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    Home » जब रोमेश भंडारी के कारण एक वक्त में यूपी में दो-दो सीएम बन गए थे!
    भारत

    जब रोमेश भंडारी के कारण एक वक्त में यूपी में दो-दो सीएम बन गए थे!

    By February 17, 2025No Comments17 Mins Read
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    यह कहानी राज्यपाल रोमेश भंडारी से जुड़ी है। भंडारी जी भारतीय विदेश सेवा के अफ़सर। त्रिपुरा, गोवा और उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रहे। मजेदार और रंगीले आदमी थे। विवादों से उनका चोली-दामन का रिश्ता था। रोमेश भण्डारी अब दुनिया में नहीं हैं। अपनी परंपरा में किसी के जाने के बाद खराब बात नहीं करते। इसलिए बात सिर्फ उनके ठाट बाट की। वे देश के सबसे विवादास्पद राज्यपालों में थे। राजसी अंदाज। कायदे क़ानून को ठेंगे पर रख उनकी लाटसाहबी के क़िस्से मशहूर थे। गहरे दोस्तबाज और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने वाले। व्यक्तित्व में बेबाकी उन्हें अकसर फंसा देती। उनसे मेरा ‘लव एंड हेट’ का रिश्ता था। उन्होंने मुझसे दोस्ती और दुश्मनी दोनों की। राज्यपाल रहते प्रेस काउंसिल में मेरे खिलाफ मुकदमा किया। एक दौर था जब वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के तौर पर तप रहे थे। मुझे देखते ही भड़क जाते। मैंने भी उनकी भरपूर सेवा की। बाद में यह झगडा, रगड़ा में बदल गया।

    त्रिपुरा, गोवा और उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रहते वे हमेशा विवादों में घिरे रहे। रंगीन मिजाज थे। जब कांग्रेस में थे तो 24 अकबर रोड पर खुली जीप से आते जिसे वे खुद चला रहे होते। लोग उनके क़िस्से चटखारे ले बताते। महामहिम ने राजभवन के अंदर ही हैलीपैड बनवा लिया। वे राजभवन से ही सीधे उड़ने लगे। राजभवन की शामें राजनीतिक गॉसिप का मुख्य विषय होने लगीं।

    रोमेश भण्डारी का राजनीति में प्रवेश एक दुर्घटना थी। वे कैरियर डिप्लोमेट थे। भारतीय विदेश सेवा के 1950 बैच के अफसर। नेहरु की कैबिनेट में रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन के निजी सचिव से शुरू उनका कैरियर भारत के विदेश सचिव तक पहुंचा। राजघरानों से उनका वास्ता था। पटियाला राजपरिवार के दामाद थे। नेहरु गांधी परिवार से करीबी रिश्ता था। चंद्रास्वामी से लेकर अदनान खशोगी तक उनकी मित्र मंडली में थे। रिटायरमेंट के बाद कांग्रेस के विदेश प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और दिल्ली के उपराज्यपाल भी रहे।

    राज्यपाल के तौर पर वे अपने बेईमान फैसलों, राजभवन में गुलछर्रों, लाटसाहबी और अपनी रंगीन मिजाजी के चलते ख़बरों में रहे। मैंने भी कुछ खबरें लाटसाहब के लखनवी अंदाज पर लिखीं। वे आगबबूला हुए। अपनी भी ठन गयी। वे मुझ पर भड़कते गए और मैं लिखता गया। उन्हें फटफटाते देख मुझे परसंतापी सा आनंद आने लगा। बात 1995 की है। जैन हवाला में नाम आने से मोतीलाल वोरा को उप्र की राज्यपाली छोड़नी पड़ी। तब रोमेश भंडारी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हुए। चुनाव होने थे। चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनके उभरी। भंडारी ने उन्हें सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया। राज्य में चुनाव के बाद फिर राष्ट्रपति शासन लगा। राष्ट्रपति शासन छ: महीने तक ही लग सकता है। उसे एक बार और बढ़ाया जा सकता है। एक साल राष्ट्रपति शासन को हो गए। इसके बाद उसे बढ़ाया नहीं जा सकता था। भंडारी ने साल पूरा होते ही एक मिनट के लिए राष्ट्रपति शासन हटाया और फौरन बाद चुनी हुई सरकार न होने के कारण दूसरे ही क्षण राष्ट्रपति शासन दुबारा लगा दिया। इन परिस्थितियों में कांग्रेस टूटी और राज्य में गठबंधन की सरकार बनी।

