
Aral Sea Dried Story
Aral Sea Dried Story
Aral Sea Dried Story: कभी-कभी प्रकृति की कहानियाँ इतनी विचित्र और मन को छू लेने वाली होती हैं कि वे हमें ठहरकर सोचने पर मजबूर कर देती हैं। ऐसी ही एक कहानी है अराल सागर की। यह सागर जो कभी मध्य एशिया का गहना था । आज एक पर्यावरणीय त्रासदी का प्रतीक बन चुका है। यह वास्तव में कोई समुद्र नहीं बल्कि एक विशाल झील थी जो अब अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है। इसकी कहानी सिर्फ पानी और ज़मीन की नहीं बल्कि मानव भूलों लालच और प्रकृति के प्रति बेपरवाही की भी है।
अराल सागर का सुनहरा दौर
अराल सागर मध्य एशिया में उज़्बेकिस्तान और कज़ाख़स्तान की सीमा पर बसा था। इसका नाम तुर्की भाषा के शब्द ‘अराल’ से आया जिसका मतलब है ‘द्वीपों का सागर’। यह नाम इसके चारों ओर बिखरे हज़ारों छोटे-बड़े द्वीपों की वजह से पड़ा। 1960 के दशक तक यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अंतर्देशीय झील थी। इसका क्षेत्रफल करीब 68000 वर्ग किलोमीटर था जो आज के हिमाचल प्रदेश से भी बड़ा था। इसका पानी इतना साफ और नीला था कि दूर से देखने पर यह किसी विशाल समुद्र सा लगता था।

स्थानीय लोग इसे प्यार से ‘नीला रत्न’ कहते थे। यह सागर उनकी रोज़ी-रोटी का स्रोत था और उनकी संस्कृति का दिल था। सुबह-सुबह मछुआरे अपनी लकड़ी की नावें लेकर सागर में उतरते और शाम को मछलियों से भरी टोकरियाँ लेकर लौटते। सागर के किनारे बसे गाँवों में हमेशा चहल-पहल रहती थी। मछली पकड़ना यहाँ की अर्थव्यवस्था का आधार था। सागर के बाज़ारों में स्टर्जन जैसी मछलियाँ बिकती थीं जिनसे बना कैवियार दुनिया भर में मशहूर था।
सागर के किनारे छोटे-छोटे बंदरगाह थे, जहाँ नावें और छोटे जहाज़ आते-जाते थे। मुइनक और अराल्स्क जैसे शहर इस सागर की वजह से फलते-फूलते थे। लोग सागर को अपनी माँ मानते थे ।क्योंकि यह उन्हें भोजन रोज़गार और ज़िंदगी देता था। सागर के आसपास की हवा भी खास थी। गर्मियों में ठंडी हवाएँ ताज़गी देती थीं और सर्दियों में बर्फीली हवाएँ सागर को और ठंडा कर देती थीं।
त्रासदी की शुरुआत
अराल सागर की कहानी में तब मोड़ आया जब 20वीं सदी के मध्य में सोवियत संघ ने मध्य एशिया को ‘कपास का स्वर्ग’ बनाने का ख्वाब देखा। 1960 के दशक में सोवियत सरकार ने इस इलाके को कपास का वैश्विक केंद्र बनाने का फैसला किया। कपास को उस ज़माने में ‘सफेद सोना’ कहा जाता था । क्योंकि यह बहुत कीमती थी। लेकिन कपास की खेती के लिए ढेर सारा पानी चाहिए था। यह पानी लिया गया अराल सागर को ज़िंदा रखने वाली दो नदियों अमू दरिया और सिर दरिया से।

