दिखाए जाएं ताकि पता चल सके कि चुनाव सही तरीके से हुआ या नहीं। लेकिन अब चुनाव आयोग के नए नियम के बाद ऐसा कुछ नहीं हो पाएगा । तो सवाल ये उठता है कि अगर सबूत ही बचा नहीं, तो फिर ऐसे फुटेज की मांग का क्या मतलब रहेगा? यानी भविष्य में कोई गड़बड़ी हो भी जाए, तो उसे साबित कैसे किया जाएगा ?अब जरा सोचिए- 45 दिन में बहुत से लोग कोर्ट में याचिका तक नहीं पहुंच पाते। दस्तावेज़ जुटाओ, वकील से बात करो, फिर मामला दर्ज करवाओ- इन सब में ही 45 दिन से ज्यादा का टाइम लग जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये नया नियम पारदर्शिता को बढ़ा रहा है या फिर उसे दबाने का तरीका है?ये पहली बार नहीं है जब चुनाव आयोग के फैसले पर उंगलियां उठी हैं। दिसंबर 2024 में सरकार ने चुनाव से जुड़े नियम बदल दिए थे। अब पोलिंग स्टेशन की CCTV रिकॉर्डिंग, वेबकास्टिंग या कैंडिडेट्स की वीडियो रिकॉर्डिंग को पब्लिक करना मना है। यानी लोग अब वो वीडियो नहीं देख सकते जिनसे पता चलता कि वोटिंग के दिन क्या हुआ। तब भी कई लोगों ने कहा था कि इससे पारदर्शिता पर असर पड़ेगा।सवाल ये उठता है कि अगर ये रिकॉर्डिंग्स सिर्फ चुनाव आयोग की अपनी निगरानी के लिए हैं, तो फिर इन्हें पब्लिक करने या थोड़ा ज्यादा वक्त तक संभालकर रखने में दिक्कत क्या है? जब कुछ छुपाया नहीं जा रहा, तो फिर सबूत बचाकर रखने में परेशानी क्यों? लोग यही पूछ रहे हैं कि क्या इस फैसले से चुनावी प्रक्रिया और ज़्यादा शक के घेरे में नहीं आ जाएगी?