    21 फरवरी 1998 को उन्होंने बहुमत रहते हुए भी कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया। आनन-फानन में जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया। इतनी जल्दबाजी कि शपथग्रहण में राष्ट्रगान भूल गए। बारह घंटे बाद ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्यपाल भण्डारी का फैसला उलट दिया। कल्याण सिंह सरकार जीवित हो गयी। राज्य के इतिहास में 24 घंटे में दो मुख्यमंत्री हो गए। राज्यपाल ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मुख्यमंत्रियों को कम्पोजिट प्लोर टेस्ट में बहुमत दिखाने को कहा। सदन में जिसके पास बहुमत होगा, वह मुख्यमंत्री होगा। सदन का विशेष सत्र बुलाया गया। विधायकों ने पर्ची लिख अपनी पसंद बतायी। 16 कैमरों के सामने नौ घंटे तक प्रक्रिया चली। 425 विधायकों के सदन में कल्याण सिंह को 224, जगदम्बिका पाल को 196 वोट मिले। 

    राज्यपाल की बेईमानी पकड़ी गयी। बाद में रोमेश भंडारी ने कहा- मैं क्या करता, मुझे जगदम्बिका पाल ने 215 विधायकों की सूची दी थी। मैंने उसी आधार पर फैसला लिया। अगर उसके साथी बाद में भाग गए तो इसमें मेरा क्या क़सूर

    रोमेश भंडारी के वक्त ही उप्र में बड़े अजूबे राजनीतिक प्रयोग हुए। विधानसभा चुनावों के फौरन बाद राष्ट्रपति शासन। एक साथ दो मुख्यमंत्री। राज्यपाल की सिफारिश को राष्ट्रपति का रद्द करना। राज्यपाल के फैसलों को हाईकोर्ट द्वारा उड़ाना। यह सब रोमेश भंडारी के जमाने में हुआ। उन्हीं में एक प्रयोग छह-छह महीने के मुख्यमंत्री का भी रहा है। 1996 में चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। बीजेपी 174 सीटें ही पा सकी। समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर रही, उसे 110 सीटें मिली थीं। बीएसपी को 67 और कांग्रेस को 33 सीटें मिलीं। बहुमत के अभाव में सरकार नहीं बन पाई और चुनाव नतीजों के बावजूद पहले से चल रहे राष्ट्रपति शासन की मियाद बढ़ाई गयी।

    बहुमत के अभाव में विधानसभा तो सस्पेंड हो गई थी, लेकिन परदे के पीछे अलग-अलग दलों के बीच सरकार बनाने की कवायद चल रही थी। बीजेपी और बीएसपी के हाथ मिलाने की स्थिति में बहुत आराम से सरकार बन रही थी। 174 + 67 यानी 241 सदस्य। दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी और कांशीराम के बीच गठबंधन के लिए बातचीत शुरू हुई। बीएसपी इस पर अड़ी हुई थी कि भले बीजेपी के पास उससे तीन गुना ज़्यादा सीटें हों, लेकिन मुख्यमंत्री मायावती ही बनेंगी। आखिर यह तय हुआ कि एक साल के लिए गठबंधन करते हैं। दोनों पार्टियों के बीच छह-छह महीने मुख्यमंत्री का पद रहेगा। 