ये नदियाँ सागर में पानी लाती थीं, जिससे इसका जलस्तर बना रहता था। लेकिन सोवियत सरकार ने इनका पानी विशाल नहरों के ज़रिए कपास के खेतों तक मोड़ दिया। इन नहरों को बनाने में इंजीनियरिंग का ज़ोर था । लेकिन पर्यावरण का कोई ख्याल नहीं रखा गया। नहरें इतनी खराब बनाई गई थीं कि उनमें से आधा पानी रास्ते में रिसकर या भाप बनकर उड़ जाता था। फिर भी कपास के लिए पानी का दोहन बढ़ता गया।
धीरे-धीरे सागर में पानी कम होने लगा। 1970 के दशक तक लोगों ने देखा कि सागर का किनारा पीछे खिसक रहा था। मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए पहले से ज़्यादा दूर जाना पड़ता था। उस वक्त किसी को अंदाज़ा नहीं था कि यह एक ऐसी तबाही की शुरुआत थी जो पूरे इलाके को बदल देगी।
सागर से रेगिस्तान का सफर
1980 के दशक तक अराल सागर का जलस्तर तेज़ी से गिरने लगा। 1990 के दशक आते-आते सागर दो हिस्सों में बँट गया। उत्तरी अराल सागर और दक्षिणी अराल सागर। 2000 के दशक में दक्षिणी हिस्सा कई छोटी-छोटी झीलों में सिमट गया। आज 2025 में अराल सागर अपने मूल आकार का सिर्फ 10 फीसदी रह गया है। जहाँ कभी नीली लहरें नाचती थीं । वहाँ अब रेत के टीले और धूल के गुबार हैं। जहाँ मछलियाँ तैरती थीं वहाँ अब सूखी फटी ज़मीन है।
मुइनक का बंदरगाह जो कभी नावों और मछलियों से गुलज़ार था, अब रेत से ढका है। यहाँ की सड़कों पर पुरानी नावें और जहाज़ बिखरे पड़े हैं जैसे किसी पुराने सपने के अवशेष। लोग इसे ‘नावों का कब्रिस्तान’ कहते हैं। मछुआरे जो कभी सागर की लहरों पर जीते थे अब रेगिस्तान में बेरोज़गार घूमते हैं। यह बदलाव सिर्फ सागर का नहीं बल्कि पूरे इलाके की पहचान का था।
पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव
अराल सागर के सूखने का असर सिर्फ पानी के गायब होने तक नहीं रुका। इसने पर्यावरण अर्थव्यवस्था और लोगों की ज़िंदगी को पूरी तरह बदल दिया। मछली पकड़ने का धंधा चौपट हो गया। मुइनक और अराल्स्क जैसे शहर जो कभी समृद्ध थे अब खंडहरों जैसे हो गए। मछुआरे बेरोज़गार हो गए और कई परिवारों को अपने गाँव छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा।
सागर के सूखने से बची नमक और धूल की परतें हवा में उड़ने लगीं। इस धूल में कपास की खेती में इस्तेमाल हुए जहरीले रसायन और कीटनाशक थे। यह धूल हवा के साथ सैकड़ों किलोमीटर तक फैलती थी जिससे लोगों में साँस की बीमारियाँ कैंसर और दूसरी स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ गईं। बच्चों में जन्मजात बीमारियाँ और एलर्जी आम हो गईं। पीने का पानी भी जहरीला हो गया क्योंकि सागर के सूखने से भूजल भी दूषित हो गया।

जलवायु भी बदल गई। पहले सागर की वजह से इलाके की हवा नम और ठंडी रहती थी। अब गर्म और धूल भरी हवाएँ चलती हैं। गर्मियाँ ज़्यादा तपती हैं और सर्दियाँ ज़्यादा सर्द। फसलें और पेड़-पौधे सूखने लगे जिससे खेती मुश्किल हो गई। जंगल कम हुए और ज़मीन बंजर होती गई।
सामाजिक रूप से सागर के गायब होने ने स्थानीय संस्कृति को भी चोट पहुँचाई। मछली पकड़ने की परंपराएँ गीत और कहानियाँ जो सागर से जुड़ी थीं । धीरे-धीरे लुप्त हो गईं। लोग अपनी जड़ों से कट गए। कई गाँव वीरान हो गए और जो बचे वे गरीबी से जूझ रहे हैं।
क्या सागर को बचाया जा सकता है
हालाँकि अराल सागर का ज़्यादातर हिस्सा अब रेगिस्तान बन चुका है । लेकिन कुछ उम्मीद बाकी है। कज़ाख़स्तान ने उत्तरी अराल सागर को बचाने के लिए 2005 में विश्व बैंक की मदद से कोक-अराल बाँध बनाया। इससे सिर दरिया का पानी फिर से उत्तरी हिस्से में आने लगा। इसका नतीजा हुआ और उत्तरी सागर का जलस्तर कुछ बढ़ा। मछलियाँ लौटने लगीं और मछुआरों के चेहरों पर हल्की सी मुस्कान आई।
लेकिन दक्षिणी अराल सागर को बचाना लगभग नामुमकिन है। उज़्बेकिस्तान में कपास की खेती अभी भी बड़े पैमाने पर हो रही है और अमू दरिया का पानी खेतों में जाता है। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि अब इस इलाके को रेगिस्तान मानकर यहाँ सौर ऊर्जा परियोजनाएँ या रेगिस्तानी पौधों की खेती शुरू करनी चाहिए।
अराल सागर की कहानी हमें बताती है कि प्रकृति से खिलवाड़ की कीमत पूरी मानवता को चुकानी पड़ती है। यह एक सबक है कि अल्पकालिक मुनाफे के लिए पर्यावरण को दाँव पर लगाना कितना खतरनाक है। आज जब हम जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट से जूझ रहे हैं यह कहानी हमें अपने फैसलों पर दोबारा सोचने का मौका देती है।
यह कहानी दुख देती है लेकिन यह उम्मीद भी जगाती है। अगर हम समय रहते सही कदम उठाएँ तो प्रकृति को फिर से हरा-भरा किया जा सकता है। शायद अराल सागर का एक हिस्सा फिर से नीला हो जाए । लेकिन इसके लिए ज़रूरत है इच्छाशक्ति और प्रकृति के प्रति सच्चे सम्मान की।