चुनाव नियमों में संशोधन कर पहले चुनाव से जुड़े सीसीटीवी फुटेज जैसे डाटा तक लोगों की पहुँच को रोक दिया गया था और अब चुनाव आयोग ने एक चौंकाने वाले फ़ैसले में मतदान के वीडियो और तस्वीरों को सुरक्षित रखने के समय को घटाकर सिर्फ़ 45 दिन कर दिया है। यानी 45 दिनों बाद इन्हें डिलीट कर दिया जाएगा यानी इसके बाद कोई सबूत नहीं रहेगा और शिकायत होने पर भी इसकी जाँच नहीं की जा सकती है। पहले चुनाव के अलग-अलग चरणों को तीन महीने से 1 साल तक इसे रखा जाता था। ‘दुरुपयोग’ का हवाला देकर यह कदम उठाया गया है, लेकिन अब इस फ़ैसले की पारदर्शिता पर सवाल उठा रहा है। क्या यह निर्णय लोकतंत्र की नींव को कमजोर करेगा या प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक क़दम है?
इस सवाल का जवाब पाने से पहले यह जान लें कि आख़िर भारत के चुनाव आयोग यानी ईसीआई ने क्या फ़ैसला लिया है। आयोग ने बदलाव के इस निर्णय की घोषणा 30 मई 2025 को सभी राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों यानी सीईओ को भेजे गए एक पत्र के माध्यम से की।
चुनाव आयोग ने अपने दिशानिर्देशों में संशोधन करते हुए कहा है कि मतदान केंद्रों पर लगे सीसीटीवी कैमरों और अन्य उपकरणों द्वारा रिकॉर्ड की गई वीडियो फुटेज और तस्वीरों को अब केवल 45 दिनों तक सुरक्षित रखा जाएगा। पहले यह अवधि तीन महीने से लेकर एक साल तक थी। यह चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद किसी भी विवाद या क़ानूनी चुनौती की जाँच के लिए पर्याप्त समय मानी जाती थी। आयोग का कहना है कि इस क़दम का उद्देश्य डेटा के दुरुपयोग को रोकना और सुरक्षित रखने की लागत को कम करना है।
चुनाव आयोग ने ‘दुरुपयोग’ को लेकर सीईओ को भेजे गए दिशानिर्देशों में जानकारी दी है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार ईसीआई ने भेजे गए निर्देशों में कहा है, ‘हाल ही में चुनाव में हिस्सा नहीं लेने वालों द्वारा इस सामग्री का दुरुपयोग, सोशल मीडिया पर ग़लत सूचना और दुर्भावनापूर्ण नैरेटिव को फैलाने के लिए किया गया। ऐसी सामग्री का चुनिंदा रूप से और संदर्भ से बाहर इस्तेमाल किया गया जिसका कोई क़ानूनी मतलब नहीं है। इन वजहों से यह समीक्षा की गई है।’
पहले के दिशानिर्देशों के अनुसार, नामांकन से पहले की अवधि के फुटेज को तीन महीने तक रखना था, जबकि नामांकन चरण, प्रचार अवधि, मतदान, और मतगणना के रिकॉर्ड को छह महीने से एक साल तक चरण के आधार पर सुरक्षित रखना था।
अंग्रेज़ी अख़बार ने ईसी सूत्रों के हवाले से ख़बर दी है कि नए निर्देश वीडियो फुटेज को रखने की समय-सीमा को चुनाव याचिकाएं दायर करने की 45 दिन की अवधि के साथ जोड़ा गया है। यदि कोई चुनाव याचिका दायर की जाती है तो फुटेज को मामले के पूरा होने तक रखा जाएगा। ईसी के प्रवक्ता ने ताज़ा निर्णय पर टिप्पणी मांगने वाले द इंडियन एक्सप्रेस के ईमेल का जवाब नहीं दिया।
इस निर्णय का असर उन सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर पड़ेगा जहां विधानसभा या लोकसभा चुनाव आयोजित किए जाते हैं। यह बदलाव ख़ासकर उन मामलों में अहम है जहाँ मतदान प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, क्योंकि वीडियो फुटेज और तस्वीरें जाँच और सत्यापन के लिए अहम सबूत के रूप में काम करती हैं।
डाटा तक आम लोगों की पहुँच को रोका?
यह हाल के महीनों में चुनाव प्रक्रिया के सीसीटीवी फुटेज से जुड़ा चुनाव आयोग द्वारा किया गया दूसरा बड़ा बदलाव है। पिछले साल दिसंबर में सरकार ने चुनाव संचालन नियमों के नियम में संशोधन कर ऐसी फुटेज तक आम लोगों की पहुँच को सीमित कर दिया है।
पहले चुनाव संचालन नियम 1961 के नियम 93(2)(a) में कहा गया था कि ‘चुनाव से जुड़े सभी अन्य कागजात आम लोगों के निरीक्षण के लिए खुले होंगे।’ अब संशोधित नियम में कहा गया है, ‘इन नियमों में निर्दिष्ट इन निर्देशों से संबंधित सभी अन्य कागजात लोगों के निरीक्षण के लिए खुले होंगे।’ इसका मतलब यह निकाला गया कि सीसीटीवी फुटेज जैसे इलेक्ट्रॉनिक डाटा को आम लोगों के लिए उपलब्ध नहीं कराया जाएगा और सिर्फ़ कागजात ही उपलब्ध होंगे। इसमें भी यह दलील दी गई कि सीसीटीवी फुटेज का ग़लत इस्तेमाल हो सकता है और यह लोगों के वोट की गोपनीयता बनाए रखने के अधिकार का उल्लंघन होगा। इस दलील पर काफ़ी विवाद हुआ था।
बहरहाल, चुनाव आयोग के इस ताज़ा क़दम ने कई सवाल खड़े किए हैं और इस पर विवाद बढ़ सकता है। चुनाव आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार, मतदान केंद्रों पर रिकॉर्ड की गई फुटेज को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी जिला निर्वाचन अधिकारियों की होती है। यह फुटेज उन मामलों में अहम होती है जहां इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं। 45 दिनों की नई समयसीमा का मतलब है कि चुनाव परिणामों की घोषणा के तुरंत बाद शुरू होने वाली क़ानूनी चुनौतियों के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा। पहले ऐसे चुनाव संशोधनों को विपक्षी दल लोकतंत्र को कमजोर करने वाला क़दम बताकर आलोचना करते रहे हैं।
चुनाव आयोग के इस निर्णय ने न केवल पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यह भी दिखाया है कि जनता और राजनीतिक दलों के बीच विश्वास की कमी को दूर करने के लिए और अधिक स्पष्टता की ज़रूरत है।