    पहले मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस पर विवाद था। वाजपेयी ने विश्वास बनाए रखने के लिए सहमति दे दी कि मुख्यमंत्री पहले मायावती ही बनेंगी। हालांकि इसके साथ शर्त यह थी कि विधानसभा अध्यक्ष बीजेपी का होगा। इसके लिए बीएसपी राज़ी हो गयी। इस तरह 21 मार्च 1997 को पहले छह महीने के लिए मायावती मुख्यमंत्री बन गईं। शुरुआत के चार महीने तो खुशनुमा माहौल में सरकार चलती दिखी, लेकिन उसके बाद दिक्कतें आनी शुरू हुईं। जैसे-जैसे छठा महीना करीब आने लगा मायावती और बीजेपी के बीच तल्खी बढ़ने लगी। तयशुदा वक्त पर मायावती ने अपना पद छोड़ दिया और 21 सितंबर 97 को कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। पद ग्रहण करने के बाद कल्याण सिंह ने कुछ ही दिनों के भीतर मायावती सरकार द्वारा लिए गए तमाम फैसलों को पलट दिया और इसके बाद 19 अक्टूबर 1997 को बीएसपी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। कल्याण सिंह सरकार अल्पमत में आ गई। राज्यपाल ने दो दिनों के भीतर उन्हें सदन में बहुमत साबित करने को कहा। कल्याण सिंह इस स्थिति का अनुमान पहले ही लगा चुके थे और इसके लिए पूरी तरह तैयार भी थे। उन्होंने बीएसपी, कांग्रेस, जेडीयू सबको तोड़ दिया और अपना बहुमत साबित कर दिखाया, लेकिन इस दरम्यान सदन के भीतर हुई हिंसा यूपी के संसदीय इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गयी। कल्याण सिंह ने अपनी सरकार बचाने के लिए अपनी-अपनी पार्टियों से अलग होकर उनके साथ हुए ज्यादातर विधायकों को मंत्री पद से नवाजा। 93 मंत्री बने थे। यह यूपी के इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा मंत्रिमंडल था।

    फरवरी (1998) आते-आते कल्याण सिंह सरकार के ही एक मंत्री जगदंबिका पाल ने अपने लिए एसपी-बीएसपी का समर्थन लेते हुए जरूरी विधायकों को जोड़कर मुख्यमंत्री पद की शपथ रात के अँधेरे में ले ली। राज्यपाल भंडारी को जगदंबिका पाल को शपथ दिलाने की इतनी जल्दी थी कि राजभवन का स्टाफ़ शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रगान बजाना ही भूल गया। अगले दिन लखनऊ में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने थे, लेकिन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्यपाल के इस फ़ैसले के विरोध में स्टेट गेस्ट हाउस में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने का फ़ैसला किया। बीजेपी हाईकोर्ट गई। कोर्ट ने कल्याण सिंह की बर्खास्तगी को अवैध ठहरा दिया और राज्यपाल की पूरी कार्यवाही को इतिहास से उड़ा दिया। इस तरह एक ही वक्त पर यूपी में दो-दो मुख्यमंत्री हो गए। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने जगदंबिका पाल को राज्य का मुख्यमंत्री बना तो दिया, लेकिन कोर्ट के फ़ैसले के बाद उन्हें 31 घंटे के अंदर अपना पद छोड़ना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सदन के अंदर दोनों मुख्यमंत्रियों को बहुमत साबित करने को कहा गया। कल्याण सिंह ने फिर बहुमत साबित कर दिया। इसके बाद कोर्ट ने जगदंबिका पाल के कार्यकाल को शून्य घोषित कर दिया। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बावजूद उनका नाम मुख्यमंत्रियों की सूची से भी डिलीट कर दिया। और ये हिदायत दी की इन्हें पूर्व मुख्यमंत्री भी नहीं कहा जाएगा। 

    भंडारी के कार्यकाल पर एक और धब्बा तब लगा जब राज्यपाल के तौर पर राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उनकी सिफारिशों को नामंज़ूर कर दिया।

