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    Home » कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए, कहां…
    भारत

    कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए, कहां…

    By January 18, 2025No Comments5 Mins Read
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    नीति आयोग ने यूएनडीपी और ऑक्सफ़ोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव (ओपीएचआई) के सहयोग से अपनी बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) जारी करना शुरू किया. आयोग ने गरीबी को आर्थिक पैमाने पर मापना सही तस्वीर न मानते हुए दस नए सूचकांक बनाये हैं- पोषण, बाल-मृत्यु, स्कूली शिक्षा के वर्ष, स्कूल में उपस्थति, कुकिंग ईंधन, स्वच्छता, पेय जल, बिजली, घर और एसेट. देश के पांच पिछड़े राज्यों में एक भी दक्षिण या पश्चिम भारत का नहीं है और सभी उत्तर भारत या पूर्वोत्तर राज्य हैं. कहने की जरूरत नहीं कि बिहार और यूपी इनमें सबसे नॉन-परफार्मिंग राज्य हैं. उसके बाद झारखण्ड और एमपी आते हैं. 

    दरअसल गौ-रक्षा आन्दोलन के कारण इन राज्यों के समूह को गाय-पट्टी कहा जाता है. रिपोर्ट के अनुसार बिहार का प्रदर्शन कुल दस में से सात पैरामीटर्स पर सबसे ख़राब रहा है जबकि एसेट में दूसरे और बिजली उपलब्धता में क्रमशः दूसरे और पांचवें स्थान पर रहा. पेय जल के पैरामीटर पर यह नॉन-परफार्मिंग पांच राज्यों की सूची में नहीं है. उधर यूपी बाल-मृत्यु दर और स्कूल उपस्थिति में बिहार के ठीक नीचे दूसरा अकर्मण्य राज्य है और पोषण, स्कूली शिक्षा वर्ष में चौथे, स्वच्छता के पैमाने पर पांचवें स्थान पर है. 

    बिहार और यूपी की आबादी ज्यादा होने से देश का औसत भी काफी गिर जाता है. इसी तरह एमपी पेय जल के पैमाने पर सबसे फिसड्डी राज्य रहा है और स्वच्छता में तीसरे, कुकिंग ईंधन और घर की उपलब्धता में चौथे और पोषण, बाल-मृत्यु, स्कूल उपस्थिति और एसेट में पांचवें स्थान पर पाया गया. सबसे खास बात यह है कि किसी ज़माने में “बीमारू” राज्यों में राजस्थान का नाम हुआ करता था लेकिन नीति आयोग की एमपीआई में राजस्थान का नाम अकर्मण्य राज्यों में नहीं है. दुर्भाग्य की बात यह है कि यूपी, बिहार और एमपी में सांप्रदायिक मुद्दे ही राजनीतिक परिदृश्य तैयार करते हैं. इन राज्यों में भाजपा का शासन (कुछ छोटे अन्तराल को छोड़ कर) काफी समय से है जबकि झारखण्ड में आदिवासी वोट प्रबल मुद्दा रहता है. 

    दो हफ्ते पहले जब गूगल “विलो” नामक नया क्वांटम कंप्यूटिंग चिप की घोषणा कर दुनिया को चौंका रहा था उस समय भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद में नेहरु के नाम का मर्सिया पढ़ते हुए बता रहे थे कि 70 साल पहले के निजाम की गलतियों से देश किस रसातल में चला गया.

     एआई के दौर में जब इसी एशिया में हीं छोटा सा दक्षिण कोरिया और बड़े भूभाग, बड़ी आबादी, बड़ी जीडीपी और बड़ी सामरिक-आर्थिक क्षमता वाला चीन सारी शक्ति इस तकनीकी का ज्ञान अर्जित करने में लगे हैं उस समय भारत के हुक्मरान और उसके लोग मस्जिदों के नीचे मंदिर की तलाश कर रहे हैं.

    उसकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)-शासित सरकारों में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट्स इसे “पावन” कर्तव्य समझ रहे हैं कि इनकें क्षेत्र में भी मस्जिद के नीचे मंदिर मिलने लगे हैं. सत्ताधारी मानसिक दिवालियेपन के इस कदर शिकार है कि उन्हें वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की एक रिपोर्ट में भी भारत विश्व गुरु बनाता दिखाई दे रहा है.

    इस रिपोर्ट में आने वाले दिनों में भारत के 35 प्रतिशत कंपनियों को सेमी-कंडक्टर और एडवांस कंप्यूटिंग और 21 प्रतिशत को अत्याधुनिक क्वांटम कंप्यूटिंग और इन्क्रिप्शन अंगीकार करने वाला बताया गया है. इसका सीधा मतलब हुआ कि ये कंपनियां टेक्नोलोजी की बड़ी खरीददार या यूजर होंगीं न कि उन्हें बनाने वाली. कब तक हम यूजर के रूप में “विश्व गुरु” () का दावा करते रहेंगे  

    समाज को तार्किक जड़ता का शिकार बना कर एक धूम्रपटल खड़ा करना और देश को विश्व गुरु बताना मोदी काल का एक नया राजनीतिक टूल बन गया है. बाबर ने क्या किया, नेहरु के शासन के दोष क्या थे, मस्जिद के नीचे मंदिर की तलाश, किसने “भारत-माता की जय” नहीं कहा, इन मुद्दों को सड़क से संसद तक और सैलून से सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने के धंधे में भारतीय जनमानस को मोदी ने सामूहिक जड़ता का शिकार बना दिया है.

    चिकित्सा-विज्ञान के अनुसार एक व्यक्ति का 90 प्रतिशत दिमाग पांच साल तक की अवस्था में विकसित हो जाता है और वही उसके भावी जीवन का शारीरिक, मानसिक (कोग्निटिव याने संज्ञात्मक) और भावनात्मक (जिनसे आत्म-नियंत्रण और आचरण की दशा और दिशा तय होती है) आधार तैयार करता है. 

    तथाकथित सांख्यिकी लाभ की स्थिति यह है कि सरकार के ही एनएचऍफ़एस-5 के अनुसार 15-49 आयु वर्ग के केवल 50.2 प्रतिशत पुरुष और 41 प्रतिशत महिलायें हीं दस वर्ष या उससे ज्यादा की स्कूली शिक्षा पा सकीं हैं.

    15-19 साल की तरुण-आबादी में, जो अगले तीन दशकों तक देश का कार्यबल रहेगी, केवल 35.9 प्रतिशत लड़के और 34 प्रतिशत लडकियां 12 क्लास तक शिक्षा पा सके हैं. हमारे शिशुओं (दो साल तक के) में, जो अगले एक या दो दशकों में कार्यबल का हिस्सा बनने याने तथाकथित सांख्यिकी लाभांश देने जा रहे हैं, 88.9 प्रतिशत को न्यूनतम और समुचित पोषक आहार नहीं मिल पाया है. समझा जा सकता है कि क्यों 17-18 साल आयु-वर्ग के युवाओं में 77 प्रतिशत ही कक्षा दो का टेक्स्ट बुक पढ़ पाते है और केवल 35 प्रतिशत ही सामान्य भाग के सवाल कर पाते हैं. ये ही युवक अगले कई दशकों तक भारत का भविष्य तय करेंगे.

    क्या वस्तुस्थिति भयावह नहीं है 

     

    दुष्यंत कुमार ने मोदी के परिदृश्य में आने के काफी पहले लिखा था :

    “कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए,

    कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए”

    (लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं )

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