    विधानसभा में हुई हिंसा के बाद राज्यपाल भंडारी ने 22 अक्तूबर 1997 को उप्र में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की। पर, राष्ट्रपति केआर नारायणन ने इसे मानने से इनकार कर दिया। भन्डारी नहीं माने। उन्होंने पुर्नविचार के लिए दुबारा अपनी सिफारिशों को केंद्र सरकार के पास भेजा। केंद्र सरकार ने उनकी सिफारिश को दोबारा राष्ट्रपति के पास नहीं भेजने का फैसला किया। भंडारी की किरकिरी हुई और कल्याण सिंह सरकार चलती रही। इससे पहले किसी राज्यपाल की ऐसी दुर्गति नहीं हुई थी। 

    ये कहानी भी रोचक है। कल्याण सरकार की बर्खास्तगी पर भाजपा नेताओं ने रात में ही राज्यपाल के फ़ैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय की शरण ली। हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फैसले पर रोक लगा दी और कल्याण सरकार को बहाल कर दिया। उस दिन सचिवालय में अजीब नजारा देखने को मिला। वहां एक समय में दो मुख्यमंत्री बैठे। जगदंबिका पाल सुबह-सुबह ही सचिवालय पहुंच कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए थे। जाते वक्त मुझे भी साथ ले गए। तमाशा घुस के देखने के चक्कर में मेरी आदत ने उस रोज मेरी भी दुर्गति करायी। हाईकोर्ट का फ़ैसला लेकर कल्याण सिंह सीधे सचिवालय पहुँचे। अब एक ही वक़्त पर वहॉं दो मुख्यमंत्री थे। सुरक्षा अधिकारियों ने किसी संघर्ष को टालने के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय को रस्सा लगा दो हिस्सों में बॉंट दिया। और पाल साहब को लगभग एक तरफ़ बंद कर दिया। मैं उनके साथ बंद हो गया। अब जगदंबिका पाल अन्दर से पत्रकारों और नेताओं से अपने साथ हो रहे घटनाक्रम की जानकारी देते रहे। कुछ से मेरी भी बात कराई। हम बाहर नहीं निकल पा रहे थे। मुख्यसचिव हाईकोर्ट के फ़ैसले को तामील करने की जुगत ढूँढ रहे थे। तरकीब निकली कि जब जगदंबिका पाल की नियुक्ति को अदालत ने अवैध ठहराया, तो इसका मतलब ये हुआ कि कल्याण सिंह का कार्यकाल बीच में टूटा ही नहीं था। इन परिस्थितियों में वो ही अभी भी मुख्यमंत्री हैं।

    सवाल उठा कि इस संदेश को मीडिया और प्रदेश की जनता तक कैसे पहुंचाया जाए। काफ़ी सोच विचार के बाद इसका हल ये निकाला गया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल की बैठक बुलाएं और उसके बाद एक प्रेस नोट जारी हो, जिससे सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए। हम बगल के कमरे में बंद थे और दूसरे कमरे में कल्याण सिंह कैबिनेट की बैठक करने लगे। दोनों एक दूसरे के कमरे में न चले जाए इसके लिए भारी सुरक्षा बंदोबस्त लगाए गए। 

    पाल साहब कमरा ख़ाली करने को तैयार नहीं थे। वे इस बात पर अड़े रहे कि जब तक उन्हें हाईकोर्ट के उस आदेश की प्रति नहीं मिल जाती, जिसमें उनकी नियुक्ति को ग़ैर क़ानूनी बताया गया, वो अपने पद से इस्तीफ़ा नहीं देंगे। अधिकारियों ने जब उच्च न्यायालय का आदेश दिखाते हुए कड़े तेवर दिखाए तो पाल भारी मन से कुर्सी छोड़कर चले गए। इस्तीफ़े का सवाल फिर खड़ा ही नहीं हुआ। बाद में मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। उसके आदेश पर 26 फरवरी को फिर बहुमत का परीक्षण हुआ, जिसमें कल्याण सिंह जीते।  न्यायालय के निर्देश पर पाल साहब की मुख्यमंत्री की शपथ और कार्यकाल को शून्य माना गया। मुख्यमंत्रियों की सूची से पाल का नाम भी हटा दिया गया। इस फ़ैसले से राज्यपाल रोमेश भंडारी और जगदंबिका पाल खेमे को तगड़ा धक्का लगा।

    अपने फ़ैसले को जायज ठहराते हुए अपनी आत्मकथा ‘एज आई सा इट’ में भंडारी ने इस गड़बड़ के लिए नरेश अग्रवाल को जिम्मेदार ठहराया। अपनी बेईमानी की भड़ास उन्होंने नरेश अग्रवाल पर निकाली। उन्होंने लिखा कि पाल का सबसे चालाक साथी नरेश अग्रवाल थे। नरेश के पिता श्रीचंद्र अग्रवाल हरदोई से कांग्रेस के उम्मीदवार थे। उन्होंने नरेश को अपना चुनाव चिह्न लाने के लिए अधिकार पत्र दिया। नरेश ने हाईकमान से जाकर कहा कि पिता बीमार है वे चुनाव नहीं लड़ सकते। मुझे उन्होंने लड़ने को कहा है। इसलिए चुनाव चिह्न मेरे नाम दिया जाए। अब पिता का चुनाव चिह्न नरेश अग्रवाल झटक लाए। जब तक पिताजी यह सब जानते नरेश नामांकन दाखिल कर चुके थे। ऐसा आदमी जगदम्बिका पाल का कैसे होता किसी का नहीं हो सकता। नाराज रोमेश भण्डारी ने यह अपनी किताब में लिखा।

    राज्यपाल के इन फैसलों से कांग्रेस की बड़ी किरकिरी हुई। मैंने भी राज्यपाल के मनमाने फैसलों पर कई आलोचनात्मक टिप्पणी लिखीं । उस वक्त के मेरे जनसंपर्की सम्पादक को भी यह अच्छा नहीं लगा। नाराज हो महामहिम ने जब प्रेस काउंसिल में मुकदमा किया तो पता चला कि मैंने लाटसाहब पर 16 खबरें लिख मारी हैं। इतनी खबरों के तो वे लायक भी नहीं थे। मुझे ग्लानि हुई। सरकार के अफसरों की राय थी कि महामहिम को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। इनमें से एक अफसर तो बाद में भारत के चुनाव आयुक्त भी हुए।

    शशांक शेखर सिंह राज्यपाल के सलाहकार थे। सो मुकदमा हो गया। पर इस मुकदमे से न मेरी मति बदली न रवैया। राज्य में राष्ट्रपति शासन था। राज्यपाल ही सर्वेसर्वा थे। वो सरकार चला रहे थे। सब नतमस्तक थे। मैं अपनी मौज में। एक रोज भंडारी जी मुझे किसी सरकारी कार्यक्रम में मिल गए। मेरे पास आए, बोले ‘हेमंत यू आर माई फ्रेंड! हम किसी रोज साथ भोजन क्यों न करें।’ मैंने कहा, ‘ज़रूर महामहिम की जैसी आज्ञा’। फिर ‘डिनर’ तय हुआ। तय वक्त पर मैं राजभवन पहुंचा। बड़ा सत्कार हुआ। उन दिनों राजभवन के कन्ट्रोलर मेरे एक मित्र थे। जो आजकल दिल्ली में राज्य अतिथि गृह सम्भाल रहे हैं। राज्यपाल के अतिथियों की आवभगत, भोजन, देखभाल उन्हीं के जिम्मे होता था। महामहिम किसी से मिल रहे थे। मुझे उनकी पत्नी कुमुदेश से मिलवाया गया। वे महाराज पटियाला की बेटी थी। 

    कुमुदेश जी और नटवर सिंह की पत्नी सगी बहनें थी। साढ़ू होने के बावजूद नटवर सिंह और रोमेश भण्डारी में पटती नहीं थी। दोनों विदेश सचिव रह चुके थे। नटवर सिंह विदेश मंत्री भी रहे। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन जब भारत आए तो उनको दिए गए सरकारी भोज में दोनों आमंत्रित थे। दोनों ने अपना परिचय दिया। नटवर सिंह बोले, मैं भारतीय विदेश सेवा का अफसर रह चुका हूँ। और मेरी ये पत्नी हैं। महाराजा पटियाला की बेटी हैं। उनका परिचय होने के बाद रोमेश भण्डारी ने क्लिंटन से कहा ‘मैं भी आईएफएस रहा हूँ। मेरी पत्नी से मिलिए, ये महाराज और महारानी पटियाला की बेटी हैं। अब इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि वे यह बता कहना क्या चाह रहे हैं। 

    खैर, बात रोमेश भंडारी के राजभवन में मेरे अतिथि डिनर की। तब लखनऊ के राजभवन में लेडी गर्वनर की तूती बोलती थी। कर्मचारी महामहिम से ज्यादा उनसे भय खाते थे। मेरे बैठते ही वह बोलीं, क्या लेंगे मैंने कहा पानी। तब तक एक साफे वाला वेटर तमाम रंग विरंगे रसायनों से लदी एक ट्राली खींचता हुआ लाया। बताइए क्या चलेगा मैंने कहा मैं तो काशी का गंगाजल संस्कृति का आदमी हूँ। अपना इससे दूर दूर तक नाता नहीं है। आज मंगलवार है इसलिए नहीं लेते उन्होंने सवाल दागा। मैंने सोचा इन बदमिजाज महामहिमा से क्या बहस करूं। हां यही समझिए। कैसे पत्रकार हैं मुझे नहीं लगता जीवन में कोई बड़ा काम आप कर पाएंगे। महामहिमा ने फिर कहा, आप मंगलवार को केवल ड्रिंक ही नहीं लेते या बाकी काम भी नहीं करते। मेरे पांव के नीचे की जमीन हिल रही थी। मैं झेंप मिटाने के लिए राजभवन की दीवार पर टंगी राजा रवि वर्मा की पेंटिंग देखने लगा। तभी महामहिम प्रकट हुए। मेरी जान बची। उन दोनों ने छककर तरल ग्रहण किया। मैं भी चाय-पानी से दिल बहलाता रहा।

    बोलने को कुछ था नहीं सो मैं दोनों की सुनता रहा। दोनों में किसी बात को लेकर बहस हो रही थी। फिर अंग्रेजी में कुछ गालियां मुझे सुनाई पड़ीं। मेरी उपस्थिति का एहसास दोनों को नहीं था। फिर अचानक दोनों उठ कर चले गए। मैं सोचने लगा कहाँ आ गया किस मुसीबत में फंस गया। कहीं मुझे अपमानित करने के लिए तो नहीं बुलाया है। ऐसी दोस्ती से तो दुश्मनी भली थी। तभी देखा लड़-झगड़कर महामहिम आ रहे हैं। उन्होंने मुझसे कहा, आइए भोजन कक्ष में। हम दोनों उधर ही हो लिए। महामहिम तनाव ग्रस्त थे। चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं। नशा हिरण था। भोजन कक्ष में भोजन लगा था। हम दोनों बैठ गए। राजभवन के कन्ट्रोलर भोजन के इन्तजाम में लगे थे। भोजन शुरु हो, इससे पहले मैंने पूछा, “लेडी गवर्नर आएंगी क्या”  क्योंकि टेबल पर एक प्लेट और लगी थी। महामहिम ने बहुत क्रुद्ध ढंग से कहा, नहीं। उन्होंने इशारे से एक और ‘ड्रिंक’ मंगाई। भोजन शुरु होने ही वाला था कि लेडी गवर्नर आ धमकी। वे महामहिम से उलझ पड़ीं। बात बढ़ी और उन्होंने गुस्से में टेबुल ढकेल दिया। सब्जी में चावल और दाल महामहिम की कोट पर। मेरी प्लेट जमीन पर। बड़ा भयावह दृश्य था। किसी लाट साहब के यहां ऐसे भोजन की कल्पना नहीं की थी। महामहिम मुझसे सॉरी कह अपना कोट साफ करने में जुटे। महारानी गायब। 

    मैं कलम घसीट सोचने लगा कहाँ फंस गया। कन्ट्रोलर की तरफ देखा कि शायद वे मदद करें। वे ‘अबाउट टर्न’ हो दरवाजे के बाहर देख रहे थे। मानो अन्दर कुछ हुआ ही नहीं। मैं कमरे से बाहर निकल खिसकने की कोशिश करने लगा तभी कन्ट्रोलर ने कहा “भईया जाइएगा नहीं, मेरी नौकरी का सवाल है। महामहिम आपको पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूँगा। अभी जिस ‘डिनर’ के लिए आप आए हैं वे शुरु भी नहीं हुआ है”। उनकी सुने बिना मैं बाहर निकला ही था कि गलियारे में मुझे महामहिम मिल गए। वे ‘परम टुन्न’ थे। ज्ञान की परम अवस्था में। मुझे गले लगा कर रोने लगे। ‘हेमंत यू आर माई फ्रेंड। मुझे अकेला छोड़कर कहां जा रहे हो’। मैंने हाथ जोड़ा, महामहिम मुझे जाने दें। हो गया मेरा सत्कार। भर पाया मैं। अब कभी आपके बारे में नहीं लिखुंगा। कोई खबर नहीं दूंगा। राजभवन की बात करने की छोड़िए, इसकी तरफ झॉंकुगा भी नहीं। तौबा…मुझे जाने दें। पर भण्डारी साहब मानने को तैयार नहीं थे। एकाध पेग और लगाने के बाद जब वे और श्लथ हुए तो मैं उन्हें छोड़ उल्टे पांव भागा। बिना उस डिनर को खाए जिसके लिए बुलाया गया था।

    उस घटना के बाद किसी भी राजभवन से आने वाले न्योते को मैं सख्ती से मना कर देता हूँ। वहां डिनर पर जाने की हिम्मत नहीं होती। इसके बाद फिर किसी राजभवन नहीं गया। हॉं उस घटना के बाद भण्डारी साहब से अपनी दोस्ती हो गयी। उनके प्रति करुणा का भाव मेरे मन में उपजा। जब दिल्ली आया तो वे अक्सर मिल जाते। लम्बी बात होती। पर उनका अंदाज वही था। अब वे नहीं हैं। पर बहुत याद आते हैं महामहिम।

    अवसर इसके बाद भी आते रहे। कई अवसर। पर मैं बचता रहा। पता नहीं क्यों एक टोटका सा मन में घर कर गया था। एक बार तो लगा कि अब ये राजभवन की अन्न नहीं वाली प्रतिज्ञा टूट जाएगी। आज सोचता हूं कि काश वो टूट ही गई होती। पर ईश्वर को मंजूर नहीं था। प्रतिज्ञा रह गई।  हुआ  ये कि मेरी घरैतिन यानी वीणा के बड़े भाई देवेंद्र द्विवेदी जी गुजरात के राज्यपाल नियुक्त हुए। उनकी नियुक्ति की अधिसूचना जारी हो गई। बस शपथग्रहण बाकी था। लेकिन इससे पहले वो अस्वस्थ हो गए। शपथ ग्रहण टाल दिया गया। फिर वह कभी हुआ ही नहीं। वे संसार छोड़  चले गए। वो ठीक होते तो शपथ और फिर राजभवन का आतिथ्य भी मिलता। पर वो स्थिति आने से पहले ही परिस्थिति बदल गई।

    खैर, भंडारी साहेब के भंडारे का तीखा मेरे लिए प्रतिज्ञा की सीमा तक आया था। आज भले-भोले राज्यपाल भी आतिथ्य के लिए अनुग्रह करते हैं तो अतीत की क़सम गंगाजली उठा लेती है। राज्यपालों से कोई शिकायत तो नहीं। लेकिन भय का भूत और अनुभव के बाद की प्रतिज्ञा का निर्वहन बना हुआ है। खाने जाने में रिस्क है। न खाने में नो रिस्क।

    (हेमंत शर्मा के फ़ेसबुक पेज से साभार। संपादित अंश)

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